*वो लम्हें* – सरला मेहता

धड़धड़ाती ट्रेन की आवाज़ नव्या की धड़कने बढ़ा देती है। वह इस नई जगह आकर अपना अतीत भूल जाना चाहती थी। आफ़िसवालों  को पहले ही ताक़ीद दी थी कि शहर के शोरगुल से दूर उसके लिए फ्लेट ढूंढे। यूँ तो यह कालोनी शांत इलाके में है। किंतु रात के आठ बजते ही ट्रेन के गुज़रने की आवाज़ उसे दहला देती है।

वह कान में ईयर फोन लगाए गाने सुनते हुए भी वह छुक छुक का एहसास उसके रोंगटे खड़े कर देता है। वह पाँच वर्षीया बेटी रूही को सीने से लगाए सोने की कोशिश करती है। किंतु चैन कहाँ ? यह ट्रेन की विसल पीछा ही नहीं छोड़ती है। उसे पुनः पुनः छः वर्ष पूर्व के अतीत में ले जाती है…

    वह कितनी खुश थी अपने सहकर्मी अर्पण को पाकर। माँ पापा के विरोध के बावजूद उस अनजान प्रेमी से ब्याह ही रचा लिया था। करती भी क्या, उसका अंश जो पाल रही थी अपने शरीर में। और अचानक एक दिन अर्पण ने कहा, ” मैं दो दिन बाद यू एस जा रहा हूँ। मेरी एक रिश्ते की दीदी ने मेरे लिए बहुत अच्छा जॉब ढूंढा है। बस सेटल होते ही तुम भी उड़ के आ जाना, मेरी स्टेनो बीबी। “

नव्या ने अपनी बचत से सारी तैयारियाँ बड़े मन से की। खूब सारे गर्म कपड़े, सूखे नाश्ते व दीदी के लिए उपहार के साथ पेकिंग की। अर्पण की फ्लाइट मुम्बई से थी। नव्या कम से कम मुंबई तक ट्रेन में अपने प्रियतम के साथ रहना चाहती थी। किन्तु अर्पण उसकी नाज़ुक हालत का हवाला देकर उसे मना लेता है।

प्लेटफॉर्म पर खूब चहल पहल थी। नव्या एक एक पल जी लेना चाहती है। वह अर्पण से पहली बार टी ब्रेक में केंटीन में मिली थी। उसी चाय को याद करते हुए उसने प्लेटफॉर्म पर अर्पण के साथ चाय पी थी। पास ही स्टॉल से कुछ पत्रिकाएँ खरीद कर अर्पण के बैग में डाल दी थी। और भी कई जोड़े बैठे थे।

जैसे ही ट्रेन आई,  सब हाथ में हाथ डाले ट्रेन में बैठ गए। वह अकेली ही रह गई थी। सरकती हुई ट्रेन के साथ अर्पण का हाथ भी उसके हाथों से फ़िसलता गया। उसे लग रहा था कि काश वह भी दौड़कर ट्रेन में बैठ पाती। धीरे धीरे प्लेटफॉर्म खाली हो गया और अर्पण भी आँखों से ओझल हो गया।


दिन बीतते गए। अर्पण के फोन आना कम होते गए। न अता न पता। क्या करती नव्या ? बेटी रूही आ गई। कुछ दिन माँ पापा के साथ रही। फ़िर लोगों के तानों से तंग आकर इस अनजान जगह नासिक आ गई। बीच बीच में पापा आते रहते। माँ तो बेटी के गम में बीमार होकर चल बसी।

अकेली रहते रहते भी परेशान हो गई थी। पापा से मिन्नतें की कि अब वे रिटायर हो गए हैं, यहीं आ जाए। नानू के आने से रूही खुश है। औरों के पापा लोगों को देखकर रूही यकायक पूछ बैठती  है, ” मम्मा ! मेरे पापा कहाँ हैं ? ” क्या जवाब दे बेटी को ? फ़िर भी जैसे तैसे वक़्त तो गुजारना ही है।

तभी पापा के करीबी मित्र मि मेहरा बेटे सुमित व पोते रोहन के साथ आने वाले हैं। सुमित का ट्रांसफर यहीं हुआ है। पापा व रूही उन्हें स्टेशन लेने जाते हैं। रूही आकर पूछती है, ” मम्मा हम कभी भी ट्रेन में नहीं बैठे। एक बार हम चलेंगे ना कहीं। ” मम्मा निरुत्तर हो जाती है।

सुमित की रेलवे में जॉब है। उसे रेलवे कॉलोनी में क्वार्टर मिल जाता है। रूबी की रोहन से अच्छी दोस्ती हो जाती है। पापा बताते हैं कि सुमित अपनी पत्नी एक हादसे में खो चुका है। रोहन को नव्या आँटी के साथ रहना अच्छा लगता है।

         दोनों जिगरी दोस्त अपने बच्चों की दुखी जिंदगियों को कैसे भी खुशहाल करना चाहते हैं। सोचते हैं कि नव्या व सुमित एक नए जीवन की शुरुआत करें।


        एक बार खेलते खेलते रूही कहती है, ” रोहन ! क्या तुम्हारे पापा मेरे पापा नहीं बन सकते। ” और रोहन के मुँह से निकलता है, ” और तुम्हारी मम्मा मेरी मम्मा।”

बच्चों की बात सुनकर सुमित भी अपने दिल की बात कह देता है, ” नव्या! क्या हम बच्चों के खातिर ही सही उनके मम्मा पापा नहीं बन सकते ? “

नव्या अपने आँसुओं पर नियंत्रण करते हुए कहती है, ” एक ट्रेन तो ऐसी छूटी कि मेरे जीवन की सारी खुशियाँ ही ले गई। अब मुझे अपने भाग्य पर भरोसा नहीं रहा। “

सुमित अपना रुमाल थमाते हुए आश्वस्त करता है, ” जाने वाली ट्रेन की बात भूल जाओ। कोई आने वाली ट्रेन खुशियाँ भी तो ला सकती है। “

सरला मेहता

इंदौर म प्र

स्वरचित

अप्रकाशित

 

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