वो एक बिजली के खंबे से पीठ लगाए खड़ी थी. फुटपाथ पर चलते हुए एक निगाह उसके ऊपर डाली तो …….. गोरा रंग, लंबा पतला शरीर और उम्र …… उम्र कुछ रही होगी पच्चीस छब्बीस साल. ठीक ही है. चलेगा.
मैंने उसके सामने से गुजरते हुए ऊपर से नीचे तक उसके पूरे जुगराफिए का पुनरमूल्यांकन किया और कुछ कदम आगे बढ़ गया. फिर दोबार पीछे लौटकर उसकी आँखों में आँखें डालकर देखा.
उसने अपनी दोनों आई ब्रो को सवालिया अंदाज मे ऊपर उछालकर मेरा इरादा जानना चाहा. मैंने बीच की उंगली से अंगूठा छुवाकर चुटकी सी बजाई मतलब, ‘दाम क्या है’?
उसने धीरे से मधुर सी आवाज मे कहा “टू थाउजेंड फॉर होल नाइट डार्लिंग, बट वन परसन ओनली”।
मैंने उसके कुछ और करीब सरकते हुए एक उंगली उठाते हुए कहा कहा “वन…। “
“वन फॉर वन आवर ……. ओ के. एण्ड एक्स्ट्रा फोर हंड्रेड फॉर रूम”.
“रूम नॉट रिकवायर्ड. मेरा घर पास मे ही है”.
“ओह… घर… घर मत कहो यार. वो अलग चीज होती है. घर होता तो तुम वहाँ एक बाजारू लड़की को नहीं ले जाते. फ्लैट बोल सकते हो”.
हर हफ्ते दो हफ्ते में मेरा ये रूटीन था। वासना का बुखार जब बेकाबू होने लगता तो ‘बाजार’ से एक लड़की किराए पर ले जाता और सुबह होने तक उसे भूल जाने का प्रयास करता था।
कुछ पल का काल्पनिक अकेलापन दूर होने और भावनाहीन अभिसार के लमहे गुजार लेने के बाद मैं एक सिगरेट सुलगाकर हमेशा की तरह आज की रात को अलविदा कह रहा था।
वो बाथरूम में चली गई और मैं बिस्तर की सिलवटें ठीक करता रहा. लौटी तो उसका चेहरा धुला हुआ था. मेकअप उतरा हुआ था. बिना मेकअप के भी वो आकर्षक लग रही थी. उसके चेहरे पर आज की दिहाड़ी पूरी कर लेने का संतोष साफ झलक रहा था.
उसने अपना पर्स उठाया और उसमे कुछ तलाश करने लगी. फिर ठंडी सांस लेकर बोली “ओह सिगरेट…. फिनिश. तुम्हारे पास एक और सिगरेट है?
मैंने तकिये के नीचे से निकालकर सिगरेट का पैकेट उसकी तरफ उछाल दिया. उसने एक सिगरेट सुलगाकर लंबा कश लिया और सोफ़े से पीठ लगाकर आँखें मूँद लीं. फिर धीरे से कहा “मैरिड ….. ओर बैचलर?”
अकसर ऐसी लड़कियों से मैं बात नहीं करता मगर उसके चेहरे पर एक संजीदगी सी थी. गहरा और वाहियात सा मेकअप उतारने के बाद वो एक सामान्य पारिवारिक सी लड़की दिखाई दे रही थी।
“बेचलर” मैंने उड़ता सा उत्तर दिया.
“क्या करते हो”
“एम.आर. हूँ. मेडिकल रिप्रजेण्टेटिव”.
“कितना कमा लेते हो”.
“चालीस प्लस कमीशन. बट इट्स नन ऑफ यूअर बिज़नस. यू में गो नाव”.
“मेरे लिए काम करोगे”.
“पागल…. पागल हो क्या तुम. मुझे लड़कियों का दलाल बनाना चाहती हो”.
“दलाल ! …. तो अभी तुम क्या हो?
“मैं कंपनी का रिप्रजेण्टेटिव और कमीशन एजेंट हूँ”
“तो एजेंट किसे कहते हैं? एक माल को उपभोक्ता तक पहुंचाना. यही काम तो है तुम्हारा।”.
“आउट…. अब तुम जा सकती हो”।
उसने सिगरेट में एक लंबा कश लिया और दार्शनिकों की तरह धुंआ आसमान की और उड़ाते हुए ठंडी आवाज में कहा “सोच लो, पूरी जिंदगी दो कमरे के फ़्लैट में पचास हजार रुपल्ली कमाते हुए बूढ़े हो जाओगे”.
“तुम्हे पता है, तुम मुझे रंडियों का दल्ला बनने का ऑफर दे रही हो. मेरा भी कुछ आत्मसम्मान है. करेक्टर है. डिग्निटी है”.
“अभी दस मिनट पहले एक रंडी …… आह ……. एक रंडी तुम्हारे पहलू में थी. तब कहाँ गयी थी तुम्हारी आत्मा, करेक्टर …. डिग्निटी …….. डिग्निटी माय फुट”.
“मगर …… जो तुम मुझे करने को कह रही हो वो तो गुनाह है”.
“गुनाह! तो वो भी था, जो तुम ने किया. देखो मिस्टर ….. जो भी नाम है तुम्हारा. तुम्हारे पास मुम्बई में एक फ़्लैट है. एक मोटरसाइकिल है. नौजवान हो. ‘बेचना’ जानते हो. ध्यान से सुनो. मैं तुम्हे कोई बलात्कार करने को नहीं कह रही हूँ. मासूम लड़कियों को बहला फुसलाकर धंधे में धकेलने को नहीं कह रही हूँ. किसी कोठे के बाहर …… कलाई में फूलों का गजरा बांधकर सड़क पर जाते लोगों को कोठे की सीढ़ियां चढ़ाने को भी नहीं बोल रही हूँ. अरे बड़ा सोफेस्टिकेटिड और ओर्गेनाइज्ड सा नोबल प्रोफेशन है. पूरी दुनिया में आदिकाल से चलता है. दिन में, जिन्हे शरीर की बीमारियों का इलाज कराने को दवाइयां चाहियें उन्हें दवाई सप्लाई करो और रात में जिसे शरीर की गर्मी निकालने की दवा ….. हा हा हा हा. शरीर से गर्मी निकालने की दवा चाहिए हा हा हा. दिन में कमाओ पचास हजार और रात में ……. पांच लाख भी कमा सकते हो. सोच लो. ये टेबल पर मेरा कार्ड पड़ा है. फोन कर लेना.” और वो अपना बैग कंधे पर झुलाती हुई बाहर निकल गई।
दो साल से मोटरसाइकिल नहीं बदल पा रहा हूँ, कार की तो कल्पना करना भी गुनाह है. माँ को एक पैसा भेजे हुए तीन महीने हो गए हैं. रिसेशन के चलते नौकरियों का अकाल पड़ा हुआ है. एम्प्लॉयर टारगेट पूरा न करने पर निकालने की धमकी देता है. इस घोड़े की तरह सरपट दौड़ते हृदयहीन महंगे से महानगर में बिना पैसे के एक एक दिन गुजारना मुश्किल है. थोड़ी बहुत कंजूसी करके दो पैसे बचाता हूँ तो जवानी और अकेलेपन के कारण लगे व्यसनों में उड़ जाते हैं. उत्तापित शरीर है और चंचल मन है, तो सब कुछ चाहिए. ये सब मैंने थोड़े ही बनाया है. कुदरत के खेल हैं. पेट की भूख है तो शरीर की भूख भी तो है. और फिर मुझे किसी को धंधा करने को प्रवोक थोड़े ही करना है. दुनिया का सबसे पुराना पेशा है. करोड़ों लोग इसमें शामिल हैं. आवश्यकता और पूर्ति का नियम भर है. डिमांड एन्ड सप्लाई. इन लंबी गाड़ियों के काले शीशे के पीछे छुपे हुए कथित सभ्य, संभ्रांत लोगों से कभी कोई पूछता है कि ये स्याह सफ़ेद माल कहाँ से कमाया. माल आना चाइए, इज्जत तो अपने आप पीछे पीछे चली आती है.
छठे दिन मैं कार्ड पर लिखा नंबर डायल कर रहा था.
“हैल्लो. एक रात का दो हजार. रूम के चार सौ एक्स्ट्रा”. बिना कोई सवाल किये या सुने उधर से आवाज आई.
“जी मैं सुरंजन …….
“सुरंजन, निरंजन, अभिरंजन, अभिनन्दन …. सबका एक ही रेट है. धंधे का टाइम है. जल्दी बोलो”.
“जी आप उस दिन वर्ली के ग्यारहवें माले के फ़्लैट में ………. एम्.आर. …… मेडिकल रिप्रजेंटेटिव सुरंजन”.
“ओ …… दैट सेल्स मैन. मुझे पता था कि तुम्हारा फोन आयेगा. देखो सुरंजन जी … ये जो पैसा है न, साली बड़ी जालिम चीज है. भिखारी को देने के लिए आदमी जेब मे चिल्लर ढूंडता है और जब किसी पुलिस केस में फंस जाय तो अक्खा बैंक एकाउंट खाली कर देता है. तवायफ के ठुमकों पर जनता नोट उड़ाती है और माँ को इलाज के लिए वही लोग सरकारी या चेरेटिबिल हस्पताल मे ले जाते है. पैसे की वैल्यू समझो मिस्टर सुरंजन. दुनिया में एक ही काम बुरा है कि आप के द्वारा किसी को कष्ट पहुंचे. और सबसे बड़ा पुण्य यही है कि आप किसी को सुख पहुंचा सकें. तो ….. हम तो सुख बाँट रहे हैं दोस्त, हा हा हा. फिर ……. बैठते हैं एक दिन साथ और जमाते हैं नई कंपनी.
एक रेस्टोरेन्ट की कोने वाली टेबल पर हमारी पहली बिज़नस मीटिंग सुनिश्चित हुई. रूपल, मैं और उसकी एक सीनियर साँवली सलोनी सी मित्र मिताली. नामों का कोई महत्व नहीं है यहाँ. पता नहीं माँ बाप के रखे हुए नामों मे कितनी बार परिवर्तन हो चुके होंगे अबतक.
“जी बताइये … किस प्रकार की कल्पना है आप लोगों की”.
“कल्पना ……. कल्पना बिलकुल नहीं है. नए बिज़नस स्ट्रेक्चर का पूरा खाका एकदम स्पष्ट रूप से दिमाग में है. क्लीयर कांसेप्ट”. मिताली ने सहजता से कहा.
“सब से पहले तो तुम्हें मिस्टर सुरंजन, इस नोबल बिज़नस के प्रति अपना माइंड सेट चेंज करना होगा”.
“नोबल बिज़नस हा हा। जिस्म बेचना नोबल बिज़नस”.
“दैन आई क्विट दिस मीटिंग. बाय”. रूपल ने आक्रोश के साथ खड़े होते हुए कहा”.
“अरे बैठो यार रूपल. बिज़नस मीटिंग में एक्साइट नहीं होना चाहिए. पहले मिस्टर सुरंजन को समझ तो लेने दो चीजों को”.
रूपल, चेहरे पर असहमति सी लिए हुए बेमन से दूसरी दिशा में देखते हुए बैठ गई.
मीताली ने फिर कहना शुरू किया. “जहां तक जिस्म बेचने की बात है मिस्टर, जिस्म तो तुम भी बेचेते हो. अपनी मोटरसाइकिल पर सुबह से शाम तक धक्के खाना भी तो अपनी शरीर का पैसों के लिए दूसरे की सेवा में इस्तेमाल करना यानी बेचना ही है. एक मजदूर जो रिक्शा चलाता है, माल ढोता है, सड़क पर झाड़ू लगाता है क्या वो अपना जिस्म नहीं बेचता? अच्छा एक बात बताओ. एक अभिनेत्री या एक मौडल जो अपने शरीर का एक एक उतार चढ़ाव दिखाने के पैसे वसूल करती है, उसे आप क्या कहेंगे.
जहां तक बिज़नस के नोबल होने की बात है, पूरी दुनिया का एक देश बताओ जिसमे ये प्रागैतिहासिक व्यापार न होता हो. क्या हम किसी को अपनी बीवी छोड़कर हमारे पास आने के लिए आमंत्रित करते हैं, प्रोत्साहित करते हैं. एक किसान अन्न उगाकर जनता के पेट की भूख मिटाता है तो उसे अन्नदाता बताकर पूजा जाता है और हम जो अपनी हड्डियाँ तुड़वा कर लोगों के शरीर की भूख मिटाते हैं, हमे वैश्या कहा जाता है. तुम्हें पता है मिस्टर रंजन …. दुनिया के कई देशों में ये लीगल है. बाकायदा सरकार परमिट इश्यू करती है और एक बात समझ लो. थाइलेंड जैसे देश में जहां ये लीगल है वहाँ बच्चियों के साथ रेप नहीं होते. सरकार लॉटरी के टिकट बेचकर जुआ खिलवा सकती है, भांग और शराब के लाइसेन्स देकर लोगों की जिंदगी बर्बाद कर सकती है मगर ………. मैं दोबारा कहूँगी कि उसी सरकार ने हमारे ‘नोबल प्रोफेशन’ को इल्लीगल घोषित कर रखा है. नारी उत्पीड़न और वेश्यावृती पर लंबे चौड़े भाषण देने वालों ….. ‘हम ने तुमको भी छुप छुपकर, आते देखा इन गलियों मे’. फिल्म अमर प्रेम के गाने की लाइन है. तो …. मैं कह रही थी कि हमारा कोई बॉस नहीं है. कोई जबर्दस्ती भी नहीं है. हमारे ग्रुप में सभी स्वस्थ और पढ़ी लिखी लड़कियां है जो नियमित अपने स्वास्थ्य की जांच कराती रहती हैं. ऐनी क्वेशचन मिस्टर ……. “
“हम पहले भी एक ओर्गेनाइज्ड ग्रुप के साथ काम करती थीं मगर पिछले दिनो उन लोगों से बात बिगड़ गई, वरना हमें कभी सड़क के किनारे खड़े होने की नौबत नहीं आती”. अब रूपल ने बोलना शुरू किया।
“इस सब में मेरी क्या भूमिका है मिस्स …… मिस या मिसेज मीताली जी”.
“कुछ विशेष नहीं। रूपल ने कहा न, सब कुछ व्यवस्थित था उस ग्रुप में. अब …… नए तरीके से एक नया ग्रुप बनाना है। सब कुछ ऑनलाइन होता है. वाटसप से सारी लडकियाँ एक दूसरे से जुड़ी रहती हैं. कोडवर्ड में बातें होती हैं. ग्राहकों का डेटा हमारे पास है. बस हमारा एक ऑफिस होगा. उसे तुम मैनेज करोगे. प्रत्येक लड़की अपनी हर बार की कमाई से कुछ प्रतिशत कंपनी को देती है और उस पैसे से पुलिस प्रोटक्षन, डॉक्टर और समूहिक इंश्योरेंस इत्यादि की व्यवस्था और ऑफिस के खर्चे निकलेंगे. पुरानी कंपनी तो रिटायरमेंट के बाद पेंशन भी देती थी. सिंपल. और हाँ, रूपल ने बी.कॉम किया है. वो एकाउंट्स वगहरा में तुम्हारी हैल्प करगी”.
“क्या बात है। मैं तो रतोरात कंपनी का मेनेजिंग डाइरेक्टर बन गया. हा हा हा”.
“मगर एक बात समझ लो सुरंजन जी. वो होती है न तुम लोगों में एक ….. आत्मा ….. डिगनिटी ….. स्वाभिमान, इन सब से पूछकर ही धंधे मे कदम रखना. कर्म पूजा होता है। उसका सम्मान होना चाहिए”.
ऑफिस चालू हो गया. मेरे फ़्लैट में मेरा लेपटॉप, मोबाईल और मैं. बस यही था मेरा नए ‘नोबल’ व्यापार का मेन डिवीजन. हा हा.
शाम सात बजे मैं घर पहुँच जाता. आठ बजे रूपल रोज कुछ नयी रूप सज्जा, केश विन्यास और नए परिधान में उपस्थित हो जाती. सबसे पहले वाट्सएप पर हाजिरी होती कि कौन कौन आज रात के लिए अवेलेबल हैं. कॉल अक्सर नो बजे के बाद ही आने शुरू होते थे. कई पुराने ग्राहक होते तो रूपल को उनकी पसंद का अंदाजा भी रहता. नए ग्राहक हों तो पहले हम उसे बातों बातों में जांचने का प्रयास करते कि फेक तो नहीं है. फिर हम उसकी फरमाइश टटोलते. उसके बाद देखना होता था कि हमारे गोदाम में ग्राहक की पसंद का माल है भी या नहीं. किस को कितनी रिआयत देनी है. किसका कितना मूंडन करना है. कौन पुराना ग्राहक कितना बिजनैस देता है और कौन नया कस्टमर किस हैसियत और मूड का इंसान है और फ्यूचर में कमाऊ साबित हो सकता है या नहीं, तथा किस को दुर्व्यवहार के कारण ब्लैक लिस्ट करना है. बाद में हम फीडबैक भी लेते और उसे कोड वर्ड में अपने डेटाबेस में दर्ज करते थे. बस यही छोटे मोटे दाव पेच थे इस धंधे के. सब कुछ वैल मैनेज्ड और परफैक्ट चल रहा था. मैं तो बहुत थोड़े समय में ही पारंगत हो गया था.
गर्म मुंबई में अक्सर ऐसी ठंडी हवा कभी नहीं चलती जैसी आज चल रही थी. रूपल कांपती सी साढ़े नौ बजे फ़्लैट पर पहुँची. हम लोग कॉल अटैंड करने लगे.
“यार तुम कुछ चाय वाय का इंतजाम नहीं रखते हो अपने फ़्लैट पर”.
“नहीं पार्टनर, कौन झंझट में पड़े. सुबह एक चाय पीता हूँ तो वो कैंटीन वाला भेज देता है”.
“किचन तो है न तुम्हारे पास. देखें जरा, क्या क्या सामान जुटा रखा है.
अरे यहाँ तो इंडेक्शन चूल्हा, बर्तन वगैहरा सब मौजूद हैं. चाय की पत्ती ……. हाँ … वो भी है. चीनी भी है. बस दूध नहीं है. सुनो सुरंजन. तुम थोड़ा दूध मैनेज नहीं कर सकते. मुझे चाय पीनी है”.
“हाँ सामान तो सब है. बस बनाने को मन ही नहीं करता. टिफिन वाला है न. कभी कभी खाना गर्म कर लेता हूँ बस. अभी कैंटीन वाले को फोन करता हूँ. दूध दे जायेगा. चाय बनानी आती है तुम्हे”.
“क्या बात करते हो. किसी दिन तुम्हे इडली बनाकर खिलाऊंगी. मम्मी मेरे हाथ के बने खाने की बड़ी तारीफ करती थीं. अब …… नहीं बनाती. बड़े दिन हो गए”.
“अब तुम धंधेबाज हो गयी हो. हा हा हा. खीसे में माल हो तो कौन पकाए. सब पका पकाया मिल जाता है” मैंने हल्का सा मजाक किया. वो उदास सी मुस्कान मुस्कराकर रह गयी.
अब हर शाम उसकी प्रतीक्षा सी रहने लगी थी. कुछ भी हो वो अपनी साज सज्जा और मेकअप को लेकर वो बहुत कौनशियस थी और सुरूचिपूर्ण भी.
“तुम्हें लाइफ में इस ‘नेबल प्रोफेशन’ के अलावा कोई और काम नहीं सूझा” मैंने व्यंग से मुस्कराते हुए कहा.
“क्यूँ नहीं सूझा… कई काम किए थे. बी.कॉम करने के बाद एक सी.ए. के यहां एकाउंट्स का काम किया, मगर उसका इन्टरेस्ट मेरे जॉब से ज्यादा मेरे जिस्म में था. बारह हजार रूपल्ली सेलेरी देने वाला खडूस बुड्ढा एक रात के पचास हजार देने को तैयार हो गया”. वो खिलखिलाकर हंसी।
“फिर मेरा एकाउंट्स के बोरिंग काम से मन उकता गया तो तीन महीने का ब्यूटीशियन का कोर्स किया. खट से एक बड़े पार्लर में जॉब मिल गई मगर ……… हा हा हा, वहाँ भी पार्लर के मालिक का इन्टरेस्ट मेरे हुनर से ज्यादा मेरे जिस्म में था. तो ……. मैंने सोचा दुनिया मे जिसकी डिमांड सब से ज्यादा है, वही सप्लाई करते हैं. डिमांड एंड सप्लाई. हा हा हा”.
“बस …… इसलिए तुम ने ये नोबल ……..”
“ओ शटप, बार बार नोबल नोबल कहकर मेरा मज़ाक मत उड़ाओ यार. मुझे भी अपने काम को आदर्श बताकर खुद को समझाना पड़ता है”.
“हाँ मगर …… तुम्हें कुछ थोड़े से कामुक एय्याश लोग क्या मिल गए, तुमने जिस्म बेचने का धंधा शुरू कर दिया. कितनी महिलाएं अपने परिवार और अपने चरित्र को बचाते हुए जॉब करती ही हैं, मजदूरी करती हैं।”.
“हसरतें डार्लिंग हसरतें …… बहुत पैसा कमाने की हसरत. ऊंचा बहुत ऊंचा उड़ने की ….. बट नॉट लाइक दैट फिल्मी स्टोरी कि ‘मुझे माँ के ऑपरेशन के लिए पैसे की जरूरत थी, इस लिए मैंने खुद को बेच डाला’. थ्रिल एंड मनी. सिंपल.
“तो ……. अब तुम्हारी रोमांच …… थ्रिल और ……….. और हर रात नया बिस्तर ….. नया पुरुष … ये भूख भी तो शामिल रही होगी तुम्हारे इस …… ‘प्रोफेशन’ मे ……. तो अब मिट गई या …… ‘रात अभी बाकी है बात अभी बाकी है’.
“भगवान से तुम्हें शक्ल ढंग की नहीं दी तो बातें तो ढंग की किया करो यार. तुम हर वक्त व्यंग के बाण क्यूँ छोड़ते रहते हो. दिल दुखाते रहते हो”.
“मेरा इरादा तुम्हारा दिल दुखाने का बिलकुल नहीं है डार्लिंग. मगर …… सवाल अब भी वही है. क्या आज भी इस धंधे सौरी व्यवसाय के प्रति, आकर्षण उतना ही बरकरार है या कुछ थोड़ा बहुत मोह भंग हुआ है”.
“आकर्षण माय फुट. भेड़िये की तरह गरम गोश्त में दाँत गड़ाने को मरे जा रहे भूखे कुत्ते. वासना की गंदी नाली मे गिजबिजाते गलीच कीड़े, ह्रदयहीन, संवेदना विहीन लकड़ी के पुतले. नफरत है मुझे उन हारामी के पिल्लों से”.
“अपने अन्नदाता ग्राहकों को गाली दे रही हो. ये धंधे के उसूलों के खिलाफ है”.
“भाड़ में गया तुम्हारा धंधा और धंधे के उसूल. देखना एक दिन फुर्र से उड़ जाएगी रूपल, इन गंदी गलियों से. अपना छोटा सा आशियाना बनाऊँगी. छोटे छोटे बच्चे होंगे मेरे …. स्कूल जाएंगे. अच्छे इंसान बनेंगे”.
“क्या तुम अपने बच्चों को भी इस प्रोफेशन मे ……… “
रूपल ने आग्नेय नेत्रों से मेरे ओर देखा और सामने पड़ी चीनी मिट्टी की केतली उठाकर मेरी ओर दे मारी। आज अगर थोड़ा सा बच न गया होता तो खोपड़ी खुल सकती थी.
“इतना गुस्सा। जिस काम के पक्ष में तुम और तुम्हारी सहेली ….. क्या नाम था उसका, मिताली तर्क दे रहे थे कि…… एक मजदूर भी जिस्म बेचता है और हम भी, उसमे अपने बच्चों को डालने की केवल बात करने पर इतना गुस्सा”.
कुछ देर मौन छाया रहा। फिर मैंने वातावरण को शांत करने का प्रयास करते हुए ठंडे स्वर मे कहा “अच्छा …. तो तुम घर बसाओगी ….. बच्चे पैदा करोगी पर ……. कहाँ से आयेगा तुम्हारे साथ घर बसाने वाला. कैसे मिलेगा कोई ऐसा …….”
“मिल जाएगा …. मिल जाएगा … जैसे तुम मिल गए” उसने एक टक पूरी खुली आँखों से मेरी ओर देखते हुआ कहा”.
“मैं तो अपनी आत्मा को मारकर पैसा कमाने के लिए तुम्हारे साथ आया न”.
“और मैं भी अपनी आत्मा को मारकर … आहाहाहा। देखो हमारे विचार कितने मिलते हैं” और वो खिखिलकर हंसने लगी.
रात के दस बजे थे. मुंबई में पिछले तीस घंटे से बरसात हो रही थी. जगह जगह जलभराव से जनजीवन अस्त व्यस्त हो गया था. मैं अपनी बालकनी में एक ठंडी बीयर की बोतल लिए धीरे धीरे टहलता हुआ सिप कर रहा था कि डोर बैल बज उठी. ऐसे मौसम में रूपल का आना भी मुश्किल है. फिर कौन आ गया.
दरवाजा खोला तो सामने रूपल खड़ी थी. आधी भीगी हुई.
“अरे …. ऐसी भी क्या मजबूरी थी रूपल जी. फोन पर तो हम संपर्क में थे ही”.
“मन बड़ा व्यथित सा हो रहा था सुरंजन. क्या …… क्या मैं तुम्हे एक बार हग कर सकती हूँ मतलब ……… “.
“अरे ….. लगता है महीनो से कोई मिला नहीं”.
“ऐसे मत बोलो न. तुम्हे तो पता है कि लम्बे टाइम से मैं …… मेरे भीतर भी एक कोमल भावनाओं वाली औरत छुपी हुई है. बड़ा डिप्रेशन सा हो रहा था आज … बुरे खयाल आ रहे थे ….. जैसे बस ……. बहुत हो गया ….. अब सुसाइड करके सब खत्म …” और उसकी आवाज रुंध गयी. मैंने आगे बढ़कर उसे सीने से लगा लिया. उसकी हिचकियाँ बंध गयी थीं.
“बड़ी भूख लगी है यार. आज सब रेस्टोरेंट बंद हो गए थे. कुछ खाने को मिला ही नहीं” उसने मासूमियत से कहा.
“लगातार बारिश के कारण आज अपना भी टिफिन वाला नहीं पहुँच पाया है वार्ना उसी को शेयर कर लेते. अच्छा मैं तुम्हे आलू के सैंडविच बनाकर खिलाता हूँ”.
“अरे तुम क्या जानो सैंडविच बनाना. आज रूपल के हाथों का हुनर देखो” और वो किचन में एक ग्रहणी की तरह जुट गयी.
“तुम्हारे पिताजी हैं”.
“नहीं ….. आई वाज द डॉटर ऑफ सिंगल मदर ……. बट …. मदर इस नो मोर”.
“यहीं रह जाओ”.
“मतलब ….. कुँए से निकलकर खाई में गिर जाऊं. तुम्हारी रखैल बन जाऊं”. फिर कुछ देर चुप्पी छाई रही. उसने रसोई से ही दुबारा जोर से कहा “बीवी बनाओ तो कल से रूपल तुम्हारी”.
“आ जाओ यार. तुम्हारे बिना इस घर में अब मन नहीं लगता. लिवइन में भी तो रहते हैं लोग”.
“नही सुरंजन, मुझे नहीं रहना लिवइन में. मेरा बचपन से सपना था कि एक दिन हाथों में मेहंदी लगाकर लाल चुनरिया ओढ़कर साजन के घर जाऊँगी”.
“तो ….. चलो उसमे क्या है. रजिस्ट्रार के ऑफिस में साइन ही तो करने हैं”.
“मंदिर में शादी करेंगे सुरंजन जी. रजिस्ट्रार का क्या है. शादी का रिश्ता दिलों का होता है. वो भी क्या आलेखों में दर्ज करने की चीज है. जिस दिन मुहब्बत टूट जाएगी, उस दिन कोई दस्तावेज़ हमे बांध नहीं सकता. और बंधे भी तो क्यूँ. उस जबर्दस्ती के बंधन का कोई मतलब है क्या”.
फिर कई रात मैं सो नहीं पाया। एक बाकायदा प्रोफेशनल कौलगर्ल मुझे शादी का ऑफर दे रही थी. अच्छी सी लगती है मुझे मगर उसका अतीत तो एक खुली किताब के समान मेरे सामने फैला पड़ा है. रंडी है वो एक वैश्या है. न जाने कितने लोगों का बिस्तर गर्म कर चुकी है.
किन्तु … मैं कौन हूँ। कितना दूध का धुला हूँ मैं. उसने पैसा कमाने के लिए अपना जिस्म बेचा तो मैंने भी तो पैसे के लिए अपना जमीर बेच दिया है. और कौन हैं उसके खरीदार. मेरे जैसे ऐय्याश लोग ही तो हैं. अगर ये सब गुनाह है तो क्या हम दोनों इन गुनाहों के बराबर से साझीदार नहीं हैं क्या.
उम्र के इस मोड पर और इस व्यवसाय को अपनाने के बाद और बचा ही क्या है जीवन में. कौन मेरे लिए पलक पांवड़े बिछाये बैठी है. जिसका सानिध्य दिल को सुकून दे उसे जीवन में उतार लेने में बुराई ही क्या है भला.
शहनाई बजी, भले ही मोबाइल के गाना डॉट कॉम से बजी हो. मंदिर मे अग्नि को साक्षी मानकर सात फेरे हुए. उसकी सहेलियों ने मंगल गीत भी गाये और लाल चुनरिया ओढ़कर, हाथों में मेहंदी लगाकर रूपल मेरे फ्लैट पर आ गई.
कोई लड़की किसी के लिए इतनी समर्पित हो सकती है. अकल्पनीय. अविश्वासनीय. उस ‘शादी’ के बाद तो ऐसा लगता था कि अब वो सिर्फ मेरे लिए जीती है. तुम क्या खाओगे. तुम्हारे धुले कपड़े बाथरूम में रख दिये हैं. कपड़ों पर मैंने खुद ही प्रेस कर डाली. सारा दिन खाली ही तो रहती हूँ. सुनो, आज वो नीली छींट वाली शर्ट पहनना. तूम पर बहुत सुंदर लगती है. तुम्हारे जूते पोलिश कर दिये हैं और इनमे धुले हुए मोजे डाल दिये हैं, वगहरा वगहरा.
हर रात सोने से पहले वो स्नान करती और तकिये पर एक पोलोथीन लगाकर अपने खुले नागिन से बाल उसपर फैला देती. हर रात वो मेरे कंधे पर सर रखकर देर तक ढेर सारे सपने देखती. हम ये शहर छोड़ देंगे सुरंजन जी. कहीं दूर चले जाएंगे जहां हमे कोई जानने वाला न हो. कोई ऐसी जगह जहां हमारे ऊपर लगे बदनुमा दाग किसी को दिखाई न दें. मैं एक पार्लर खलूँगी और तुम दवाई की दुकान खोल लेना. सुनो … तुम ये काम छोड़ क्यूँ नहीं देते. हम तुम्हारी सेलेरी से गुजारा कर लेंगे. अपने बीच की जरूरतों को मुहब्बत से भर लेंगे सुरंजन जी.”
एक शाम रूपल कुछ लजाते हुए कहने लगी “रंजन, इस महीने कुछ अजीब सा अनुभव हो रहा है. कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारा परिवार बढ़ने वाला हो.”
मैंने उसे बाहों मे भर लिया था. प्रेम से जीवन पात्र लबरेज़ हो गया था.
शनीवार को काम ज्यादा होता है. मुंबई के लोग संडे की छुट्टी का फायदा उठाकर शनीवार की रात को ऐय्याशी में गुजरना चाहते हैं. सारे फोन लगातार बज रहे थे और मैं पूरी तन्मयता के साथ ‘धंधे’ में जुटा हुआ था. ग्यारह बजते बजते दबाव कुछ कम होने लगता है …
रूपल तकिये पर अपने केश फैलाये, छाती तक चादर ओढ़े हुए, आँख मूंदकर लेटी थी. चाँदनी का एक छोटा सा टुकड़ा सीधा उसके चेहरे को अपने धवल उजास में नहलाता सा, उसके अनुपम सौंदर्य में चार चाँद लगा रहा था.
मैं टहलता हुआ अपने आखिरी ग्राहकों के फोन अटेंड कर रहा था. तभी वो फोन आया जो मेरी दुनिया में, इस घर में, मेरे संवेदनाओं में और भविष्य में आग लगाकर गुजर गया.
“झुमरू मल सिन्धी बोलता है. हमाड़ी रात को रंगीन बनाओगे या सूखे सूखे ही जाने दोगे सुरंजन सेठ”.
“अरे … सेठ जी …. बड़े दिनों के बाद याद किया। बताइये बंदा आप की क्या खिदमत कर सकता है. सुरेखा, दीपाली, शिखा या नसीमन. जो माल चाहिए हाजिर हो जाएगा”.
“रूपल मांगता है आज तो. बड़ी मस्त लड़की है यार. बड़े दिन हो गए उसके साथ मजे लिए हुए”.
“रु… रूपल तो… रूपल नहीं मिल सकती सेठ. और कोई भी बोलो”.
“मेरे को येड़ा समझा है क्या. तेरे को बोला ना. आज चाहिए तो रूपल ही चाहिए. अरे दलाली करते हो तो खुल के करो न यार. ज्यादा रोकड़ा मांगता है ना. तो मुह खोल के बोलो. चलो बीस हजार देगा आज की रात”.
“नहीं सेठ…. वो नहीं है आज. कोई भी और….”
“बकवास बंद करो. मैंने अपने यार को कमिट किया है कि आज रूपल के साथ. अच्छा दो लोग हैं, इसलिए डबल. फोट्टी थाउजेंड. ओ के”.
“मगर वो…. “
“तुम साला दो टके का दलाल। हम से भाव खाता है. हम तुम को ईयर मे कंटीन्यूस बिज़नस देता है और तुम हमारी छोटी सी डिमांड में तीन पाँच करता है. चलो फिफ़्टी थाउजेंड फॉर वन नाइट. कभी एक ट्रिप मे कमाए हैं इतने पैसे. अरे दिल की बात है, वरना मुंबई मे गश्तियाँ, दो दो टके मे धक्के खाती घूमती हैं. जल्दी करना. मैं वेट करता है”.
पचास हजार …….. एक झटके में इतनी बड़ी रकम की कल्पना करके मेरा तो दिमाग घूम गया. अभी छह महीने पहले तक भी तो रूपल …….. कल सुबह हम ये मान लेंगे कि जिंदगी आज से ही शुरू हुई है. और ……. और क्या पता, उसे इसमे कोई ऐतराज ही न हो. क्या पता वो इतनी बड़ी डील छोड़ देने पर ही कल मुझसे नाराज हो. आखिर उसने भी तो एक जमाने में पैसे के लिए ही ये ‘धंधा’ शुरू किया था. अब छह महीने में कौन सी सती सावित्री बन गई है. एक बार पूछ लेने में हर्ज ही क्या है. ज्यादा से ज्यादा इंकार ही तो कर देगी न.
मैंने काँपते हाथों से एक घूंट पानी पिया और बैडरूम में पहुँच गया जहां रूपल मेरी प्रतीक्षा कर रही थी.
“क्या बात है जानू, आज सारी रात काम करोगे क्या”.
“नहीं वो ……… एक्चुअली … मैं ….. “
“क्या बात है पतिदेव, कुछ परेशान से नजर आते हो. फोन पर किसी से हॉट टॉक हो गई क्या. क्या … हुआ क्या है” और वो उठाकर बैठ गई.
“वो ….. एक रात के पचास हजार दे रहा है ……… तुम्हारे लिए. मतलब उसे ….. “.
“व्हाट. मेरे लिए मतलब ……. और तुम ने ये बात सुन ली. उस गंदी नाली के कीड़े को गलियाँ नहीं दीं. और तुम ……. तुम ….. ओफ़.”
“पचास हजार अच्छी ख़ासी रकम होती है बुलबुल और हमारी जरूरतें भी तो हैं”.
“यानी ….. तुम चाहते हो कि मैं दोबारा उस गंदी नाली में …” वो कई क्षण आग्नेय नेत्रों से मुझे देखती रही. उसके चेहरे पर निरंतर कई भाव आए और चले गए. उसकी क्रोध से सुर्ख हो गई आँखों में एक नमी सी तैर गई. ऐसा लगता था कि उसकी अग्नि कुंड सी धधक रही आँखें आज इस घर को जलाकर राख़ कर देंगी. ऐसा लगता था कि उसे बहुत बड़ा धक्का लगा है. अजीब से रंग आ रहे थे और जा रहे थे उसके चेहरे पर. अविश्वास का. दुख का. अपमान का, या शायद पश्चाताप का.
फिर अचानक उसने एक लंबी सांस ली और बिस्तर के नीचे पड़ी अपनी चप्पलें पहन लीं. बिना मुझ से आँख मिलाये सीधे ड्रेसिंग टेबल की तरफ गई और अपना पर्स उठा लिया.
“अगर तुम नहीं चाहतीं तो ……. ” मैंने झिझकते हुए कहा।
उसने एक बार फिर क्रोधित सिंघनी की तरह मुझे देखा और मुख्य द्वार की ओर बढ़ गई.
“कहाँ जा रही हो रूपल. तुम ने नाइटी पहनी है. चेंज भी ……..”
ज़ोर से दरवाजा बंद होने का स्वर सुनाई दिया और वो चली गई.
मेरा दिल किसी बुरी आशंका से ज़ोर ज़ोर से धड़कने लगा. बार बार उसे फ़ोन मिलाने का प्रयास करता रहा मगर लगातार स्विच ऑफ था. एक घंटे के बाद डरते डरते झुमरू सेठ को फ़ोन किया. उसने फ़ोन उठाते ही बेतहाशा गालियों की झड़ी लगा दी. लड़की न भेजने पर मुझे भुगत लेने की धमकी देने लगा.
मुंबई का कोना कोना छान डाला. पुलिस में रिपोर्ट करा दी. अखबारों मे विज्ञापन लगवाये. रेलाइट एरिये से लगाकर पूरी रात मुंबई के बदनाम फुटपाथों पर तलाश किया. धारावी के स्लम से लगाकर समुंदर के किनारे मछुआरों की बस्ती तक में ढूंडा. नगरी नगरी, द्वारे द्वारे, मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे … और तो और पुलिस की खोया पाया के रजिस्टर से लगाकर… मौरचारी में कफन उघाड़ उधाड़ कर लाशों के चेहरे …. ओह कितना दुखद था ये मगर… वो फिर कभी नहीं आई. जीवन गुजर गया पर…. वो फिर नहीं आई.
रवीन्द्र कान्त त्यागी