सारा घर शांत था… रात्रि का दूसरा पहर शुरु हो चुका था। सब सो रहे थे पर नीलिमा जी की आंखों से नींद कोसों दूर थी। अमूमन वह इस वक्त इस हवेलीनुमा घर में दो नौकरों के साथ ही रहती थी… पर आज उसके तीनों बच्चे आए हुए थे।पूरे घर में रौनक सी आ गई थी.. घर जैसे घर लग रहा था।
नीलिमा जी भी बच्चों को देखकर बहुत खुश थी।दो दिन पहले जब तीनों ने अपने आने की खबर दी तो वह हैरान रह गई थी क्योंकि तीनों कभी एक साथ नहीं आए थे।नीलिमा जी के दो बेटे थे नकुल और अकुल और एक बेटी थी साधना।दोनों बेटे अलग-अलग शहरों में नौकरी करते और साधना भी ब्याह के बाद भाई भाभियों के साथ इकट्ठे कभी नहीं आई।नीलिमा जी के पति का दो साल पहले निधन हो चुका था।
“इस बार एक साथ मां की याद कैसे आ गई” नीलिमा जी ने बेटी से फोन पर पूछा था।
“हां मां… कुछ ऐसा ही समझो” बेटी साधना बोली।
खैर दो दिन उनके मनपसंद खाने की तैयारियों में डूबी नीलिमा जी को समय का पता नहीं चला।आज सुबह बच्चों के आने से घर बोल उठा था पर जब शाम होते होते बच्चे बोले तो नीलिमा जी से कुछ बोलते नहीं बना।
“मां.. हमने फैसला किया है कि इस कोठी को बेच देंगे” नकुल बोला।
“हां मां इतनी बड़ी कोठी किस काम की?इसकी मेंटेनेंस के लिए फालतू पैसा खर्च करने की क्या ज़रूरत है” अकुल ने भी हां में हां मिलाई।
“वैसे भी मां मुझे अपने नए बिज़नेस के लिए कुछ पैसे चाहिए और अकुल ने भी अपना नया फ्लैट बुक करवा लिया है तो उसकी भी मदद हो जाएगी और साधना को भी उसका पूरा हिस्सा देंगे” नकुल ने अपना सुझाव दिया था।
उसकी बात सुनते ही साधना के चेहरे की चमक नीलिमा जी से छुपी ना रही।
“मां वैसे भी तुम्हें इतने बड़े घर की क्या ज़रूरत है… तुम्हें एक छोटा सा फ्लैट खरीद देंगे.. इतनी बड़ी कोठी के अच्छे खासे दाम मिल रहे हैं।मैंने तो एक दो खरीदार भी देख रखे हैं जो इस बड़ी कोठी को होटल बनाना चाहते हैं” नकुल ने अपनी मंशा ज़ाहिर कर दी थी।
तो यह मकसद था उनके बच्चों का यहां आने का। बहुएं भी बेटों का समर्थन करती नज़र आई। ज़ाहिर था इतना पैसा मिलना किसे अच्छा नहीं लगता।
“ठीक है ,बाकी बातें सुबह करेंगे वैसे भी सफर से बहुत थक गए हैं”, अकुल बोला।
सब सोने चले गए और नीलिमा जी… उनका उत्तर जानने की तो किसी ने कोशिश भी नहीं की।रात का इतना समय बीतने पर भी उनकी आंखों में आज नींद नहीं थी।यादों की खिड़की खुली और उनका अतीत उसमें से झांकने लगा।
नीलिमा जी के पिता का अच्छा खासा व्यवसाय था। एक छोटा भाई, मां और दादी यही परिवार था उनका।दादाजी बहुत पहले स्वर्ग सिधार गए थे।उनके पिता बहुत रौबिले व्यक्तित्व के इंसान थे।हर समय खुद के निर्णय को ही सर्वोपरि समझना उनका स्वभाव था।मां के लिए उनका हर कहना मानना लाज़मी हो जैसे।
नीलिमा जी भी अब कुछ कुछ समझने लगी थी।अक्सर मां से पूछ बैठती “तुम कुछ कहती क्यों नहीं? नानी के घर जाने से मना किया तो तुम क्यों नहीं बोली… चुप क्यों रही”?
“मना थोड़ी किया है… अगली बार जाने को बोला तो है और औरत की चुप्पी में ही घर की शांति है समझी” मां उसे समझाते हुए बोली।
फिर वह बड़ी हुई.. कॉलेज की पढ़ाई खत्म कर वह नौकरी करना चाहती थी।
“एक बहुत अच्छा रिश्ता देखा है तुम्हारे लिए.. अच्छे खासे खाते पीते लोग हैं. शहर के रईसों में नाम है उनका खुश रहोगी” पिता ने एक दिन फैसला सुना दिया था।
इससे पहले वह कुछ कहती मां ने चुप रहने का इशारा कर दिया। गहनों से लदी दुल्हन बनी नीलिमा को मां ने घुट्टी पिलाई थी “बिटिया वहां जाकर ज़्यादा तर्क वितर्क मत करना चुप्पी लगा कर रखना।”
पता नहीं मां की सीख थी या कुछ और उन्होंने भी कभी पति के आगे कुछ नहीं कहा। हां पर उनके पति उनके पिता से थोड़े अलग ज़रूर थे।सारा जीवन पहले पिता फिर पति के आगे चुप रहने से शायद उनके बच्चों ने भी आज उसकी चुप्पी को उसकी हामी मान लिया था।
सच था कोठी बेचकर अच्छी खासी कीमत मिलती उन्हें।पूरे शहर में आज भी बड़ी कोठी के नाम से जाना जाता है उनका घर।बच्चों ने अपने अपने फायदे गिना दिए थे पर किसी ने एक बार भी उन्हें अपने साथ चलने के लिए नहीं कहा था बल्कि कंप्लीमेंट्री गिफ्ट में उन्हें एक छोटा सा फ्लैट देने की योजना भी वे पहले ही बना चुके थे।बिना उनसे पूछे कि वह क्या चाहती हैं।बरसों से यहीं रहते हुए क्या अपना घर बेचना चाहती है.. क्योंकि घर तो उन्हीं के नाम था।बच्चों के लिए वह कोठी थी जिसे बेचकर वह पैसे बना सकते थे पर उनके… उनके लिए तो वह उनका घर था और स्वार्थ में अंधे बच्चों ने उनका घर बेचने से पहले उनकी राय लेनी ज़रूरी नहीं समझी।
आज उन्हें अपनी चुप्पी तोड़नी होगी और अगर अकेले रहने का दंश झेलना ही है तो क्यों ना वह अपने घर में ही अकेले रहे। सारी रात सोचने में बिताकर नीलिमा जी एक फैसला ले चुकी थी।
सूर्य की किरणें उनके कमरे की खिड़की से दाखिल हो रही थी …उजाले ने अंधेरे को दूर भगा दिया था।
“मैं यह कोठी नहीं बेचूंगी। मुझे तो अकेले ही रहना है तो क्यों एक छोटे से दम घोंटू फ्लैट में बाकी का जीवन बिताऊं जब मेरे पास इतनी बड़ी हवादार कोठी है।मैंने फैसला किया है कि इस कोठी में मैं ज़रूरतमंद लड़कियों और औरतों के लिए सिलाई केंद्र और प्रशिक्षण संस्थान खोलूंगी ताकि वह यहां पर कुछ सीख कर जीवन में आत्मनिर्भर बन सकें।तुम्हारे उठने से पहले ही मैंने अपनी सहेली से बात कर ली है जो एक समाजसेविका है और वह इस काम में मुझे पूरा सहयोग देंगी” नाश्ते की मेज़ पर नीलिमा जी ने अपना फैसला सुना दिया।
उनकी बात सुनकर तीनों बच्चों के चेहरे लटक गए।आज जब उन्होंने अपनी चुप्पी तोड़ी तो बच्चों के अरमानों पर तो पानी फिर गया था पर उनके खुद के मन को असीम सुकून महसूस हो रहा था।
नीलिमा जी के इस फैसले से उनकी वो बड़ी कोठी भी मुस्कुरा रही थी क्योंकि उनके स्वार्थी बच्चों के लिए जो महज़ एक बड़ी कोठी थी आज वह अनेकों जरूरतमंद लड़कियों के लिए आश्रय बनने जा रही थी।
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गीतू महाजन।