Moral stories in hindi :
एनीवे… आप चाहें तो मैं अपने एक दोस्त का नंबर दे सकता हूँ जो एक मनोवैज्ञानिक है और आपकी उलझनों को लाॅजिकली साॅल्व करने में आपकी मदद करेगा। “
” आपकी बातें कुछ हद तक सही हो सकती हैं डॉक्टर! बट, वो कार्ड… ये पता… यह कैसे संभव है? “
सुरभि का मन संशय की समुद्री लहरों के बीच बुरी तरह डोल रहा था। ऐसे में उसे पतवार की सख्त जरूरत थी जो उसे डूबने से बचा सके। उसने उस मनोवैज्ञानिक का नंबर माँग ही लिया।
अपने दोस्त का नंबर देते हुए डाॅक्टर ने सिर्फ इतना ही कहा,
” कभी-कभी ईश्वर की लीला के बारे में कयास लगाना मुमकिन नहीं होता। ईश्वर और उसके चमत्कार को तो हम डॉक्टर्स भी मानते हैं।”
वैसे सुरभि बहुत हद तक सँभल चुकी थी, परंतु डॉक्टर ने एक दिन और आब्जरवेशन के लिए हास्पिटल में रहने की सलाह दी। शेखर की माँ दोनों समय घर से खाना बना कर लाती रही।
” आंटीजी! आप इतनी तकलीफ क्यों कर रही हैं? हास्पिटल में सभी चीजों का बहुत बढ़िया इंतजाम है। आपने मुझे यहाँ के सबसे अच्छे हास्पिटल में एडमिट कर मेरी जान बचायी जिसका उपकार मैं पूरी उम्र नहीं चुका पाऊँगी।”
सुरभि नहीं चाहती थी कि इस उम्र में उन्हें उसकी वजह से कोई तकलीफ सहनी पड़े। अपनों की मौत तो वैसे ही इंसान को तोड़ कर रख देती है। फिर इन लोगों ने तो अपना जवान बेटा खोया है। अपने मम्मी-पापा को खोकर वह इस वेदना से
गुजर चुकी थी।
” धत पगली! इसमें तकलीफ कैसी? क्या शेखर को मैं हास्पिटल के भरोसे छोड़ देती…?”
“आज के जमाने में दूसरों की खातिर कौन इतना करता है? आंटी जी! मैं तो आपकी कुछ लगती भी नहीं, फिर भी आपने मेरी खातिर इतना कुछ…”
सुरभि की बात पूरी होने से पहले ही आंटी ने प्यार की मीठी झिड़की दी,
” चल अब चुपचाप खाना खा ले। ठंडा हो जाएगा। “
खाना खाते-खाते सुरभि रो पड़ी। मम्मी के जाने के बाद पहली बार किसी ने इतना स्नेह दिया था।
अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद सुरभि के मना करने पर भी शेखर की माँ उसे अपने घर ले गयीं और प्यार से सर पर हाथ फेरते हुए कहा,
” जब तक तुम पूरी तरह स्वस्थ नहीं हो जाती हमारे साथ ही रहोगी। इसी बहाने हम भी कुछ दिन अपनी इस नीरस जिंदगी को ठीक से जी पाएँगे… वर्ना शेखर के जाने के बाद हम जिंदा लाश ही तो थे…” कहते हुए फफक पडीं।
शेखर के पिताजी जो अब तक तटस्थ भाव से अपनी पत्नी का साथ दे रहे थे, उनके आँसू पोछते हुए दार्शनिक अंदाज में बोल पड़े,
” कितनी मुश्किल से हमने अपने मन को समझाया था। अब फिर किसी पर ममता उड़ेल कर मोह के बंधन में फँसना चाहती हो?
कल को यह बच्ची चली जाएगी तो खुद को सँभालना कितना दुःखदायी होगा, इसका अनुमान है तुम्हे?”
सुरभि तो स्वयं ममता की प्यासी थी। उसने शेखर को दिल की गहराइयों से चाहा था। उसने मन-ही-मन एक फैसला किया और आंटी-अंकल से बोल पड़ी,
” अंकल जी मैं परसों वापसी की टिकट ले रही हूँ और मैं अकेले नहीं जा रही, बल्कि आप दोनों भी मेरे साथ चलेंगे। “
” यह क्या कह रही हो बेटी? हम यहाँ ठीक हैं। अब जिंदगी ही कितनी बची है हमारी! कल को तुम्हारी शादी होगी। तुम्हारा पति और तुम्हारे सास-ससुर होंगे। कहाँ-कहाँ इस जबर्दस्ती के बोझ को उठाती फिरोगी? ईश्वर बहुत दयालु है। वह कुछ-न-कुछ इंतजाम कर ही देगा। जैसे अब तक जीते आए हैं, आगे की भी कट ही जाएगी। ” शेखर के पिता की बात सुनकर सुरभि ने उनसे अपने दिल की बात कह डाली जो शेखर से कभी न कह पायी थी…
” ईश्वर ने ही तो यह इंतजाम किया है। मुझे विवाह करना ही नहीं है। मैंने शेखर को ही अपना पति मान लिया था। हमारा प्रेम रूहानी है। सशरीर मेरे साथ वह भले ही न हो परंतु मेरे दिल में अब भी है और मरते दम तक रहेगा। “
शेखर की मम्मी उसके फैसले से सहमत न थी। बोल पडी,
“अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है! अभी तो तुमने जीवन का कोई सुख भी नहीं देखा। किसी बच्चे की किलकारी से वंचित अपने मातृत्व को सूखने मत दो। जी लो एक खुशहाल जिंदगी! हमारा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ रहेगा।”
“माँजी! आप दोनों का आशीर्वाद अब मैं रोज-रोज लेना चाहती हूँ”… आंटी की जगह उसके मुँह से अनायास ही माँ निकल पड़ा। अपनी बात जारी रखते हुए आगे कहती गयी…
” जहाँ तक मातृत्व का सवाल है, हमारे देश में आए दिन अनाथालय बढ़ते जा रहे हैं जहाँ कितने नवजात मासूम ममता की छाँव को तरस रहे हैं। किसी एक के जीवन को भी सँवार दें तो हमारी बगिया तो महकेगी ही साथ ही शेखर जहाँ कहीं भी होंगे, उनकी आत्मा भी तृप्त हो उठेगी। मुझे भी तो मम्मी-पापा का प्यार चाहिए।
देखिए! अब मना मत कीजिएगा। “
वात्सल्य की भागीरथी का अवतरण शायद एक बार फिर से हुआ था जिसने अपनी धार से कितने सारे सपनों को जीवित कर दिया। एक तरफ सुरभि को किसी के बुढ़ापे की लाठी बनाया, वहीं दूसरी तरफ अपने मम्मी-पापा को खो चुकी सुरभि को वात्सल्य की शीतल छाँव मिल गयी।
गीता चौबे “गूँज”
बेंगलुरु