वसूली…… विनोद सिन्हा “सुदामा”

मैं जब भी उन्हें अपनी माँ से बातें करती देखती तो जाने क्यूँ मुझे बहुत गुस्सा आता…

दूसरी मुझे इस तरह रोज रोज़ उनका मेरे घर आना जाना भी काफी नापसंद था…

कभी कभी तो देर रात तक सिर झुकाए घंटों बैठे रहते…

मैंने एकाध बार दबी जुबान से इसका विरोध करते हुए अपनी माँ से कहा भी..

माँ मुझे आनंद अंकल एवं उनका इस तरह रोज रोज घर आना और घंटो घंटो यहाँ बैठे रहना अच्छा नहीं लगता..

लेकिन मेरी माँ मुझे चुप करा देती…

तू अभी बच्ची है कुछ नहीं समझेगी…

लेकिन.. वो तुम्हें..गलतत््््????

कहा न चुपकर…जा अपने कमरे में..

शायद माँ को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था और न ही उनके इस तरह रोज रोज घर आने जाने से कोई तकलीफ थी उसे…

लेकिन मैं…मन ही मन कुढती रहती…

पहले पहल तो मुझे लगता था कि आनंद अंकल पापा के अच्छे मित्र हैं….और उनकी खराब तबीयत को लेकर पापा के पास रहते हैं….लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं था…दिनों दिन उनकी हरकतें मेरे संदेह को और मजबूत करती….जा रही थी कि वो अच्छे इंसान नहीं हैं..

अक्सर ही जब भी कॉलेज से आती..आनंद अंकल को अपने घर बैठा पाती…

वो जब भी आतें…तो दोनों देर घंटों घंटो बाते करते रहतें…

मैं घृणा से मुँह फेर कर पापा के कमरे में चली जाती..

जहाँ वे असहाय छत की दीवार तकते आँसू बहा रहे होते थे..

आँसू क्या खारा पानी कह लें..जो टपकता रहता था बदस्तूर बूंदें बनकर…उनके आँसू तो कब के सूख गए थे उनकी दर्द से पथराई आँखों में..

न कुछ बोल पाते थे…न कुछ सुन पातें थे…बस एक टक शांतभाव से छत से लगे पुराने पंखें को  देखते रहते..

कई महीनों से एक ही कमरे में बिस्तर पर पड़े रहने से मानों शून्य के अलावा कुछ बचा ही नहीं था उनके जीवन में…

वो जिंदा तो थे पर लाश बनकर…

और एक मेरी माँ थी…और  अंकल…मेरे पापा के अभिन्न मित्र

जिन्हें अपनी रासलीलाओं से फुर्सत ही नहीं थी..

अब तो वो हँसी हँसी में माँ की नाजुक अंगो से खेलने भी लगे थें..

माँ कहती ये क्या करते हैं..

कभी जो मेरी नज़र पड़ भी गई तो बस बेशर्मी से मुस्कुरा देते…

परंतु नजरों में जरा भी शर्म नहीं होती थी उनकी..

हाँ मेरी माँ जरूर कुछ क्षण को असहज हो जाती…

और सच कहूँ तो माँ से कहीं ज्यादा मैं असहज हो जाती..

शर्म से मेरा चेहरा नीचे हो जाता..




लेकिन इन सब के बीच माँ की एक बात मुझे हमेशा खटकती थी…अंकल जब भी घर पर होते तो जाने क्यूँ माँ मुझे इशारे से अपने पास आने को मना कर देती थी…या फिर उन्हें आता देख मुझे खुद से दूर कर देती…

जा अपने कमरे में….जबतक हैं तबतक बाहर मत आना..

पर…..

पर वर कुछ नहीं जितना कहती हूँ उतना कर…समझी..

मैं खीझ जाती….मन का गुस्सा किताब कॉपियों पर निकालने लगती….

दूसरी अंकल जब तक रहते माँ खुश दिखती लेकिन बाद जाने क्यूँ उसका चेहरा दर्द से भरा दिखता…बहुत उदास रहती, यहाँ तक कितनी दफा फफककर  रोने लगती थीं.मैं कुछ समझ ही नहीं पाती…कि आखिर बात क्या है…

समय के साथ मैने भी समझौता कर लिया था…..क्योंकि न तो अब उन दोनों को साथ देखर मन में घृणा होती थी और न ही मन गुस्सा होता था….

शायद इसलिए कि जब माँ को ही ऊँच नीच की परवाह नहीं थी तो आखिर मैं क्या करती…..

इधर मैं पिछले एक महीने से काफी परेशान थी.मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूँ और क्या न करूँ. कॉलेज बंद होने वाला था…और अभी तक फीस भी नहीं भर पाई थी…छुट्टियों बाद फर्स्ट इयर की परीक्षा भी शुरू होनी थी..मेरी सारी उम्मीदें….मेरी साल भर की सारी मेहनत धूमिल होती प्रतीत हो रही थी…

कहते हैं उम्मीद जब दर्द बनकर दिल में घर कर जाती है तो…अक्सर आँखों के रास्ते अश्क बनकर बहने लगती है…मैं भी कभी कभी मेरी उम्मीदों को दम तोड़ते देख रो देती….

आखिर कॉलेज फीस का इंतजाम करूँ तो कहाँ से….इसी उधेर बुन में मुँह लटकाए घर आई और माँ को बिना देखे अपने कमरे में चली गई…

लेकिन माँ ने मुझे आते देख लिया था शायद..

थोड़ी देर बाद…वो मेरे कमरे में आई…

पूछा….

क्या हुआ कुछ परेशानी है…

नहीं रहने दो….तुम खुद की परेशानी देखो..

मैंने रूखे मन से जवाब दिया…

बता तो सही…क्या बात है.

मैंने माँ से फीस को लेकर बात की..

कॉलेज बंद होने को है…फीस जमा नहीं की हूँ अबतक..परीक्षा भी शुरू होने वाली है…

माँ ने कहा….

अच्छा देख तू परेशान मत हो…




मैं देखती हूँ…दो तीन दिन का समय दे…

लेकिन माँ….कहाँ से करेगी तू..इंतजाम इतने पैसों का…???

एक तो वैसे ही पापा के ऑपरेशन में लंबे खर्च के कारण घर की माली हालत खराब चल रही है..उपर से पापा की नौकरी भी नहीं है…बीमार पड़े हैं..उनकी दवा दारू का खर्च अलग…अपने गहने तक तो सब बेच डाले तुमने…

तुझसे कहा न…

कहीं न कहीं से तो इंतजाम कर ही लूँगी..

माँ ने पापा के कमरे की ओर देखते हुए धीरे से कहा…

तब मुझे आभास हुआ कि शायद आनंद अंकल आज भी घर पे ही हैं…क्योंकि पापा तो कुछ सुनने से रहें..फिर माँ किससे छुपा धीमें बोल रही थी…

मैंने माँ की ओर देखा…

अंक्््ल..??

तू कपड़े बदल आराम कर..मैं अभी आती हूँ…

और मुझसे नजरे चुराकर मेरे कमरे से बाहर चली गई..

मैं भी बिना कुछ कहे…अपने कमरे से निकल…साईकिल उठा बाहर चली गई….माँ ने मुझे बाहर जाती देख पीछे से आवाज भी दिया ..कहाँ जा रही है…पर मैने अनसुनी कर दी…

कुछ क्षण पहले माँ के लिए मन में जो दर्द हुआ था…तुरंत नफरत में बदल गया था…

सोच रही थी क्या माँ इतनी गिर सकती है कि पति बिस्तर पर लेटा है और वह उसके सामने उसके मित्र के साथ….छ्छ्््छी…सोच कर ही मन घृणा से भर उठा मेरा..

बाद देर जब घर लौटी तो देखा अंकल बाहर बारामदे पर ही बैठे हैं..

मैं नज़रे झुकाकर अंदर घर में जाने लगी

लेकिन उस रोज उस दरिंदे की नज़र मुझपर पड़ ही गई….

मुझे देख…उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया

बेटा जरा इधर आना….

मैंने अनसुना कर आगे बढना चाहा….लेकिन

उन्होंने अपनी दोनों बाँहें फैला मेरे सामने आ मेरा रास्ता रोक लिया….

नशे में धुत्त थे शायद…आँखे किसी राक्षस की तरह लाल हो रखी थी..उनकी

शराब की गंदी गंध नाकों तक आ रही थी…

मैंने कभी सोचा नहीं था वो ऐसा करेंगे…

मैंनें विरोध किया..हटिए मुझे जाने दीजिए….

कहकर अंदर जाने लगी लेकिन उन्होंने मेरी बाँह पकड़ ली…

और मेरी कलाई पर अपनी मजबूत पंजों का दवाब बढ़ाते हुए मुझसे कहा..

जवान हो गई हो…कपड़े तो सही पहनों…

देखो खुला बदन दिख रहा तुम्हारा…

अंकल ने मेरी समीज की फटी बाँह की ओर इशारा कर मेरी बाँह सहलाते हुए कहा..जो अभी अंदर आते हुए गेट से अड़कर खरोंच लगने के कारण जरा सी फट गई थी और जिससे मेरी बाँह दिख रही थी…मेरी नज़रे शर्म से नीचे जमीन में गड़ी जा रही थी…

उनका कहा एक एक शब्द …हथौड़े की तरह मेरे कानों में गूंज रहा था…ऐसा लग रहा था मानों कोई मुझे गर्म सलाखें दाग रहा हो…

और हाँ चिंता मत करों…..मैंने सब सुन लिया है

तुम्हारी कॉलेज फीस म़ै कल भरवा दूँगा….

अभी ये कुछ पैसे रखो नई ड्रेस ले लेना…

मैंने गुस्से में कहा…इसकी कोई आवश्यकता नहीं…




आप अपने काम से मतलब रखिए…

मैंने जबरदस्ती हाँथ छुड़ाए और उनके दिए पैसे उनके हाँथ मे रख दिए और वहाँ से जाने लगी..लेकिन

उस दिन उन्होंने अपनी मर्यादा की सारी हदे पार कर दी..

उन्होनें फिर मेरी बाँह पकड़ ली…

गुस्सा तो पहले ही रहती थी उनपर लेकिन  आज उनकी हरकत मेरे बर्दास्त से बाहर थी..

मैंने उनके गाल पर एक जोर तमाचा मारा …

वो इस अप्रत्याशितत हमले से लड़खड़ा गए और मैं तेज़ अपने कमरे की ओर भागी..

लेकिन इससे पहले कि मैं दरवाजा बंद करती पीछे से उन्होंने मेरा दाहिना हाँथ दबोच लिया…

मैं माँ माँ चिल्लाते …उनसे हाँथ छुड़ा रही थी लेकिन उनकी पकड़ और मजबूत होती जा रही थी..

मैंने रूआँसी हो कहा…अंकल मैं आपकी बेटी जैसी हूँ….

तभी मेरी माँ आ गई….

ये क्या कर रहें आप…….शर्म आनी चाहिए आपको….

शर्म …..???

खुद का दिया वसूल करने में शर्म कैसी…???

मैं बेचैनी भाव से माँ को देख रही थी…

आखिर क्या दिया है इन्होंने मुझे जो वसूली की बात कर रहें..

माँ जोर चिल्लाई….खबरदार…अगर ऐसा सोचा भी तो….

नहीं तो क्या कर लेगी……

कहते हुए वो मुझे अपनी ओर खींचने लगें लेकिन मैं उस समय मानो खुद में ही सिमटती जा रही थी…पलंग का मुठ़्ठा पकड़ खुद को उनके विपरित खींच रही थी..परंतु अंकल के हाँथों की जकड़न धीरे धीरे बढती जा रही थी जिसके कारण हाँथों में दर्द भी हो रहा था..

आनंद जी कह रहीं हूँ…छोड़िए उसे..नहीं तो मैं कुछ कर बैठूँगी..

बहुत सहा आपको…..अब नहीं…

नहीं आज नहीं छोडूँगा इसे…बहुत ताव खाती है…

और अगर तुम चाहती हो कि इसे छोड़ दूँ….तो अपने पति के इलाज में मेरा सारा खर्च किया पैसा अभी लौटा दो…..

और क्या लौटाऊँ…सबकुछ तो लूट लिया आपने….

अंकल के होठों पर कुटिल मुस्कान थी…

अभी कहाँ अभी तो बहुत बाकी है और फिर ब्याज के साथ साथ सूद भी तो बढती है…तुमसे न सही तुम्हारी बेटी तो है…वसूल तो करनी ही है..

नहीं आप ऐसा हर्गिज नहीं कर सकते….

मैं तो वसूल कर के ही रहूँगा…चाहे जो हो…कहकर मेरे बालों को पकड़ मुझे अपनी ओर खींचने लगे..

तभी जाने माँ को क्या सूझा कि माँ ने टेबल पर रखा चीनी मिट्टी का गुलदान उनके माथे पर दे मारा…

जिससे उनकी मेरे हाँथों पे पकड़ हल्की हुई और मैं हाँथ छुड़ा माँ के पीछे भागी..

वो माँ की तरफ झपटे लेकिन माँ ने वही गुलदान फिर उनके माथे पर दे मारा…

वो दर्द से बिलबिला उठें..उनके माथें से काफी खून बहने लगा..

और माँ हाँथों में खून से सना गुलदान लिए हाँफ रही थी…

माँ उस समय मुझे चंडी का रूप दिख रही थी……

मैं माँ के पीछे डरी सहमी काँप रही थी..

माँ ने मुझे सँभालते हुए कहा….

तू डर मत कुछ नहीं होयेगा…म््ममैं सब संभाल लूँगी..

माँ का यह रूप देख अंकल भी डर गए थे शायद..उन्होंने कभी सोचा भी नहीं होगा कि माँ इस तरह उनपर हमला कर सकती है…

इससे पहले कि माँ कुछ और करती…

देख लूँगा…धमकाते हुए

दर्द से बिलबिलाते वो अपने फटे सर को दोनों हाँथों से ढके बाहर भागे…

माँ गुलदान लिए ही उनके पीछे भागी..

फिर एका एक रूक गई…

अब इसे नियति का खेल कहें या उनके कुकर्मों का फल…

मेरे घर से भागने के दौरान आगे चौराहे पर चलती ट्रक के नीचे आ गए..और ट्रक उन्हें कुचल कर आगे बढ़ गई…

और उन्होंने छटपटाते हुए वहीं दम तोड़ दिया..

उस समय ट्रक ड्राईवर अगर डर से ट्रक रोक देता तो शायद अपनी जान से ही जाता..क्योंकि देखते देखते वहाँ काफी भीड़ इकठ्ठी हो गई थी..

उनकी इतनी बुरी मौत शायद हमने भी नहीं सोची थी….

थोड़ी ही देर में घटनास्थल पर पुलिस भी पहुँच गई..

किसी ने उन्हें हमारे घर से भागते नहीं देखा था शायद…

इसलिए पुलिसकर्मियों ने कुछ पूछा तो वहाँ मौजूद सभी ने यही जवाब दिया…

उधर से ट्रक आ रही थी जाने किधर से एकाएक ये साहब सामने आ गए..पहले  ट्रक से इनका माथा टकराया फिर ये लड़खड़ाकर ट्रक के नीचे आ गए..और ट्रक इन्हें कुचल कर निकल गई.

शायद नशे में थे…

एक पुलिसकर्मी..आगे बढ़ उनका मुँह सूंघने लगा..फिर बुरी तरह  नाक मुँह भींचते हुए…अपने से ब़ड़े ओहदे वाले पुलिसकर्मी की ओर मुखातिब हो कहा..

जी साहिब जी… शराब की भारी बू आ रही

लगता तो नशे में टुन्न था…..

हममममम…..

और किसी ने कुछ देखा….

सभी ने बस यही जवाब  दिया…

नहीं साहब…

किसी ने ट्रक का नंबर देखा…या नोट किया….

नहीं साहब..

मैं और माँ गेट से ही सबकुछ देख और सुन रही थी

लेकिन मैं डरी थी…

गुलदान अब भी माँ के हाँथों में ही था…

जिसपे अभी तक किसी की नजर नहीं पड़ी थी…

मैने जाने क्या सोच झट गुलदान माँ की हाँथों से छीन सबसे नजरें बचा दौड़कर घर की दीवार के पीछे बड़े नाले में फेंक दिया…

माँ थोड़ी हड़बड़ाई…मुझे देखने लगी…वो अब भी काफी बुरी तरह हाँफ रही थी…

मैने माँ से धीमी आवाज में कहा… माँ वो मर गए…पुलिस उनका मृत शर ऐंबुलेंस में ले जा रही

माँ ने बस इतना कहा

ले जाने दे…..

अच्छा हुआ…पापी इंसान था…

मैं समझी नहीं…

तुम्हें कुछ समझने की जरूरत नहीं…

चल अंदर चल….और घसीटते हुए मुझे घर के अंदर ले आई

बाद पुलिस ने अंकल की केश में क्या किया क्या हुआ नहीं पता…

लेकिन मैं और माँ कुछ दिन कुछ महीनों तक काफी डरी डरी सी रहीं….

समय अपनी गति से बीतने लगा….

माँ ने आस पड़ोस के लोगों के कपड़े सिल सिल कर मुझे आगे पढ़ाया..

मैंने भी किसी तरह अपनी पढाई पूरी कर शिक्षिका की नौकरी धर ली…इस बीच पापा भी चल बसें…और उसके …दो साल बाद माँ का भी हृदयाघात से मृत्यु हो गई….क्यूँकि मेरी चिंता में माँ दिन व दिन गलती ज रही थी…काफी कमजोर हो गई थी…

मैं बिल्कुल अकेली रह गई…और अकेले ही जीवन यापन करने लगी….

आज माँ की पहली बरसी थी…उसकी फोटो पर माला फूल चढाते ही…आँखों के कोरों से लगे आँसू बरबस बाहर छलक पड़े थे…

मैं सोच रही थी ….

गर उस रोज़ माँ न होती तो मेरा क्या होता….क्या मैं उस दरिंदे से अकेली पार पा पाती…..???

उस रोज़….मेरी इज्ज़त बचाने के लिए माँ ने उस आदमी का एक तरह से कत्ल कर डाला था जिससे उसका गलत संबंध था…हालांकि अंकल से माँ का संबंध मजबूरी के सिवा कुछ नहीं था और सच कहूँ तो वह संबंध था भी नहीं.. वह तो बस दोहन मात्र था..

उनके किए एहसान की वसूली..थी

वैसे उनका सच जानने से पहले मैं उन्हें एक आदर्श व्यक्ति मानती थी..लेकिन बाद उनकी हरकतों एवं माँ ने जब उनकी सारी सच्चाई बतलाई तो मन दुख से भर गया…कैसे उन्होनें पापा की बीमारी व उनके ऑपरेशन में हुए खर्च के बदले माँ के साथ यौन दुराचार किया, उन्होंने जो कुछ किया, वह अनैतिक ही नहीं,अनुचित भी था.

सच जान मन में विचारों का एक अजीब सा बवंडर उठ खड़ा हुआ था. जिस व्यक्ति के प्रति कल तक मन में मान सम्मान था आज घृणा से भर गया था…उन्होंने अपने किए मदद का गलत उपयोग किया था…उन्होंने जो कुछ किया, वह अनैतिक ही नहीं, अनुचित भी था…..एक असहाय औरत की मजबूरी का फायदा उठाया था उन्होंने.. उसका दोहन किया था…अपने किए एहसान के बदले…माँ का यौन उत्पीड़न किया,मेरी इज्ज़त से खेलना चाहा..

मेरी माँ जिसने मेरी खातिर अपने जीवन की आहुति दे दी थी..मेरी माँ जिसके प्रति मेरे मन में घृणा के अलावा कुछ था ही नहीं…..जाने क्यूँ मुझे मेरी माँ को देखते ही मन एक वितृष्णा से भर उठता था…आज उसके लिए श्रद्धा के आँसू बह रहे थे….और मेरे स्वयं के लिए घृणा….

कितनी गलत थी मैं….बिना सच जाने माँ को ले कितना गलत सोचती रही…उसके दोसरे चरित्र को लेकर हमेशा संशय में रही…माँ के बारे में गलत सोचती रही…

सच कहते हैं कि माँ…. माँ होती है…बच्चों पे बन आए तो वो कुछ भी कर गुजरने से नहीं हिचकती….यहाँ तक किसी का कत्ल भी कर सकती है….यूँ ही माँ को ईश्वरीय अवतार नहीं कहा जाता..यूँ ही नहीं कहा जाता कि माँ से बढकर कोई नहीं..होता न ही कोई माँ के बराबर होता…है

माँ ……..माँ होती है सिर्फ़ माँ…..

विनोद सिन्हा “सुदामा”

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