वक्त – बीना शुक्ला

” वक्त अच्छा हो तो सब अपने नहीं तो सब पराये।”  यह बात विशालाक्षी से अधिक इस समय कौन जान सकता है?  वक्त बीतता चला जाता है, पता ही नहीं चलता। आज दस साल बाद अपने शहर लौटकर आई है विशालाक्षी। अपनी आश्रम सखी गुंजन बहुत आग्रह करके जबरदस्ती अपनी बहन ने बेटे की शादी में लिवा लाई था उसे।

मन न होते हुये भी एक बार अपने शहर आने का लोभ उसे खींच लाया। आश्रम मे विशालाक्षी के नाम ” वैशाली ” के सिवा उसके बारे में इतने वर्षों बाद भी कोई कुछ नहीं जानता था, यही उसकी पहचान है।

गुंजन और उसकी बहन से अनुमति लेकर आज विशालाक्षी उसी मन्दिर में बैठी थी, जहॉ से उसका जीवन बदला था। इतने वक्त बाद विशालाक्षी को अब यहॉ कोई नहीं पहचानता। उसने मंदिर के युवा पुजारी से पूॅछा – ” बेटा, आगे की गली में विवेक जी का मकान था, क्या उनके सम्बन्ध में कुछ बता सकते हो?”

” मुझे नहीं पता दादी, पहले इस मंदिर में मेरे पिताजी जनार्दन शर्मा बैठते थे, चार साल पहले उनकी मृत्यु के बाद से ही मैं यहॉ आया हूॅ? आपको क्या उनसे कुछ काम है?”

विशालाक्षी असलियत नहीं बताना चाहती थी इसलिये कह दिया – ” काम तो कुछ नहीं हैं लेकिन पुराने परिचित थे। इसलिये सोंच रही थी कि बहुत दिन बाद इस शहर में आई हूॅ तो मिल लूॅ।”

पुजारी सोंच में पढ गया – ” आप उनके बेटे या नाती पोतों के नाम बताइये तो शायद मैं कुछ बता सकूॅ।”

” उनके बेटे का नाम प्रांजल और पोते का आख्यान है।”

” वो लोग तो हम इस घर में नहीं रहते दादी। कहीं फ्लैट ले लिया लेकिन वो लोग बहुत खराब थे।  पिताजी बताते थे कि विवेक जी इसी मन्दिर पर बैठकर रोया करते थे। सुना है कि इन्हीं लोगों के व्यवहार से दुखी होकर प्रांजल जी की मॉ घर त्याग कर कहीं चली गईं थीं। वो बहुत अच्छी महिला थीं। पहले जब बेटे बहू मॉ को परेशान करते थे तो उनके पापा बेटे बहू और पोते का पक्ष लेकर उनको ही भला बुरा कहते थे लेकिन पत्नी  के जाने के बाद जब उनकी दुर्दशा होने लगी तब समझ में आया।”

” तुम्हें यह सब बातें कहॉ से पता चलीं?” विशालाक्षी ने पूॅछा।

” मेरे पिताजी कभी कभी मुझे यहॉ ले आते थे, तब उन्हें भगवान के सामने रोते देखकर मैंने ही पूॅछा था। सुना है कि बीमारी में कोई उनके कमरे में नहीं जाता था। नौकर को केवल दो बार खाना और एक बार चाय लेकर ही उनके कमरे में जाने की इजाजत थी। रात के समय कब मृत्यु हो गई थीं, किसी को पता ही नहीं चला था। सुबह जब नौकर चाय लेकर गया तब पता चला।”



विशालाक्षी का मन बहुत खिन्न हो गया, वह ठंडी सॉस लेकर उठ गई – ” वक्त के खेल बड़े निराले हैं, जीवन में कब क्या रंग दिखा दें , व्यक्ति जान नहीं पाता।”

” आपको क्या उनसे मिलना है, तो मैं पता करूॅ या यहीं रुक जाइये तो उस गली से शाम की आरती के समय बहुत लोग आते हैं, शायद कुछ बता सकें।”

” नहीं, अब चलूॅगी, मिलना तो विवेक जी और उनकी पत्नी से ही था। घर के सदस्य तो शायद मुझे पहचानते ही ना हों।”

चली तो आई पर दुबारा गुंजन की बहन के घर जाने का मन नहीं हो रहा था, रास्ते से ही गुंजन को फोन कर दिया – ” गुंजन मैं आश्रम वापस जा रही हूॅ, तुम मेरा सामान लेती आना।”.

” कोई बात हुई है क्या? ऐसे क्यों लौट गईः?”

” तुमसे कहती तो तुम आने न देती लेकिन मेरा बिल्कुल मन नहीं लग रहा है। वहॉ रहकर मैं अपने साथ साथ तुम्हारा भी मूड खराब करती। बुरा मत मानना।”

” अच्छा ठीक है।” गुंजन ने फोन रख दिया।

बस चल रही थी, उतनी ही तेजी से दौड़ रहे थे विशालाक्षी के ख्याल। विवेक के साथ पूरा समर्पित जीवन बिताने के बाद भी विवेक ने उसे प्यार और सम्मान देने के स्थान पर हमेशा नींचा ही दिखाया। यहॉ तक जब भी वह प्रांजल को पढने या गलत काम से रोकने के लिये कुछ कहती तो विवेक उसे ही डॉटकर चुप करा देते। विशालाक्षी चाहती थी कि उसका बेटा खूब पढे लेकिन विवेक बेटे को पढाने की बजाय अपने साथ दुकान पर बैठाना चाहते थे।

इसी सबमें प्रांजल बड़ा हो गया और अपनी पसंद की गैरजाति की लड़की से विवाह कर लाया जिसके लिये विवेक ने पूरा सहयोग दिया। 

अब सारा दिन काम करने के बाद विशालाक्षी को अपमानित और प्रताड़ित करने वाले तीन लोग हो गये। जनार्दन हर समय बेटे और बहू की हर बात में समर्थन करते रहते। कभी कभी उसका पोता दादी के पक्ष में बोल देता तो उसे ही डॉटकर चुप करा दिया जाता। धीरे धीरे वह भी समझ गया कि दादी का अपमान करना, चुगली करना अधिक लाभदायक है।

वह रात विशालाक्षी कभी नहीं भूल पाई जिसने उसका जीवन बदल दिया। उस दिन बेटे और बहू ने उसे इतनी कटु बातें सुनाईं थी कि उसका कलेजा तक फट गया था। अपने दुर्भाग्य पर रोते हुये वह सारा काम करके बिना खाना खाये अपने कमरे में आकर लेट गई।

खाना खाने और टी०वी० देखने के बाद काफी रात को जब विवेक  कमरे में आये तो विशालाक्षी को रोते देखकर चिढ गये – ” अभी तुम्हारा ड्रामा खतम नहीं हुआ, रात में शान्ति से सोना भी हराम कर दोगी।”



” मैं कहॉ तक सहन करूॅ? इस उम्र में इतनी मेहनत करके भी बेटे बहू इतना कुछ इसीलिये बोल लेते हैं कि जानते हैं कि तुम भी उन्हीं का पक्ष लोगे। मैं सही होते हुये भी गलत ठहरा दी जाऊॅगी। समझ में नहीं आता कि क्या करूॅ, घर में रहने का मन नहीं करता।”

और विवेक ने ऐसा कुछ कहा कि हमेशा के लिये मोह की रस्सियॉ तड़क कर टूट गईं। पैंतालिस साल तक का विवेक का रिश्ता टूटकर पैरों के पास आकर गिर गया और उसका मुॅह देखने लगा – ” कभी एक पैसा तो कमाया नहीं है, घर के काम भी नहीं करोगी तो क्या करोगी? रहने  का मन नहीं करता तो जहॉ मन हो चली जाओ नहीं तो दूसरे कमरे में चूहे मारने वाली दवा रखी है तुम कहो तो लाकर दे दूॅ?”

विशालाक्षी की ऑखों के ऑसू सूख गये। वह विवेक की ओर देखती रह गई।

उस दिन से उसने चुप्पी साध ली। कोई क्या कह रहा है, क्या कर रहा है – सबके बदले में मौन? सारा काम करके नित्य की तरह मन्दिर चली जाती, मन में कोई संकल्प जड़ पकड़ रहा था।

सर्दियॉ शुरू होने वाली थीं । मन्दिर में लड्डू गोपाल और राधा कृष्ण सहित भगवान की मूर्तियों के गर्म कपड़ों ( छोटी पोशाकों, ऊन से बुने छोटे कम्बल ) की बातें हो रही थीं। विशालाक्षी ने बताया कि यदि अपने वो लोग अपने मन पसंद की ऊन ला  दें तो वह यहीं मन्दिर में बैठकर उनके लिये भगवान के कपड़े बुन देगी और बदले में वो लोग बाजार से कम पैसे उसे दे दिया करें। 

महिलाओं के साथ बाजार जाकर वह ऊन, सलाई क्रोशिया आदि ले आई लेकिन वह घर कुछ भी लेकर नहीं जाती। मन्दिर की अपनी सहेली रागिनी को अपना झोला दे दिया करती। 

धीरे धीरे एक महीने में विशालाक्षी ने दस हजार रुपए जमा कर लिये। दीवाली की पूजा उसने सबके साथ मौन रहकर की। उसके इस तरह मौन हो जाने के कारण घर के लोगों को शायद अपनी ग़लती का अहसास हो रहा था लेकिन अपनी गलती स्वीकार करके विशालाक्षी से क्षमा मॉगने के लिये तो कोई सोंच भी नहीं सकता था।



हालांकि प्रांजल ने विवेक से कहा भी – ” पापा, मम्मी अचानक इतना चुप क्यों हो गईं, क्या मैं उनसे बात करूॅ?”

” अरे नहीं बेटा, ज्यादा सिर चढाने की जरूरत नहीं। अच्छा है, घर में शान्ति है। कितने दिन ऐसे रहेगी, खुद ही ठीक हो जायेगी।”

भाई दूज के दिन बहू बेटे और पोते के साथ मायके चली गई। जनार्दन अपने दोस्तों के साथ शतरंज खेलने चले गये। घर में केवल विशालाक्षी रह गई। उसने अपनी कमाई के दस हजार रुपए अपने दो जोड़ कपड़े और अपने भगवान की मूर्तियॉ एक झोले पर रखकर चाभी नीचे किरायेदार को देकर कहा कि वह काम से जा रही है, घरवालें आयें तो चाभी दे देना।

अपने कमरे में एक छोटी सी चिट उसने छोड़ दी विवेक के नाम की – ” तुमने घर छोड़ने और जहर खाने का दो विकल्प दिया था मुझे तो घर छोड़ने का विकल्प अपनाकर जा रही हूॅ।”

उसके बाद विवेक , प्रांजल बहू, पोते के सम्बन्ध में कुछ जानने की कभी इच्छा नहीं हुई। बस मैं बैठकर वृंदावन आ गई। एक आश्रम में रहने को स्थान मिल गया लेकिन भीख के नाम पर दान पर जीवन निर्वाह का मन नहीं हुआ। यहॉ आकर वह मोह माया, दुख सुख से परे हो गई। जैसे दुनिया के सारे बन्धन उसके लिये मिट गये। अब वह पूर्ण सुखी थी। मुरली मनोहर ही उसके ” पितु मातु सहायक स्वामि सखा ” बन गये।

वृंदावन की दुकानों से वह भगवान के कपड़े बनाने का काम ले आती है। उतने में ही उसका गुजारा हो जाता है, अधिक का करना ही क्या है? साल भर में जितना पैसा बच जाता है, उससे सर्दियों में शाल, कम्बल, स्वैटर इत्यादि खरीद कर बॉके बिहारी के मन्दिर में बॉट देती है।

वक्त ने ऐसे करवट बदली कि जीवन भर विवेक की कटुता और अपमान को सहन करने वाली विशालाक्षी का जीवन स्वालम्बी होकर बॉके बिहारी की सेवा में सुखी हो गया और विवेक का …. । इसके आगे विशालाक्षी ने ” बॉके बिहारी की इच्छा ” मानकर सोंचना बन्द कर दिया।

 

बीना शुक्ला अवस्थी, कानपुर 

 

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