व्याहता – डाॅ उर्मिला सिन्हा

   आंगन में शोर सुनकर गौरी के पांव अनायास ही उस ओर मुड़ गये।सभी के होठों पर जैसे ताले जड़ गये।होंठ चुप,परंतु आंखों में छिपे हुए रहस्य …ताले जडे़ अधरों पर मुस्कान की वक्र रेखा ।एक दुसरे की ओर कनखियों से इशारे करती ननदें-जिठानियां ।श्वेत साडी़ में  विधवा सास द्रुतगति से सरौता चलाने लगी ।महरियांं इधर-  उधर बिखर गई ।

      सामने धरती पर एक गेहुएं रंग की तीखी नाक-नक्श वाली स्त्री ,बैठी एकटक उसे घूर रही थी।पता नहीं क्या था उसकी दृष्टि में गौरी सिर से पांव तक दहल उठी।

  वैसे ही इस हवेली के रहस्यमयी संरचना और दांव-पेंच से उसने घुटन सी होने लगती है।संयुक्त परिवार का अद्भुत उदाहरण है यह हवेली।कई पीढियां उनके बाल-बच्चे रिश्तेदार एक साथ रहते हैं यहां।सभी  की अपनी -अपनी समस्याएं थी…अतीत की बातें थी।वर्तमान सभी साथ-साथ झेल रहे थे।सुनहले भविष्य की कामना प्रत्येक प्राणी करता है ।परंतु एक दूसरे पर छींटाकशी …प्रगति पथ पर उडान भरने को बेताब परों को अपनी ईर्ष्यालु कैंची से कतरने में कोई किसी से कम नहीं था।उन्नति की कोई बात यहां वर्जित थी।जाने किस सदी में जी रहे हैं ये लोग?गौरी वितृष्णा से मर्माहत हो गई ।

    “अच्छा मालकिन चलती हूं ,ईश्वर आपके बेटे पोते को बनाये रखे “दोनों हाथों से बलैया लेती वह स्त्री  उठ खडी़ हुई।

  परिचय की थोडी़ जिज्ञासा गौरी को भी हुई।

 “बैठ गुलाबो थोडी़ देर और…”जिठानी मचल उठी।

गुलाबो ने गर्वभरी  निगाहें गौरी पर डाली और पुनः बैठती हुई गौरी को लक्ष्य कर बोली,”तुम भी बैठो” पान चबाते होंठ हंसते दंत पंक्तियों की  धवल चमक गौरी को आर पार कर गई जैसे बिजली का झटका लगा हो ।

  अच्छा यही है गुलाबो ।जिसकी बाजारु सोहबत के लिये गौरी के पति ने उसे दस वर्षों  तक मायके में छोड़ रखा था।वह कितना जलील होती थी सखियों के बीच।कैसा उपेक्षित महसूस करती थी घर-परिवार में।

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   किसी अवसर पर कुअंर जब ससुराल जाते तब भाभियां बहनें उसे सजा संवारकर उनके कमरे में धकेल आती।शराब के नशे में चूर कुअंर को पत्नी और गुलाबो में कोई अंतर नहीं नजर आता।परिणाम वह दो बेटों की मां बनी।कभी भी कुअंर ने उसमें दिलचस्पी नहीं ली न विदा कराये।

  उड़ती पड़ती खबरें गौरी के मायके वालों को मिलने लगी।खैर खून खांसी खुशी बैर प्रीति मधुपान…भला किसी के दबाये दबी है।गौरी की मां ने अपना सर पीट लिया ।दामाद की लाख चिरौरी की ,समझाया पर परिणाम वही ढाक के तीन पात।लोक -लिहाज से गौरी के पिता सौगात सहित उसे ससुराल पहुंचा आते ।किंतु वहां  उसका दिल नहीं लगता।वह पुनः मायके लौट आती।बेटे बढने लगे थे।

     गौरी के माता पिता का निधन हो गया।भाई भाभी उनके बच्चों में मां पिता के स्नेहद छाया  की स्निग्धता समाप्त हो गई थी।बात बेबात बच्चों को झिड़क देना ।व्यंग्य वाणों से गौरी के चोट खाये मर्मस्थलों को बेधने में उन्हें जरा भी झिझक नहीं होती थी।

   भविष्य की भयावहता ने गौरी का मान भंग कर दिया।बच्चों के भविष्य ने उसके स्वाभिमान को कुचल दिया।उपेक्षिता स्त्री का मान क्या अपमान क्या?

    इसी बीच कुअंर  अपनी बीमार मां के आदेश से गौरी को बिदा कराने आ पहुंचा।

 “मां ने बुलाया है वह बहुत बीमार है। बच्चों को देखना चाहती हैं।”

   “और मुझे …”!

कहते कहते गौरी रुक गई। मायके में बच्चों की फजीहत से बेहतर  है अपने घर चले जाना।उसकी स्थिति उस मोमबत्ती के समान हो गई थी जो जरा सा उष्णता पाते ही पिघल जाती है।

   यह तो कमाल हो गया।मामा मामी के दुरदुराये बच्चे पिता का प्यार पा फूले नहीं समाये।तुरंत उनके साथ जाने के  लिये तैयार हो गये।

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“पिताजी ,मुझे साइकिल चाहिये”बडा़ बेटा हुलसा ।

“और मैं कप्तान वाला ड्रेस लूंगा” छोटा  खुश होकर बोला।

 “हां हां सब मिलेगा।”कुअंर अपने दुलार का घट बच्चों पर उडे़लने लगे।

  असमंजस की स्थिति में गौरी गाल पर हाथ रखे सोच में पड़ गयी।

   “अब महारानी जायेंगी तब न बडी़ जिद्दी है”बडी़ भाभी बोली।

“इतना ही गुमान है तब अपने आदमी को वश में क्यों नहीं रखती” मंझली चमकी।

“हमलोगों के छाती पर मूंग दलेगी और क्या ।आदमी चिरौरी कर रहा है और महारानी मुंह फुलाये बैठी हैं।”छोटी ने तुक्का छोडा़।

     गौरी रो पडी़।मां रहती तो कुछ सलाह  जरुर देती ।उसकी जीवन नैया बीच भंवर में फंसी थी।ज्यादा कुछ सोचने विचारने का समय नहीं था।वह  जाने की तैयारी  करने लगी।

    सास ने एक उपेक्षा भरी नजर गौरी पर डाली।किंतु  अपने खानदान के वारिस पोतों को लपककर गले लगाया।

 अपने पिता के प्रतिरुप  बच्चों  के लिये नये-नये कपडे़ सिलवाये गये जरुरत के सामान खरीदे गये।पढाई के लिये शहर के प्रतिष्ठित स्कूल में दाखिला दिलाकर वहीं छात्रावास में उनके रहने की व्यवस्था करा दी गई।

   गौरी इतने से ही संतुष्ट हो गई ।बच्चों की परवरिश अच्छी तरह हो  जाये यही बहुत है।




  पति शायद ही उसके कमरे में आते।बेटों के खत से वह अपना दिल बहलाती ।आडी़-तिरछी पंक्तियों में उनके नन्हे हाथों से लिखी हुई चिट्ठियां ही उसका संबल था।

  आग्रह सहित यहां लाने का राज तो उसी दिन खुल गया था जिसदिन वह यहां आई थी।गौरी के सिवाय अन्य बहुओं की गोद सूनी थी ।इस धन संपत्ति के  वारिस गौरी के दोनो पुत्र ही थे ।अतः मजबूर होकर गौरी को यहां बुलाना पडा़ ।

   जिस गुलाबो के कारण गौरी अपने सभी अधिकारों से वंचित थी ।वही सामने सिर तानकर बैठी है।घर की औरतें उसे जलाने के लिये गुलाबो से घुलमिलकर बातें कर रही है।

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अपमान की भीषण ज्वाला से गौरी दग्ध हो गयी।स्त्री का आड़ लेकर ही पुरुष पत्नी को प्रताडित करता है।परस्त्री को अंकशायिनी बनाता है ऐश मौज के लिये और व्याह रचाता है वारिस के लिये।दो कौडी़ के गुलाबो के सामने जैसे वह एकदम फालतू हो गई हो।

   अपमान से उसका मुखमंडल लाल हो गया।

     वह तेज कदमों से भीतर चली गई । देवरानी जिठानी ननदों की विद्रूप हंसी उसके कानों में देर तक गूंजती रही।कोई भी स्त्री सबकुछ बर्दाश्त कर सकती है किंतु सौत  शब्द मान्य नहीं।

    गुलाबो से कुअंर का  अवैध संबंध से सभी वाकिफ हैं फिर भी सिर्फ  उसे जलाने के लिये सभी,”गुलाबो,गुलाबो” का रट लगा रही है!

   गौरी जितना ही इस दलदल से निकलने की कोशिश करती उतना ही  फंसती जाती।

   खैर…

 एक दोपहरी गुलाबो दबे पांव गौरी के कमरे में दाखिल हुई ,”मालकिन!”

“तुम” ।

  “हां मैं”गुलाबो  धीरे से बोली।

 “मेरे पास क्यों आई हो?”

   “छोटी ठकुरानी ,तुम्हारे सिवा यह बात मैं किसे बताऊं।”

“कौन सी बात!”

 सिर झुकाये गुलाबो आदि से अंत तक सारी बातें कह डाली।

  गौरी ने  ध्यान से देखा ।अपने रुप यौवन  के जादू से ठाकुर को वश में रखने वाली गुलाबो की अधेड़ काया ढलान पर थी।रुप यौवन के भ्रमर कुअंर सरीखे लोग भला एक जगह बंध कर रहे हैं कभी।




“मैं इसमें तुम्हारी क्या मदद कर सकती हूं!”

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    “ठकुरानी तुम व्याहता हो और मैं एक कुटिल चरित्रहीन स्त्री जो रईसों को फांस अपना पेट पालती है।मैं तुम्हारी गुनाहगार हूं लेकिन रधिया जिसने मेरी कोख से जनम लिया है लेकिन है तो कुंअर की ही बेटी।उसपर कुअंर की गंदी नजर है।वे मानने को तैयार नहीं हैं कि वे उसके पिता हैं।मुझे चार जूते मार लो किंतु रधिया को अपना संरक्षण दे इस घोर अनर्थ से बचा लो।”

  “मैं क्या करुं ।तुम्हें जूते मारने से मेरी खोई प्रतिष्ठा वापस आ जायेगी ।कुअंर से वह प्यार पा सकूंगी जिसकी मैं अधिकारिणी हूं।”उसने नफरत से मुंह फेर लिया।

   क्रोध अपमान से  गौरी का दम घुटने लगा वह खिडकी के पास जा खडी़ हुई।सामने एक षोडसी खडी़ थी। उसके बेटों की हमशक्ल।कुअंर की तरह तीखी नासिका ,बडी -बडी आंखें  भूरी चमकदार पुतलियां ,गोरा रंग ।

    गौरी का सोया जमीर जाग उठा।रधिया  के पिता कुअंर ही हैं इसमें कोई संदेह नहीं।इस अनर्थ से  पति अपने बच्चों के पिता को भी बचाना ही होगा।

   “अगर मुझपर  विश्वास है तो रधिया को यहां छोड़ जाओ यह मेरे संरक्षण में रहेगी ।”

”  घरवाले मानेगे और कुअंर जी से इसकी रक्षा कैसे होगी?”गुलाबो पहली बार रो पडी़।

  “यह सब मुझपर छोडो़ घरवाले और कुंअर को एकदिन अहसास हो जायेगा वह उनकी ही बेटी है।मैं व्याहता हूं बच्चों की मां हूं ।अनेक  बाधाओं के बीच भी अपनी मर्यादा जानती हूं।”

    अभिमान से गौरी का चेहरा दप-दप कर उठा। निर्लज गुलाबो भी उस तेज के समक्ष  फीकी पड़ गयी। दोनों हाथों से गौरी का पैर पकड़  वह फफक पडी़।

   ” तेरी नई मां…”रधिया को गौरी को  सौंप वह  चली गई।

सर्वाधिकार सुरक्षित मौलिक रचना-डाॅ उर्मिला सिन्हा©®

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