Short Stories in Hindi : मैं बहुत छोटी थी। लगभग दस साल की तभी बाबूजी की तबीयत बहुत खराब हो गई थी। शायद उन्हें लगने लगा था कि वह अब नहीं बचेंगे। मुझे याद है काका जब बाबूजी से उनका हाल पूछने घर से बाहर बने बरामदे वाले कमरे से दौड़ कर आए थे। बाबूजी ने काका को इशारे से अपने पास बुलाया था।
बाबूजी के इशारे पर काका उनके सिरहाने जाकर बैठ गए। बाबूजी ने काका का हाथ अपने दोनों हाथों से थाम लिया उनकी आंखों में आसुओं का सैलाब उमड़ रहा था।
काका एक दम से घबड़ा गए थे उन्होंने बाबूजी के हाथों को और अधिक मजबूती से पकड़ लिया और माथे पर अचानक आए पसीने को पोछने लगे। बाबूजी की सासें डूबती जा रहीं थीं। उन्होंने कातर नजरों से मेरी तरफ देखते हुए पास आने का इशारा किया। मैं कुछ ही दूरी पर बैठी अपने बाबूजी को भरी आंखों से देख रही थी।
मुझे नहीं पता था कि उन्हें क्या हो रहा है।
बिना कुछ बोले ही काका बाबूजी की अनकही भावों को समझ चुके थे। उन्होंने मुझको अपने पास बुलाकर मेरे माथे पर अपना हाथ फेरा और आखों से ही बाबूजी को सांत्वना दी। काका की आंखों से झर-झर आंसू गिर रहे थे ।उन्होंने मुझे अपने सीने से लगा लिया था। कुछ ही क्षणों में बाबूजी अपनी सभी जिम्मेदारियों को काका के भरोसे छोड़ निश्चिंत हो इस दुनिया से बहुत दूर चले गये थे।
काका कौन थे, कहां से आये थे और कब से थे हमें नहीं पता। हमने बचपन से ही उन्हें अपने घर में देखा था। हमारे घर के बड़े -बुढ़े वही थे। काका बाबूजी के प्रिय थे इसीलिए वे पूरे घर के चहेते थे।बाबूजी के साथ-साथ सभी घर के लोग उनको काका ही बुलाते थे। अपने गाँव के अलावा आस पास के गाँवो में भी उनका सम्मान था। गाँव-समाज, लोग-बाग, खेत-खलिहान ,नेवता- पिहानी, लेन- देन सब देखना काका की जिम्मेदारी थी। लोग उन्हें रामदूत कहते थे।
जहां तक हमें मालूम है रिश्तेदार के नाम पर काका के पास बस उनका अच्छा स्वभाव और सद्गुण था। जिसके कारण ही वह सबके रिश्तेदार थे। बाबूजी हम चारो भाई- बहनों की जिम्मेदारी काका की झोली में डाल गए थे। जिसे काका पूरी जिम्मेदारी और विश्वास के साथ निभा रहे थे।
काका मेरी माँ को बहुरिया सम्बोधित करते थे। माँ जब कभी बाबूजी के चले जाने को लेकर दुःखी होती तो काका उन्हें ढाढस बंधाते और दिन- दूनिया के बारे में समझाते थे। बच्चों में ही मन लगाने की सलाह देते। वह पढ़े लिखे नहीं थे लेकिन हमारी जरूरतों को अच्छी तरह से समझते थे ।खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना ,पढ़ाई-लिखाई सब पर उनका ध्यान होता था। हर हफ्ते स्कूल में पहुंच कर हमारी खोज खबर लेते रहते थे।
समय बीतता गया। हम बड़े हुए एक- एक कर सभी भाई बहन पढ़ाई लिखाई और शादी विवाह की वजह से गांव से से दूर हो गए । मैं सबसे बड़ी थी इसलिए मुझे ससुराल में भी माँ की चिंता लगी रहती थी। मैं काका से हमेशा उनका हाल चाल लेते रहती थी।
काका हंसकर कहते – ” तुम अपनी सास की चिंता करो बिटिया मैं हूँ न माँ को देखने के लिए।”
इधर तीनों भाइयों की शादी बड़े धूमधाम से हुई। कुछ दिन तक बहुएं घर में रहीं। फिर धीरे-धीरे सबने कोई न कोई बहाना बनाकर अपने पतियों के पास सेटल हो गई। माँ की सेहत गिरती जा रही थी। काका ने सभी को बुलाया पर सबका यही सलाह था कि माँ सारा ज़मीन जायदाद बेच कर शहर में ही रहने आ जाए तो ठीक रहेगा। माँ अपने पुरखों के जड़ को छोड़ना नहीं चाहती थी सो उन्होंने जाने से इंकार कर दिया।
शुरु -शुरु में सबने माँ की चिंता दिखाई पर धीरे-धीरे माँ की कम और घर बेचने की बेचैनी ज्यादा होने लगी। नियत समझकर माँ ने सबसे किनारा कर लिया। उतने बड़े हवेली में माँ अकेली हो गईं । कभी-कभी माँ ,बेटे- बहुओं की बातों से आहत हो जाती और बाबूजी के तस्वीर को आंसुओं से भींगे आँचल से बार-बार पोछने लगती।
जब कभी काका की नजर माँ की आंसुओं पर पड़ता वे विचलित हो जाते और माँ को समझाते ” बहुरिया बच्चे जैसा चाहते हैं वैसा ही कर दीजिये। “
माँ अपने आप को मजबूत करते हुए कहती-” इतनी स्वार्थी मैं नहीं हूँ जो बच्चों की खुशी के लिए पुरखों का नाम मिटा दूँ जिसको आबाद रखने में मैंने अपना सारा जीवन कुर्बान कर दिया और फिर आप तो हैं न मेरे साथ काका।”
“मेरी चिंता मत कीजिए बहुरिया ,मैं बुढ़ा आदमी चला जाऊँगा किसी मठ मंदिर में। “
माँ की आंखों में आंसू आ जाते। आंख पोछते हुए बोल ती -” “काका” बिन माली के बाग को संवारने में आपने पूरी उम्र गुजार दी,और अब जीवन की सांझ में आपका आसरा छीनकर मठ-मंदिर में जाने दूँ ऐसा हरगिज नहीं होगा मेरे जीते जी।”
एक दिन पड़ोसी से खबर मिली कि काका को हार्ट अटैक आया है। खबर मिलते ही मैं उन्हें देखने आ गई ।देखा डॉक्टर के साथ- साथ माँ भी उनकी सेवा में लगी थी। काका थोड़े ठीक हो रहे थे। माँ उनके लिए खिचड़ी बनवाने गईं थीं। मैं बगल में बैठी काका का सिर दबा रही थी।
डॉक्टर ने कहा-“मैंने बस सुना था देखा नहीं था लेकिन सौभाग्य मेरा जो देखने को मिला कि पिछले जन्म के रिश्तो के डोर से लोग इस जन्म में भी बंधे हुए रहते हैं। शायद यही बंधन है इनसे आपलोगों का।
धन्य हैं आपकी माँ सैल्यूट है उनके सेवा भाव को , इतनी सेवा तो अपने भी नहीं करते।”
डॉक्टर साहब शायद आप नहीं जानते काका ने जो हमारे लिए किया है उसकी भरपाई इस जन्म में तो सम्भव ही नहीं है, बंधन की गांठ में दोनों छोर मिले होते हैं”।
स्वरचित एवं मौलिक
डॉ .अनुपमा श्रीवास्तवा
मुजफ्फरपुर,बिहार