“विश्वास टूटते देर नहीं लगती” – ज्योति आहूजा : Moral Stories in Hindi

गर्मी की दोपहर थी, पर सरिता जीका मन कुछ और ही तप रहा था। वह आँगन के कोने में बैठी नीम के नीचे रखी कुरसी पर अधलेटी सी थी। पंखा चल रहा था, लेकिन उसके भीतर जो उफान था, वह किसी हवा से नहीं थमता। उसके सामने टेबल पर वही पुराना खत रखा था जो उसकी जेठानी के बेटे की शादी का न्योता था – विनय की शादी। और साथ में एक टीस… एक घाव… जो उसका अपना बेटा था – अमन।

विनय, यानी उसके जेठ का बेटा, जिससे वह कभी अपने बेटे अमन की तुलना करते नहीं थकती थी — “कितना सलीका है उस लड़के में, और एक हमारा अमन है कि बचपन से ही झूठ की जड़ में उगा है।”

सरिता को याद आया, कैसे बचपन में अमन कहता था, “माँ, रिंकू ने मेरी पेंसिल चुरा ली,” बल्कि पैंसल उस से खो जाती थी और वो दूसरों की पैंसल हथिया लेता था चुपके से।

“ टॉफ़ी खाकर भी कहता था कि माँ, वो टॉफी मैंने नहीं खाई,”

और वह समझती थी कि बच्चे हैं, थोड़ा बहुत चलता है। मगर जब झूठ की जगह खून में हो, तो वो आदत नहीं, बीमारी बन जाती है।

एक दिन अमन आठवीं में था, मार्कशीट घर आई, उसने पापा को जल्दी से बता दिया – “देखो न पापा, सब नंबर कम आए, पर टीचर ने कहा है कि रीचेक में शायद ज्यादा मिल जाएँ।”

पापा – सुरेश बाबू – गुस्से में थे, “कहाँ है मार्कशीट, दिखा।”

“अभी नहीं है… दोस्त के पास है,” और तीन दिन तक वो “दोस्त के पास है” चलता रहा।

फिर पता चला कि उसने खुद ही अपने मार्क्स बढ़ाकर कॉपी की फोटोशॉप्ड कॉपी बनाई थी — माँ का दिल धड़धड़ा गया।

सरिता ने रोते हुए उससे कहा था —

“बेटा, तू जिस तरह तेरे रग-रग में झूठ है ना… तुझ पर कभी कोई विश्वास नहीं करेगा। जब घरवाले ही तुझ पर यकीन नहीं करेंगे, तो दुनिया तुझे क्या देगी? विश्वास टूटते देर नहीं लगती… और फिर एक बार जो टूट जाए ना, वो फिर कभी पूरा नहीं होता।”बहुत देर लग जाती है फिर से।

अमन चुप था, जैसे सुना ही नहीं।

वक़्त बीतता गया… अमन कॉलेज पहुँचा… वही आदतें और गहराईं। क्लास अटेंड नहीं करता, लेकिन कहता “प्रेज़ेंट था।” फीस के लिए पैसे माँगे, और फिर कुछ हिस्से से मोबाइल रिचार्ज करवा लिया, बचे हुए दोस्तों के साथ पार्टी में उड़ा दिए। घर में कहा – “बचे नहीं, सब जमा कर दिए कॉलेज में।” माँ ने भी कुछ नहीं कहा, बस गटक लिया।

ये सब  सोचते सोचते सरिता जी फिर से वर्तमान में आ गई।

विनय की शादी तय हुई थी। सरिता बहुत खुश थी, और अमन को देख रही थी कि शायद इस मौके पर वो कुछ ज़िम्मेदारी निभाएगा।  

उसके ताया जी ने कहा, “इस बार देखो, इसे काम दो। अब तो बड़ा हो गया है। ज़िम्मेदारी समझेगा।”

सरिता को भी एक पल को भरोसा आया। अमन को काम सौंपा गया — बारात के लिए गिफ्ट्स की लिस्ट और बाजार से गिफ्ट्स लाने का। सबने मिलकर उसे पैसे दिए।

शादी के एक दिन पहले पता चला कि तीन में से दो दुकानों पर गिफ्ट्स उठाए ही नहीं गए, और जिनका उठाया गया, वो भी असली दुकानों से नहीं — लोकल मार्केट से सस्ते माल खरीदे और पैसे बचा लिए।

जब पूछा गया, बोला – “वो दुकानदार ने ही गड़बड़ कर दी थी। मैंने तो ऑर्डर दिया था।”

लेकिन बिल मांगने पर कोई दस्तावेज नहीं दिखा पाया।क्योंकि उसने बिल तो लिया ही नहीं था।

तब  अमन की ताई जी ने वहीं सामने कहा था, “मैंने पहले ही कहा था, इसको काम मत दो, ये फरेब करेगा… डर था, और वही हुआ।”

सरिता के पैरों तले ज़मीन खिसक गई थी।

लेकिन इससे भी बड़ी बात वो थी… जब एकदिन अमन ने घर की पुरानी घड़ी — जो उसके पापा को उनके पिता से मिली थी — वो ले जाकर बेच दी। बोला – “घड़ी खराब थी, ठीक करवाने ले गया हूँ।”

पापा को कुछ शक हुआ…  शादी में कोट के साथ जो पहननी थी। सभी से पूछा गया।अमन भी टालता रहा। जब घड़ी की खोज शुरू हुई, तो एक अमन  ने झूठ बोल दिया कि अमन ने  एक दोस्त को पहनने के लिए दी थी — पर उस दोस्त ने साफ़  मना कर दिया कि कोई घड़ी उसे नहीं दी गई।

सरिता ने जब ज़ोर देकर पूछा, तब जाकर उसने बताया, “उधार चुका रहा था, घड़ी बेच दी।”

“कितनों से उधार ले रखा है?” पापा गरजे थे।

पता चला कि अमन ने न केवल दोस्तों से बल्कि मार्केट में दुकानदारों से भी उधार लिए थे — कभी किताबों के नाम पर, कभी हेल्थ के नाम पर, और फिर वो उधार चुकाने के लिए घर का सामान तक बेचने लगा।

उस दिन सरिता एक कोने में बैठकर फूट फूट कर रोई थी। “ये मैंने क्या जन्मा है… क्या ये वही बच्चा है जिसे मैंने सीने से लगाकर बड़ा किया…”

उस दिन से अमन घर में अकेला हो गया। कोई उससे घर की बात नहीं करता, कोई उसे ज़िम्मेदारी नहीं सौंपता। धीरे-धीरे घर के भीतर से वो बाहर हो गया, बस खाने-सोने के लिए आता है। किसी की नज़रों में अब वो वो नहीं रहा, जिससे जुड़ाव हो, या सम्मान।

एक बार फिर सरिता ने उससे कहा —

“बेटा, याद रख, विश्वास टूटते देर नहीं लगती… और जो इंसान परछाईं जितना भरोसा खो दे, वो उजाले में भी अकेला ही रह जाता है…”

अमन कुछ नहीं बोला। शायद वो जानता था, इस बार उसके पास कहने को कुछ नहीं बचा था।

 कुछ दिन बाद बरामदे की पुरानी लकड़ी की कुर्सी पर बैठे सुरेश बाबू की आँखें बंद थीं, लेकिन नींद कहीं दूर थी। दोपहर की धूप सरक कर नीम की छाँव में घुल रही थी, और कहीं अंदर से सरिता की सिसकियाँ दबकर बाहर आ रही थीं। विनय की शादी निपट गई थी, पर घर का माहौल जैसे अब तक बिखरा पड़ा था।

अमन उस दिन के बाद बिल्कुल अलग हो गया था।

वो घर में रहकर भी जैसे बाहर था।

ना नज़रें मिलाता, ना बात करता, और बात करता भी तो सिर झुकाकर, जैसे किसी अपराधी की आत्मा हर वक़्त उसकी साँसों में छुपी हो।

सरिता ने कई बार चाहा कि कुछ कहे, दिल हल्का करे, लेकिन जब शब्द निकलने लगते, तो आँखें भर जातीं। भरोसे के टूटने की आवाज़ अगर सबसे तेज़ होती है, तो माँ का टूटा विश्वास सबसे  तेज़ दर्द देता है।

एक शाम, सरिता रसोई में थी। गैस पर चाय चढ़ी थी, और उसके हाथों में बरसों पुरानी स्टील की ट्रे थी — वही जिसमें अमन जब छोटा था, उसे दूध बिस्किट देती थी।

“माँ, एक कप मेरे लिए भी बना दो।”

आवाज़ वही थी, मगर लहजा कुछ बदल गया था — झुका हुआ, थका हुआ।

सरिता ने बिना पलटे पूछा, “शक्कर कितनी लोगे अब? जो हर बार बदल जाती है?”

अमन चुप था।

कुछ देर बाद बोला, “जितनी माफ़ कर दो माँ… उतनी डाल दो।”

सरिता का हाथ काँप गया, चाय छलक गई।

चाय बन गई, लेकिन दोनों के बीच कुछ भी बात नहीं हुई।उसने माफ़ी माँगी।

माँ और पिता जी ने कुछ नहीं कहा। शब्द अब भी कम थे।

अमन ने धीरे-धीरे जिम्मेदारियाँ उठानी शुरू कीं — पहले छोटे काम, फिर बाहर जाकर नौकरी ढूँढने की कोशिश।

पहले दिन वो घर लौटा तो खाली हाथ था, पर चेहरे पर आत्मग्लानि नहीं, उम्मीद थी।

“इंटरव्यू तो अच्छा गया, लेकिन पहले की डिग्रियाँ माँगी, और… मैंने तो आधे कॉलेज भी ठीक से नहीं किया था,”

सुरेश बाबू ने अखबार से नज़रें उठाईं, “तो अब समझ आ रहा है कि झूठ का सर्टिफिकेट कहीं नहीं चलता?”

अमन ने सिर हिला दिया।

कुछ हफ्तों बाद, उसने एक छोटी सी जॉब पकड़ ली — एक पुराने स्टेशनरी स्टोर में। मेहनत ज़्यादा, पैसे कम। लेकिन वो रोज़ समय पर जाता, और वापसी में माँ के लिए सब्ज़ी लाता — बिना झूठ बोले, बिना पैसे बचाए।

एक दिन, माँ ने सब्ज़ी के साथ गिनकर पैसे लिए और मुस्कुराकर कहा, “आज कम हैं…”

अमन बोला, “हाँ, रास्ते में एक बुज़ुर्ग खड़े थे… वो कह रहे थे दवाई के पैसे नहीं हैं… तो 50 रुपये दे दिए।”

सरिता ने पैसे नहीं गिने, बस उनका हाथ पकड़ा और कहा —

“झूठ बोलो तो हक नहीं होता, लेकिन जब सच कहो… तो माँ को भरोसा करने के लिए गिनती नहीं चाहिए।”

धीरे-धीरे रिश्तों की दीवार पर फिर से प्लास्टर चढ़ने लगा था।

फिर एक दिन अमन ने सबके सामने कहा —

“मैंने बहुत गलतियाँ की हैं… शायद आप लोग मुझे पूरी तरह माफ़ न कर पाओ, लेकिन मैं ये भरोसा वापस कमाऊँगा… चाहे जितना वक़्त लगे। आपने मुझसे नफ़रत नहीं की, बस भरोसा खो दिया — और अब वही मेरी सबसे बड़ी परीक्षा है।”

विनय ने आगे बढ़कर उसका कंधा थपथपाया —

“भाई, भरोसा टूटे तो दर्द होता है, लेकिन अगर कोई उसे जोड़ने आए… तो हाथ पकड़ ही लेना चाहिए।”

सुरेश बाबू ने अखबार मोड़ा, चश्मा उतारा और पहली बार मुस्कुरा कर कहा —

“अब तू झूठ नहीं बोलता… यही सबसे सच्ची बात है।”

और अमन का चेहरा जो अब तक आत्म ग्लानि से भरा हुआ था अब उस पर कहीं न कहीं आत्मविश्वासकी चमकती हुई  आभा दिखाई दे रही थी।

प्रिय पाठकों उम्मीद है।

 ये कहानी आप सभी को अच्छी लगेगी ।

कहानी पढ़कर बताइए कैसी लगी ?

इसी इंतज़ार में।

ज्योति🖊️

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