छुक-छुक करती ट्रेन चली दिल्ली से बिहार बढ़ी…प्रताप और राकेश अपने परिवार के साथ अपने गाँव जा रहे थे।पिता जी के देहांत के बाद दोनों का गाँव से नाता ही टूट गया था।शहर की दौड़ती-भागती ज़िंदगी में दूसरो के लिए तो छोड़ो अपनों के लिए भी वक़्त नहीं मिलता,तो गाँव का तो सवाल ही नहीं।सिया और राजू भी गाँव तब गए थे जब उन्हें कुछ समझ नहीं थी और प्रियल तो कभी भी नहीं गया था।
आज जब दोनों भाई नौकरी से ऊब गए,तो उन्होंने सोचा कि पिता जी की गाँव में जो प्रोपर्टी है उसे बेच कर कुछ कारोबार करते है।इसलिए वो अपने परिवार के साथ गाँव जा रहे थे।सीता और मीरा दोनों की बीविया हैं,जिनकी आपस में खूब बनती हैं।
इनके नामों पे ना जाना ख़ैर नाम में क्या रखा है असल खजाना तो सीरत है।चल तो दिये थे सब साथ पर कितना निभेगा पता नहीं…..
वहीं सिया,राजू परेशान,वहाँ फोन पे इंटरनेट चलेगा भी या नहीं ….अगर नहीं चला तो हम क्या करेगे?? दूसरी तरफ़ प्रियल जो सबमें छोटा और नटखट था ये ये हम दादा जी के गाँव जा रहे हैं, मैं तो खेतों में जाऊँगा और हैण्डपम्प से पानी पिऊँगा….खूब मज़ा करूँगा।
ट्रेन मंजिल की ओर बढ़ने…लगी आगे क्या होगा,यही सोच मीरा और सीता फुसफुसाने लगी,थोड़ी देर में ट्रेन रुकी और सब उतर गए।गाँव कैसे जाना है? यही विचार-विमर्श करने लगे,तभी एक जुगाड़ गाड़ी आ कर रुकी… सिया ये क्या है?
राजू-देखो ! सिया हमे लेने मर्सडीज़ से भी बड़ी गाड़ी आई है।अब तो कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए, सब मुस्कुराते हुए उस गाड़ी में बैठ गए।
जैसे ही गाड़ी घर के द्वार पे रुकी तो सब एक दूसरे का चेहरा ताकने लगे,घर तो खुला है और उसमे से आवाज़े आ रही थी।
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राकेश – आश्चर्यचकित हो कर! भाईसाहब ये क्या है हमारे घर में कौन है ?
तभी अंदर से एक बच्चा नंगा भागते हुए आया जिसकी नाक टपक रही थी,यह देख सिया बोली-“हम यहाँ रहेगे”…इट्स इम्पॉसिबल”
सीता -तुम चुप रहो! अजी ये सब क्या है?अंदर जाना है या यही पे डेरा लगा ले।
जैसे ही अन्दर गए तो देखा कि चाचा जी बरामदे की कुर्सी पे बैठे मुँह में दातुन लिए अखबार पढ़ रहे थे।
प्रताप-नमस्ते चाचा जी आप यहाँ सब ठीक है ?
चाचा जी-मेरी छोड़ो, तुम बताओ आज गाँव का रास्ता कैसे भूल गए?दस साल हो गये तुम्हारे बाप को और आज आ रहे हो! मालती देखो! कौन आया है इनके लिए चाय-पानी का बंदोबस्त करो।
ये सुन सीता,मीरा दोनों चाचा जी के चरणों में नतमस्तक हो गई….जीती रहो ! सदा ख़ुश रहो !
इतने में मालती जो चाचा जी की बहू है,अंदर से पानी लेती हुई आती है और नमस्कार कर सबको अंदर ले जाती है।
चाचा जी-अभी जाओ,आराम करो।रात को बात करते है,ये कह वो चले गये हम दोनों भाई पानी का घूँट लेते हुए एक दूसरे को ताकते रहें।
चाँदनी रात थी हवा भी साफ़ थी शहर के शोर से दूर सुकून की राहत थी।चाचा जी की बहू ने ख़ाना वास्तव में लाजवाब बना था सब उंगलिया चाटते रह गए, पेट भर गया पर मन नहीं ।
चाचा जी-और सुनाओ! शहर में सब काम-धन्दा कैसा चल रहा है?
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राकेश-बात काटते हुए, चाचाजी आप यहाँ कब से रह रहे हैं ?
चाचा जी-कब से! जब से तुम लोग मेरे भाई को अकेला छोड़ के गए थे तब से
प्रताप-तब से आप यही रह रहे है आप तो अपना हिस्सा ले चुके थे तो…
राकेश-भाईसाहब सही कह रहें है।माना जब पिता जी की तबियत ठीक नहीं थी तो आपने उनका बहुत ख़्याल रखा बल्कि आपने ही,हम दोनों तो अपने काम में बिज़ी थे।
चाचा जी-“मानते हो ना ख़्याल रखा “तो अब तुम जाओ…अंग्रेज़ी में क्या कहते हो तुम लोग गुड नाईट !
दोनों भाई सकते में चलो! कल देखते है।
अगले दिन सूरज फिर निकला पर कुछ बदला-बदला सा लगा…
सीता-मालती चाय दे दो बहन सिर दर्द से फटा जा रहा है
मालती-रसोई तो आपने देख ही ली है,तो आप चाय ख़ुद बना लो दी ,मैं चिंटू को निलाह रही हूँ ।
सीता-मीरा ये सब क्या है? मैंने सुना था कि गाँव वाले बड़े आओ भक्त करते है और ये….
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मीरा- बहन अब बना ही रही हो तो दो कप और ,ये कह वो बाहर चली गई…
अंदर का माहोल तो गर्म हो चुका था,बाहर भी कुछ ठीक नहीं था।गाँव वाले थे शहर वालों पे भारी,पर प्रियल ने आगे बढ़ कमान सँभाली और अपनी नटखट ठिठोलियो से गाँव वालों के दिल में जगह बना ली,पर ये बात बड़े क्या जाने अपने अहम को ख़ुद से बड़ा माने।
रात जैसे-तैसे कट गयीं,अगले दिन सुबह-सुबह प्रताप और राकेश बच्चों के साथ गाँव घूमने निकल गये इन गलियों चौराहों से गुजर उन्हें अपना बचपन याद आने लगा।भाई आपको याद है पिता जी के कंधे पे बैठ हम सब बातो से मुक्त हो जाते थे,ना गिरने का डर ना चोट खाने का दर्द होता था वो हमेशा हमारे साथ खड़े रहे और हम लोग तो उन्हें एक आस भी ना दे पाए।
हमने अपने बच्चों को क्या दिया है,ना तो वो प्यार ना ही ऐसी यादें जो वो हमे याद करे।
प्रताप राकेश के काँधे पे हाथ रखते हुए….जो गुजर गया उसे बदल नहीं सकते पर अपने बच्चों के लिए अच्छी यादें बना सकते है।
सिया और राजू भी खो गए फ़ोन में कितनी डंडी आ रही है ये छत पे चढ़ खोजना भूल गए
प्रियल ने खेतों में खूब मज़ा किया और हाँ हैंड पम्प से पानी भी पीया,इन सब यादों को सिया ने फोन में कैद कर लिया।
कुछ दिन यूँ ही बीत गए शहर के रंग छोड़ सब गाँव के रंग में रंग गए बिजली ना होने का रोना छोड़ तान के चादर सो गए।इन सबको यू सोता देख एक सुकून था तभी किसी की चहल कर्मी की आवाज़ आयी मैं आगे बड़ा और देखा चाचा जी छत की तरफ जा रहे थे मैं उनके पीछे पीछे चल दिया।
प्रताप- चाचा जी क्या हुआ? आप इस वक़्त यहाँ !
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चाचा जी – “कुछ नहीं बस भाई साहब की जब याद आती है तो मैं यहाँ आ जाता हूँ। तुम भी सोचते होगे कि मैं लालची हूँ जो अपने भतिजो का हक मार रहा हूँ पर ऐसा नहीं है तुम्हारे पिता जी ने वादा लिया था कि इस घर को छोड़ के नहीं जाओगे और तुम लोग भी तो कभी नहीं आए।
प्रताप-मैं जानता हूँ कि आप पिता जी की जान थे
चाचा जी -ये सब तुम्हारा ही है।मैं तो बस इसकी देख भाल कर रहा हूँ मुझे याद है मेरे बुरे वक़्त में भाई साहब ने मेरा साथ ही नही दिया बल्कि अपने दिल और घर में भी जगह दी ।मैं चाहता हूँ कि जो गलती मैंने कि वो तुम ना करो अपने पुरखों की इस दरोहर को बचा के रखो।अपने सपने पूरे करो पर अपनों के सपनों पे खरे भी उतरो…हमारा क्या जब हरि फ़ौज से आजाएगा तो हम कही और रह लेगे ये कह आँखों में नमी लिए चले गए।
मैं रात भर यही सोच रहा था कि रिश्ते कितने अजीम होते है।तभी प्रियल आया बाबा क्या सोच रहे हो???कुछ नहीं देखो! ये वो दरख़्त है जहाँ तुम्हारे दादा जी ने मेरे लिये झूला डाला था।
प्रियल-झूला…पापा मुझे भी झूला झूलना है।
प्रताप-प्रियल जब तुम बड़े हो जाओगे तो मुझसे मिलने आओगे….
प्रियल- हाँ बाबा…पर कहाँ से..बचपन भी कितना मासूम होता है छल-कपट,स्वार्थ से दूर,ये सोचते-सोचते दोनों पेड के नीचे ही सो गए।अगले दिन जब प्रियल उठा तो पेड पे उसे झूला टंगा मिला ये ये झूला लग गया,बाबा ये मेरा है
प्रताप-हाँ ये तुम्हारा है हस्ते हुए प्रियल झूला झूलने लगा।
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उस रात के बाद एक नयी सुबह हुई । दो सप्ताह कैसे बीत गए पता ही नहीं चला,लेकिन जितना भी समय यहाँ बीता वो यादगार रहा।
मालती-दीदी आप लोग आते रहना ये सुन !सीता और मीरा मालती से लिपट गई।
सीता- अब से हम तीन बहनें है जब भी तुम्हें कोई काम हो तो बेहिचक बोल देना।
दोनों भाई चाचा जी के गले लगते हुए, ये हमारा नहीं आपका घर है,घर अधिकार से नही प्रेम से बनता है और आप पिता जी की तरह ही है आप यही रहेंगे।क्योंकि अब हमारे लिए शहर छोड़ पाना मुश्किल हैं लेकिन हर छः महीने में पूरे परिवार के साथ आते रहेगे।और बच्चों को भी अपने पुश्तैनी घर गाँव के रहन-सहन का अनुभव होना चाहिए।
चाचा जी- बाय बच्चों और अगली बार जब आओगे तो इंटरनेट भी लगा मिलेगा।
“विरासत से हमें घर,रिश्ते,संस्कार सब मिलता है ये हमपे है कि हम क्या अपनाते है क्या नहीं”….
#5वाँ_जन्मोत्सव
स्वरचित दूसरी रचना
स्नेह ज्योति