लगभग प्रतिदिन समाचार आता कि आज चीन ने हमारी एक चौकी पर कब्जा कर लिया,आज दो चौकी हमारे हाथ से निकल गयी।सुनकर झल्लाहट होती,पर बेबबस थे।
मैं तब आठवीं कक्षा का विद्यार्थी था,1962 के अक्टूबर माह में ही चीन ने भारत पर आक्रमण किया था।लम्बी गुलामी और विदेशी शासन से बहुत संघर्ष के बाद आजादी मिली थी।लगता था, विश्व में अब शान्ति व्याप्त हो गयी है, सब अपने अपने देश मे शांति पूर्वक रहेंगे,फिर सेना की क्या आवश्यकता?बस इसी अतिवादी सोच ने सेना को कमजोर कर दिया,शायद मैं गलत कह रहा हूँ,सेना तो कमजोर न तब थी और न ही अब।हाँ इतना हुआ कि सेना की मूलभूत जरूरतों पर ध्यान ही नही दिया गया।नतीजा रहा एक शर्मनाक हार और कई हजार वर्ग किलोमीटर भूमि पर चीन का कब्जा। सपनो की काल्पनिक दुनिया मे जी रहे हम ये समझ ही नही पाये कि पागल कुत्तों के बीच शांति से क्या सोया जा सकता है?
उन दिनों टेलीविजन तो होता नही था,बस रेडियो से ही समाचार रात्रि 8बजे सुनते थे।मेरे पिता चूंकि अपने कस्बे में विशेष स्थान रखते थे और वो लोकप्रिय तथा मिलनसार भी थे,इसी कारण प्रतिदिन ही अपनी कोठी के सामने छिड़काव कराकर तीन चार चारपाई,आठ दस मुढढे बिछ जाया करते,बीच मे हुक्का सज जाया करता था,और दो नौकर हुक्के की चिलम भरने और चाय आदि लाने में शाम से ही व्यस्त हो जाते,20-25 प्रतिष्ठित नगरवासियों की महफिल रोज ही जमती थी,जो कम से कम रात्रि 11 बजे तक चलती।
अब वहां रेडियो भी लगवा दिया गया था,जिस पर ठीक 8बजे सब समाचार सुनते। चीन के आक्रमण के बाद अब वहां विषय यही युद्ध होता।हार की खबर सुन सब गमगीन होते और अफसोस जाहिर करते हुए अपने अपने तरीके से बाद में विवेचना करते।
मेरी बालबुद्धि में उनकी कोई बात नही समाती थी,लेकिन मैं भी वहां एक ओर बैठा रहता,कोशिश करता यह समझने की कि हम क्यूँ हार रहे हैं?रेडियो में रोज उन व्यक्तियों के नाम भी बोले जाते जो प्रधानमंत्री कोष में धनराशि भेजते थे।
युद्ध प्रारंभ होने के दो दिन बाद ही मेरे पिता ने मुझे आवाज लगा कर बुलाया और मुझे 500 रुपये देकर बोले बेटा सुबह नेहरू जी को मनीऑर्डर कर देना,अपने नाम से।हमे भी तो कुछ करना चाहिये।
मेरे पिता कम पढ़े लिखे थे,फिर भी उन्होंने अपने भट्ठे के व्यापार में साम्राज्य स्थापित किया था।उस समय 500 रुपये भी काफी राशि मानी जाती थी।मुझे खूब खुशी हुई,विशेष रूप से यह सोच कर कि मेरा नाम भी अब रेडियो पर आयेगा।
अगले दिन अपने चाचा की सहायता से मनीऑर्डर कर दिया।अब रोज इंतजार रहने लगा रेडियो पर नाम आने का।चार पांच दिन बाद जब मेरा नाम रेडियो पर आया तो मैं खुशी के मारे चीख पड़ा।सब लोग मेरी तरफ देखने लगे।मेरे पिता मेरे पास आये और बोले बेटा ये खुशी का मौका बिल्कुल भी नही है,हम हार रहे हैं।ये देश भारत है ना ये रहेगा तो हम रहेंगे।भारत के जीतने की प्रार्थना करो,वो जीतेगा तो हम जीतेंगे।
अपने पिता के मुख से ये शब्द सुन मेरा सीना गर्व से चौड़ा हो गया।आज समझ आता है वो कम पढ़े लिखे थे तो क्या हुआ,पर विचारों से तो उन्होंने पीएचडी की हुई थी।
बालेश्वर गुप्ता, पुणे
मौलिक,अप्रकाशित, सत्य बात।