“वैराग्य क्यूँ..?” – रंजना बरियार

एक समय था जब माली के बेटे सोनू को आम का पौधा लगाते देख नीलिमा जी ने पूछा था “कहाँ से लाकर पेड़ लगा रहा है सोनू?”

आँटी जी, आज बाबा ने मुझे सौ रुपये दिये, कहा “मैं तो तुझे पढ़ा नहीं सकूँगा..एक-एक आम का पौधा  मेरे पाँच घरों में लगा ले, बीस साल बाद इनके फल बेचकर जो आधे पैसे मिलेंगे, उससे तुम्हारी जीविका चल जाएगी!”

“और आँटी मैं बाबा के साथ काम भी सीख रहा हूँ… बस बड़े होकर खाने लायक़ कमा ही लूँगा!”.. सोनू ने चहकते हुए कहा था।

                       आज नीलिमा जी के एकाकी जीवन का वह सहारा है..जान से प्यारी,अपनी आँटी के अहसान तले वो ताउम्र  रहना चाहता है..उनकी उदारता और नेकी की वजह से ही तो आज वो ज़िले का कलेक्टर है!


“सोनू , मैंने आम तुड़वा दिये हैं, ग़रीबों के बीच बँटवा दे, और मेरी हरिद्वार की टिकट भी बुक करवा दे!” नीलिमा जी की आवाज़ से सोनू की तंद्रा भंग हुई।

“आँटी जी , मैं आज ही सारे आम ग़रीबों के बीच बँटवा देता हूँ… पर आपके टिकट के साथ अपनी और आपकी बहू की टिकट भी बुक करवा लिए हैं..हम सभी एक सप्ताह हरिद्वार  घूम कर आएँगे !” कलेक्टर सोनू ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा!

                 नीलिमा जी ने तो मात्र कुछ पैसों से ही मदद की थी सोनू की..पर आज वो उसके सामने खुद को बौना महसूस कर रही हैं…उसके स्नेहसिक्त अहसान तले दबी जा रही हैं..अपने बच्चों को तो विदेशों में रहने का बहाना है … पर ऐसे सुपुत्र के होते उन्हें वैराग्य की आवश्यकता क्यों?

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