वह दर्दनाक मंजर – कमलेश राणा

जल ही जीवन है पर अति हर चीज़ की बुरी होती है,,, प्रकृति का यह वरदान वर्षा ऋतु में में जब नदियों के तटबंध को तोड़कर आबादी वाले हिस्सों में प्रवेश कर जाता है तब इसका स्वरूप कितना विनाशकारी होता है,, यह तो भुक्तभोगी ही बता सकता है,, 

तिनका तिनका जोड़ कर बनाई गृहस्थी जल की भेंट चढ़ जाती है और न जाने कितने परिवारों के सहारे छिन जाते हैं,, 

पर क्या आप सोच भी सकते हैं कि यह त्रासदी किसी के पेट भरने का सुनहरा अवसर भी हो सकती है,, हाँ यह सच है,, मैंने वो भयानक मंजर अपनी आँखों से देखा है,, 

उस समय उम्र कम थी तो इतनी गहराई से उन गरीबों की विवशता को महसूस नहीं कर पाई,, पर आज सोचकर ही कलेजा मुँह को आता है,,

भोपाल से इटारसी वाले रूट पर मंडी दीप 1975 में एक छोटा सा कस्बा था,, अब तो यह बड़ा इंडस्ट्रियल एरिया बन गया है और भोपाल से लगभग मिल ही गया है,, तब यह एक छोटा सा रेल्वे स्टेशन था,, 

स्टेशन से लगी हुई पहाड़ी पर हमारा स्कूल था,, प्रतिदिन स्टेशन से निकल कर हम सब स्कूल जाते थे,, 

वह स्टेशन बहुत सारे बेघर गरीब लोगों का आश्रय स्थल भी हुआ करता था,, जहाँ वो गर्मी, सर्दी और बरसात से बचने के लिए पनाह लेते थे,, 

बरसात का मौसम था,, उन दिनों होशंगाबाद में नर्मदा में भयंकर बाढ़ आई हुई थी,, एक दिन पहाड़ी पर बहुत तेज़ बदबू हमारे नथुनों से टकराई,, देखा तो दूर कुछ गरीब लोग कुछ कर रहे हैं,, 

यह बदबू वहीं से आ रही थी,, क्लास में बैठना असहनीय हो रहा था,, पर कुछ देर बाद नाक इसकी अभ्यस्त हो गई,, 


अब तो यह रोज का ही काम हो गया,, बालमन उत्सुक था कारण जानने के लिए पर उनके पास जाने से डर लगता था क्यों कि सबके मम्मी पापा ने सख्त हिदायत दे रखी थी कि किसी अजनबी से बात नहीं करनी है वरना वो तुम्हें पकड़ कर ले जायेंगे,, 

एक दिन एक महिला बच्चे के साथ पास से गुजरी,, तो हिम्मत करके उस बदबू का कारण पूछा तो वह बोली,,बेटा, यह सड़े हुए अनाज की बदबू है,, हम रोज पैसेंजर से होशंगाबाद जाते हैं और अपना और अपने बच्चों का पेट भरने के लिए, वहाँ से जो अनाज बाढ़ में बहकर आ जाता है,, उसे इकट्ठा करके ले आते हैं और यहाँ सुखाकर पिसवा लेते हैं,, जिससे बच्चों को भरपेट भोजन मिल जाता है,, 

अब नज़र दूर बैठे उन बच्चों पर जा कर टिक गई जो वहाँ बैठे कौवों और कुत्तों से उस अनाज को बचाने की कवायद में लगे हुए थे,, भूख और लाचारी उनकी आँखों से टपकी पड़ रही थी,, 

उफ्फ!! कितना भयावह मंजर था वो  

आज न जाने कैसे वो भूली हुई दास्तां याद आ गई और मन कड़वाहट से भर गया,, उस समय बचपन था,, सोच उतनी विस्तृत नहीं थी पर तब भी उन लोगों पर तरस आया था कि जहाँ हमें खड़े होना दूभर हो रहा,, उसे ये लोग कैसे खायेंगे,, 

बहुत लोग ऐसे हैं इस दुनियाँ में, जिनके पास अकूत दौलत है,, या ऐसे भी है जो दूसरों की मदद करने लायक हैं फ़िर भी बच्चे ऐसा अन्न खाने को मजबूर हों, इससे बड़ा इंसानियत का अपमान क्या हो सकता है,, 

पर आज तो सिहर उठी,, कितने लोग हैं इस दुनियाँ में जिन्हें दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं है और अमीर लोग दूध का गिलास ले कर बच्चों के पीछे पीछे घूमते हैं और उनके भाव ही नहीं मिलते,, 

पेट की भूख हर भाव पर भारी होती है और उसे तृप्त करना मानव की प्राथमिकता बन जाती है,, उस समय एक बार भी यह विचार नहीं आता कि यह उनके स्वास्थ्य और जीवन के लिए कितना हानिकारक हो सकता है,,, 

प्रयास करें कि आपकी जानकारी में कोई भूखा न सो पाये,, जो कर सकते हैं, अवश्य करें 

#अपमान

कमलेश राणा

ग्वालियर

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