वस्तु नहीं हूं मैं – डॉ उर्मिला शर्मा

 नववधु कविता को ससुराल आए तीन-चार दिन ही हुए होंगे । मायके में सबसे छोटी व सबकी लाडली वह दुनियादारी ज्यादा कुछ वाकिफ न थी। किस्सों, कहानियों या चलचित्र की रंगीन सपनीली दुनिया सा ख्याल था उसका विवाहित जीवन को लेकर । मध्यम कद की, मध्यम रंग की छरहरी काया,  लंबे घने काले केश, भोली- भाली, मृदु स्मिति बिखेरतीं कविता आकर्षक व्यक्तित्व की स्वामिनी थी। प्रेम पाने व उससे कहीं ज्यादा लौटाने को तत्पर। पहली मंजिल पर उसका कमरा था। अब तक उसका नाश्ता-खाना कमरे में ही भिजवा दिया जाता था। दिनभर अकेली पड़े-पड़े उसे अब उब होने लगी थी । घर में  चारों तरफ से हंसी-ठिठोली या सरगर्मियों की आवाजें आती थीं। शायद ही उसके पास कमरे में कोई आता था। पति भी कमरे से अक्सर बाहर ही रहते थे । अब तक उसे समझने की कोई पहल न तो पति और न उसके ससुराल वालों के द्वारा की गयी।

                 नववधु से पहली बार रसोई में  खीर बनवायी जाती है । यह रस्म अबतक कविता से नहीं करायी गयी थी । कमरे में बैठी पत्रिकाओं के  पन्ने पलट रही थी  तभी पति की रूखी सी आवाज सुनाई पड़ी –

“यहाँ क्या बैठी रहती हो, जाओ जाकर भाभी के साथ काम करो”। 

कविता झट से  उठकर पति द्वारा निर्दिष्ट स्थान पर पहुंच गई । सब्जियां कट रही थीं। भाभी का पूरा मायका जुटा हुआ था । किसी ने उसपर ध्यान नहीं दिया या जानबूझ कर ध्यान नहीं दिया गया । संकोची स्वभाव की कविता असहज वहां खड़ी रही । 


                     वह चाहती थी कि पति के  साथ उसका ज्यादा वक्त गुजरे। वो उन्हें तथा उनके परिजनों को ज्यादा से ज्यादा समझने में उसकी मदद करें। लेकिन पति की ओर से ऐसी कोई संवेदनशीलता नहीं दिखाई गई । और न ही उसके ससुराल वालों के तरफ से । जिंदगी की गाड़ी चल पड़ी।आए दिन उसके बनाए खाने में  नुक्स निकला जाने लगा । पूरे दिन वह किचेन में लगी रहती ।

 हर बात में  उसकी  जेठानी से  तुलना कर उसे कमतरी का अहसास दिलाया जाता । ससुराल में  उसकी इतनी ही महत्ता थी कि वह काम करने वाली एक सदस्या थी। जबकि मायके में  उसे गृहकार्य का कोई विशेष अनुभव न था। गर्भधारण के लिए वह मानसिक रूप से परिपक्व नहीं थी लेकिन पति के दबाव के आगे हार माननी पड़ी । रात्रि में पति को डिनर कमरे में ही  करने की आदत थी जिसके लिए कविता भोजन और दूध कमरे में  लेकर पहुंचती  और बिठाकर खिलाती थी । पति खाते रहते और वह सामने बैठी रहती । ये प्रायः तीनों पहर  के भोजन के वक्त वह ऐसा ही करती थी। पूछ-पूछकर खिलाती थी ।

 इन दिनों गर्भावस्था के कारण कविता कमजोरी महसूस करने लगी थी । उसे हैरत होती थी कि उसकी सास पति के लिए कटोरा भर दूध तो देती लेकिन उसके लिए दूध की जरूरत न ही सास और न ही पति को महसूस हुआ । धीरे-धीरे वह और दुर्बल होती गई । उन दिनों गर्मी भी चरम पर थी। वह किचेन में काम करती और किचेन से सटे सास के कमरे में जाकर फर्श पर लेट जाती । पुनः थोड़ी देर बाद उठकर काम करने लगती। एक दिन उसने सास को पति से कहते हुए सुना-


“नरेन्द्र! यह काम नहीं करती है, जा उसे उसके मायके छोड़ आ।” 

यह सुनकर कविता को धक् से लगा । यह क्या मैं तो अपना उत्तम दे रही हूँ । फिर भी? उस दिन उसने मन ही मन एक प्रतिज्ञा की । उसने सोच लिया कि जब तक उसके हाथ और पैर चलते रहेंगे,  वह कामकाज करती रहेगी । हरसंभव पति एवं उनके परिजनों को खुश रखने की कोशिश करती  रहेगी ।

 किंतु उसके प्रति सभी संवेदनहीन ही रहे, पति भी । उसे लगता कि दिनभर के थकान के बाद पति उसके हाथ पर हाथ ही धर देते, तो वह सभी संवेदगात्मक हलचल से पार पा लेती। किंतु नहीं उसकी हर कोशिश लगातार असफल हो रही थी । छोटा बच्चा होने के बावजूद वह हर काम व्यवस्थित रखती । उसपर से दहशत यह कि पति को नाश्ता एकदम गर्म यानि जब वह न कर निकले तो चूल्हे पर तवा चढाकर परांठ बनाए जाएँ । एक दिन इसी क्रम में वह परांठा बना रही थी, तभी नन्ही परी जगकर रोने लगी । 

कविता ने सोचा कि दो परांठ और बनाने है, बना ही लेती हूँ । तब वह परी को संभाल लेगी, लेकिन परी बेतहाशा रोए जा रही थी। वह उसे गोद में उठाकर ले आयी और एक हाथ से पराठा पलटने लगी। तभी परी का बाल मन न जाने क्या सोचकर कुतुहल वश वह अपनी पूरी हथेली तवा पर दे मारी । ओह! परी दर्द से चीख पड़ी। कविता भी तड़प उठी। इन सबके बीच वह फटाफट पति को नाश्ता दे आई। लगभग दो घंटे तक रोते हुए परी सो गयी । 


हर परिश्रम और परेशानी अकेले सहते हुए कविता की यह लगातार कोशिश रहती थी कि पति उससे खुश रहें । उनके हर पसंद-नापसंद का ख्याल रखती लेकिन ये पति नामक ‘जीव’ कभी प्रसन्न ही न हुआ । घर पर होते तो ज्यादातर उससे दूर । जब कमरे में होते तो इस प्रकार जैसे कविता का वजूद उस कमरे में हो ही नहीं । मानो वह अदृश्य हो । जब खाना परोस कर पति के सामने बैठती खाना समाप्त होने तक वे उससे एक शब्द न बोलते थे। कविता कभी उनके चेहरे को तो कभी भोजन करते देखती रहती, इस प्रतीक्षा में कि कभी खाने की तारीफ ही कर दे। किंतु पति का व्यवहार निरंतर रूखा व हृहयहीन ही रहा।

 अंदर ही अंदर वह घुटती रहती । अवसाद की शिकार होने लगी । वह कुछ करना चाहती थी, आगे बढ़ना चाहती थी। परंतु प्रतिदिन की तनावपूर्ण परिस्थितियों से जूझते हुए कुछ कर पाने में स्वयं को असमर्थ पा रही थी । संभवतः उसके आकर्षक व्यक्तित्व के कारण पति हीनता से ग्रसित होकर उस पर जब- तब चारित्रिक लांछन भी लगाया करते थे । जो किसी भी स्त्री को प्रताड़ित व पराजित करने हेतु हमेशा से हथियार के रूप में प्रयुक्त होता है ।

            बीतते समय के साथ कविता धीरे-धीरे अवसाद का शिकार होने लगी । अकेले रहना उसे अच्छा लगता था । किसी से मिलना-जुलना रास नहीं आता । पति उसे अपमानित करने का एक अवसर न गंवाते । चाहे बात घर के नौकर को लेकर ही क्यों न हो, अपमानित उसे ही होना था। कविता को अपनी ही क्षमता पर विश्वास कम होने लगा । कुछ न कर पाने की टीस लगातार उसे साल रही थी ।


 पति की उपेक्षा से अलग आहत थी। वह उनका सानिध्य चाहती थी। लेकिन वे तो कमरे में होने के बावजूद उसे नजरअंदाज करते थे, मानो उसका वजूद अदृश्य ही हो। धीरे-धीरे उसमें झुंझलाहट भी भरने लगी। कभी वह प्यार से पति से कहती कि एक लडकी अपना मायके छोड़कर ससुराल आती है जहाँ पति के प्यार एवं सम्मान रूपी बल के सहारे अपना जीवन मधुर व सहज बनाती है । बात का इशारा समझते ही पति फाटक से कह उठते-

” तो कौन सा नायाब काम की हो। सभी लड़कियाॅ ऐसा करती हैं ।” 

अब वह कभी-कभी मुँह खोलकर अपनी इच्छा-अनिच्छा या अधिकार की मांग करने लगी थी । तब पति का व्यवहार हिंसक होने लगा । बात-बात में कह उठते-

” चली जाओ अपने …अभी से भी । रोका किसने है तुम्हें ?”

तब कविता मन ही मन सोचती कि प्राईवेट नौकरियों में भी कुछ सालों के सर्विस के बाद ‘कन्फर्मेशन’ मिल जाता है । लेकिन उसका ‘ कन्फर्मेशन’ कब होगा ?’ लगातार वह आश्वस्ति और असुरक्षा से गुजर रही थी । उनदोनों के बीच वाद-विवाद अब भयंकर रूप लेने लगा था। हफ्तों-महीनों वार्तालाप बंद रहता उनके बीच ।

 इस बीच उसे कोई भी शारीरिक परेशानी या तबियत खराब हो तो उसकी जानकारी किसी को न होती थी। बीमार होती तो रसोई में न जाती तो कोई उसे पूछने तक नहीं आता । वह नीचे जाकर खाना भी नहीं लेती अपने लिए । स्वयं को भूखा रखती । उसका स्वयं का मानना था कि अगर वह काम नहीं करेगी तो खाना भी नहीं खाएगी । फिर भी सास कहतीं-

 ” कमरे में पड़ी -पड़ी कुछ खा लेती होगी ।” 

ऐसे अवसर कई बार आए। उसने मन ही मन सोचा कि ऐसे तो वह स्वयं को पीड़ित कर रही है जिससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता । इनलोगों को सिर्फ उसके श्रम से मतलब है । उसका वजूद इतना ही है कि वह इनलोगों को लाभान्वित करती रहे। अपनी सेवा देती रहे। नहीं तो वह खाली सिलेंडर की तरह कोने में पड़ी रहे । उसने ठान लिया कि अब वह स्वयं को भूखा न रखेगी । अब और यंत्रणा नहीं देगी खुद को ।

          — डॉ उर्मिला शर्मा, हजारीबाग( झारखंड)।

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