Moral stories in hindi : पंकज ड्राइंग रूम के सोफे पर अधलेटे से थे, और सामने पड़े थे कुछ पेपर, और ड्राइंगरूम में ही लगभग
समवयस्क उनकी एक बहन और तीन भाई भी मौजूद थे।
बातचीत का एक दौर खत्म हो चुका था, और वहां सन्नाटा पसरा हुआ था। सभी की आंखों में आज से 24, 25 वर्ष पूर्व के द्रश्य आ जा रहे थे।
सामने मेज पर पड़ी थी उनके पिता बलदेव की वसीयत। बलदेव को वो चारों एक सख्त पिता के रूप में ही जानते थे। अनुशासन के बेहद पाबंद, कब, कैसे,कहाँ क्या काम होना है सब उनकी मर्जी से ही होता।
सम्पन्न घर का होने के बावजूद, उनकी हर मांग को पूरा नही कर दिया जाता, बहुत सोच विचार के बाद,थोड़ा मां की सिफारिश के बाद भी केवल वही मांग स्वीकार की जाती, जो उनके पिता की नज़रों में उचित होती।
अतीत चलचित्र की तरह नज़रों के आगे घूम रहा था। कितना रुष्ट रहा करते थे वो चारों अपने पिता से। उनके स्कूल के संगी साथी जब बाइक से,घड़ी और गॉगल्स लगा कर आते तो वो सब मन मसोस कर रह जाते।
कितनी अधूरी इच्छाएं, कितने ही अधूरे सपने जैसा बीता था उनका बचपन। बहुधा उनके मन मे उनके पिता की छवि जल्लाद की ही रही।
समय उड़ गया, और नौकरी, शादी के बाद अब वो सब खुद बच्चों वाले थे, किसी के एक, किसी के दो।पिता की मृत्यु के बाद, उनकी संपत्ति के बंटवारे की जब नौबत आई तब पुनः एक वकील ने आकर, एक रजिस्टर्ड वसीयत दिखाकर उनके सपनों के उस महल को धराशायी कर दिया, जो उन्होंने बनाया था।
मकान पत्नी के नाम करके जा चुके थे बलदेव जी,और बैंक बैलेंस? एक हिस्सा तो पत्नी के साथ संयुक्त खाते के रूप में था ही। बाकी संपत्ति के लिए, उन्होंने कुछ शर्तों के साथ, पत्नी और नजदीकी रिश्तेदारों का एक ट्रस्ट बना दिया था। उनकी सारी संपत्ति उस ट्रस्ट की देख-रेख में रहने वाली थी। उनकी संपत्ति से उनके चारों बच्चों को ये अधिकार दिया गया था कि कभी भी वे अपनी किसी भी आवश्यकता के लिए उनकी संपत्ति से समयबद्ध कर्ज़ ले सकते थे।
पर उन्हें अपने कर्ज़ चुकाने की क्षमता ट्रस्ट के सदस्यों के सम्मुख पेश करनी होगी, उसी आधार पर उनके लोन की क़िस्त बांध दी जाएगी। हां, एक अच्छाई भी थी इस कर्ज़ में कि उसे ब्याज रहित और अधिकतम 10 वर्षों के लिए रखा गया था।
ये वसीयत सुन सभी के मन में पिता के लिए नफरत जैसे भाव सर उठाने लगे थे। उन्हें नही चाहिए पिता की संपत्ति या कर्ज़,वो खुद सक्षम हैं अपने परिवार का भरण पोषण करने में।
इस वसीयत का ये परिणाम हुआ था कि सभी बच्चे अपने पिता से उलट एक उदार माता -पिता के रूप में अपनी संतानों के समक्ष थे। बच्चों के मुँह से कुछ निकला नही कि सब उसको पूरा करने को तत्पर।
उधर माँ ने घर छोड़ कर जाने से इनकार कर दिया,वो अकेली रह लेंगी, जब भी जी ऊबेगा बारी-बारी से सभी बच्चों के पास आती जाती रहेंगी।
धीरे-धीरे उनके अपने बच्चे भी बड़े हो चुके थे, और उनकी मांगें भी बड़ी हो रही थीं। किसी को विदेश से एम.बी.ए करना था, तो किसी को इंजीनियरिंग तो कोई लॉ पढ़ने को उद्यत।।
पर भारतीय शिक्षा को उन्होंने निम्न स्तर की श्रेणी बता दिया था। पर किसी बाहरी देश मे पढ़ने का अर्थ
सभी बाखूबी समझते थे। वहां पढ़ने का खर्च?
जब भारत मे ही किसी व्यावसायिक कोर्स का खर्च तीस , चालीस लाख था तो विदेश के अच्छे कॉलेज से पढ़ाने के खर्च का अनुमान सहजता से लगाया जा सकता था।
आदतें उन्होंने ही खराब की थीं। बैंक से लोन पता करने गए तो होश फ़ाख्ता हो गए, 35, 40, हजार की मासिक किश्त, जो ब्याज था, मूल ज्यों का त्यों,मतलब ऐसा भंवर या गड्ढा, जिसमे गिरने के बाद निकल पाना संभव न था।
ऐसे में ही ध्यान आया पिता के बनाये ट्रस्ट का, जिसकी एक ट्रस्टी मां भी थी। संकोच के साथ माँ को संपर्क किया।
ब्याज रहित किश्तें 20 हजार मासिक, 10 वर्ष का समय। उनके कागज आदि चेक करके उन्हें ट्रस्ट से लोन मिल चुका था।
पहली बार उनके मस्तिष्क में पिता की दूरदर्शिता और उनका मितव्ययी होने का उद्देश्य स्पष्ट हुआ। और मन के किसी कोने में जगी थी एक दबी हुई प्रशंसा और श्रद्धा। एक से दूसरे भाई और बहन तक ये खबर पहुंच चुकी थी।
सभी के घरों का वही आलम था। शिक्षा का स्तर ऐसा हो चुका था ,कोई भी प्रोफ़ेशनल पढ़ाई, उनके उच्च मध्यम वर्ग में कर्ज़ के बिना संभव न थी।
आज पिता के द्वारा उठाये गए हर कदम का मतलब समझ आ रहा था। “जाके पैर न फटे बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई”।
सब पिता के घर मे एकत्र हुए थे, इस बार प्रशंसा दबी ढकी न थी। सबके गालों पर अश्रुओं के रूप में बह आई थी।पिताजी की एक बड़ी सी तस्वीर पर चढ़ी थी पुष्पमाला, माँ की भी आंखे छलक आई थी, और पिताजी तस्वीर में मुस्कुरा रहे थे।
वसीयत की चार कॉपियां बन चुकी थी और सब बच्चे उन्हें सुरक्षित कर चुके थे अपने पास, अपनी वसीयत तैयार करने हेतु।
रश्मि सहाय
ग्रेटर नोएडा
मौलिक
S plus M
माँ बाप बच्चों के लिये और बच्चों के भविष्य के लिये सदा अच्छा सोचते हैं, परंतु बच्चे अपने माँ बाप को बेवकूफ समझते हैं। समय आने पर बच्चों को समझ आती माँ बाप की समझदारी का अहसास होता है!
Absolutely