वर्षगांठ – अरुण कुमार अविनाश

शादी की वर्षगांठ थी।

ऑफिस जाने के लिये तैयार हो रहा था – मोहिनी किचन से मेरा लंच बॉक्स ले कर आयी और मेरी टाई की नॉट ठीक करने लगी।

मैंने धीरे से उसे अपने आलिंगन में भर लिया और अनुरागपूर्ण स्वर में बोला – ” शादी की सालगिरह मुबारक हो – मेरी जान।”

” आपको भी।”– वह अपनी कान मेरे ह्रदय पर रखकर ह्रदय की धड़कन महसूस करती हुई बोली।

” बोलो – तोहफे में क्या दूँ ?”

” बस , अब और नहीं ।” – वह मेरे आलिंगन से फिसल कर निकलती हुई बोली – ” तोहफे को पालेगा कौंन ?”

मैं सकपकाया – जब उसकी बातों का मर्म समझा तो कुढ़ कर बोला –” मुझें प्रिंटिंग प्रेस समझ लिया है क्या ? – जो हर साल नया कलेन्डर ! मैं तो सिर्फ ये जानना चाहता हूँ कि शाम को – जब मैं ऑफिस से लौटूं तो तुम्हारें लिये तोहफे में क्या लाऊँ ?”

” रहे गावदी के गावदी ही – आप चार दिन पहले पेट्स मार्केट में कुत्ते का पिल्ला पसन्द कर रहें थे – मैं समझी कि पिल्ला लाना है – जर्मन शेफर्ड या पामेलियन।”

ऑफिस में पहुँच कर मैं सिस्टम लॉग इन ही कर रहा था कि सासू माँ का फोन आ गया – ज़रूर माता जी सोच रही होंगी कि शादी की सालगिरह है –TV सीरियल या सिनेमा से शिक्षित नयी पीढ़ी के लोगों की तरह – मैं भी काम से छुट्टी ले कर ऐनिवर्सरी एन्जॉय कर रहा होऊँगा।

माताजी को कैसे बताऊँ कि एन्जॉय जैसे चोचले तब तक अच्छें लगते है – जब तक कि जिम्मेदारियों का जुआ कंधे पर नहीं रखा जाता  – शादी के पहले दो-चार साल तक तो हमनें भी उत्साह दिखाया था – बाद में, पत्नी ही रिक्वेस्ट करने लगी कि जितना पैसा रेस्ट्रोरेंट में पार्टी देने में खर्च करोगे – उतने में घर में कोई चीज़ आ जायेगी – थोड़ा कड़वाहट भरा अनुभव भी था – सालगिरह पार्टी की मरकज़ दम्पत्ति – स्टेज पर लोगों की बधाईया ही बटोर रहें होते है कि ननद आ कर कहती है कि बेबी ने पोटी कर दी – बुआजी खुद सजी-धजी है वो कैसे पोटी धुलवाये – स्टेज पर बैठी पार्टी की रौनक – जो सोलहों श्रृंगार करके शादी के जोड़े जैसा भारी लिबास पहनी हुई हो – वह भी कैसे धुलवाये ?– झक मार कर पति महोदय कोट उतार कर कमीज की आस्तीन मोड़ते हुए जाते है और निहायत ही बदमज़ा जिम्मेदारी निभातें है। पति जिसका मूड दो पेग के बाद भी ठीक नहीं होता – कसम खाता है कि अगली बार से इस तरह की पार्टी अरेंज ही नहीं करेगा – अगर करेगा भी तो बच्चों के बड़े और समझदार होने के बाद।

पिता भूल जाता है कि यही पुत्र जो आज अपनी पोटी धो पाने में असमर्थ है – जब बड़ा हो कर समर्थवान हो जाता है तो पिता भजता फिरता है कि मेरा बेटा – मेरा बेटा।


बहरहाल, सासु माँ ने आशीष दिया –  ” सालगिरह की बहुत-बहुत बधाई

।”

” धन्यवाद।”

” मोहनी कहाँ है ? उसको फोन दीजिये।”

” मम्मी जी , मोहनी घर पर है और मैं ऑफिस में ड्यूटी पर हूँ।”

“ओह !”

इकलौती छोटी साली जो सासू माँ के करीब खड़ी थी – माँ से फोन लेकर अंग्रेज़न बनती हुई बोली –” जीजाजी, मैनी-मैनी रिटर्नस ऑफ द डे।”

” जी शुक्रिया, काश ! ये दिन साल में बारह बार आये।”

” क्या मतलब! आप चाहतें क्या है – आपका इरादा क्या है ?”– साली का शोख स्वर।

मैंने बात को सम्भाला – बोला – ” तारीख और महीनें से क्यों – सिर्फ तारीख से मनाया जाये तो साल में बारह बार मनाया जा सकता है – साल में पच्चीस तारीख बारह बार आता है।” – दरअसल मेरी शादी पच्चीस मई को हुई थी।

” जीजा जी साल गिरह मनाया जाता है – महीना गिरह नहीं – और हॉ , आज एक दिन तो आपसे छुट्टी ली नहीं गयी – हर महीनें कैसे छुट्टी ले पातें !”

” छुट्टी की क्या जरूरत है ? सालगिरह शाम को मनानी है – शाम को घर पहुँच ही जाऊँगा मैं।”

” घर में होतें तो दीदी के साथ मंदिर जातें – कही और भी घूमने चले जाते – दीदी को भी अच्छा लगता।”


” यानी साल में बारह बार सिर्फ इसलियें छुट्टी लूँ ताकि तुम्हारी दीदी को लगे कि वह मेरी पत्नी है और मैं उसका पति।”

” ये बारह का पहाड़ा तो आप भूल ही जाइये – शुक्र मनाइये अपनी सरकारी नोकरी का – वरना, जैसी शक्ल- सूरत है आपकी – आप अब भी कुँवारे होतें।”

” क्यों भई, जिसकी नोकरी नहीं होती – सरकारी नोकरी नहीं होती – क्या उसकी शादी नहीं होती ?”

” होती है न , पर लगता है आपने मेरी पूरी बात नहीं सुनी – आपकी जैसी शक्ल – सूरत है—।” – फिर वह जोर से हँसी और इससे पहले कि प्रतिउत्तर में मैं कुछ कहता उधर से फोन काट दिया गया – मैंने फोन लगाया तो फोन व्यस्त था – ज़रूर माँ-बेटी ने मोहिनी को फोन लगाया होगा।

साली की बात पर मैं सोच में डूब गया – सच ही तो कहती है वह कि – नोकरी मिलने से पहले – औकात बनने से पहले – क्या किसी नाज़नीन ने अनुरागपूर्ण नज़रों से हमारी तरफ देखा भी था या नहीं – बड़ा ही सरल जबाब था – नहीं – नहीं – नहीं ।

खुद मैंने भी किसी लड़की की ओर कहाँ देखा था।

ज़माने भर के किस्से-कहानियां लिखा भी और पढा भी पर किसी दोशीज़ा को एक प्रेम-पत्र लिख न सका – किसी दोशीज़ा का भेजा प्रेम-पत्र पढ़ नहीं सका।

इसे खुद के करेक्टर की बुलन्दी समझूँ या फूटी तक़दीर का फंसाना।

खैर , मैंने मोबाइल बन्द किया और ईमानदारी से – अपनी ही कही बातों और अपनी नियत के विषय में सोचा।

भला ये भी कोई बात हुई कि एक ही पत्नी के साथ – शादी की पचास सालगिरह मनायी जाये या अंग्रेजों की तरह पचास पत्नियों के संग एक-एक सालगिरह।

पचास अतिश्योक्ति लग रही हो तो पच्चीस कर लेते है –बीस कर लेते है – ये भी ज़्यादा लग रहा हो तो और कम कर लेते है – साल के चार मौसम की तरह – चार , सर्दी गर्मी बसन्त और बरसात।

शाम हुई ।

ऑफिस से निकला तो जेहन में कुछ प्रश्न था – दस्तूर के मुताबिक कोई न कोई तोहफा लेना लाज़मी था – लूँ तो – क्या लूँ ?

पिछले साल जब इसी सवाल से जूझ रहा था तब एक कलिग से मशवरा किया था – वह यंग था – स्मार्ट था –नये जमाने से ताल्लुक रखता था – बोला – ” आप तोहफे में भले ही कुछ भी ले जायें पर एक गुलाब ज़रूर ले जाना – फिर देखना भाभी जी कितना खुश होतीं है।”

गिफ्ट समझ नहीं आया तो उसी गिफ्ट सेंटर से एक आर्टिफिशियल गुलाब लेकर घर पहुँचा ।

मोहिनी रसोई में थी।

रसोई में पहुँच कर गुलाब पेश किया ।

उसकी खुशी आज भी मेरे जेहन में दर्ज है – खुशी से बल्लियों उछल रही थी – चेहरे पर हया की लालिमा आ कर गुज़र गयी थी – और आँखें अप्रत्याशित खुशी से प्रदीप्त थी।

” मेरे लिये लायें है !”– मेरे सीने में मुँह छुपा कर सरगोशियों में पूछी।

” नहीं, दुकान से एक दर्जन खरीद कर लाया था – रास्ते में जितनी भी खूबसूरत महिलायें दिखी – सबको एक-एक देता गया – बड़ी मुश्किल से एक तुम्हारें लिये बचा पाया हूँ।

उस नकली गुलाब की असली खुमारी – मैंने महीनों तक मोहिनी के मुख पर देखा था।

पति प्रेम करता है इससे ज़्यादा खुशी उसे और किस चीज़ में मिलती।

आज भी वो गुलाब मेरे शयन कक्ष के गुलदान में है – मुर्झा वो सकता नहीं और मोहनी धूल उस पर टिकने देती नहीं।

स्कूटर स्टार्ट करते समय मैंने सोचा कि क्यों न इस बार फिर गुलाब ही ले लिया जाये – फिर सोचा  – नहीं, रिपीट होगा तो पहले वाली बानगी नहीं रहेगी – अब जो भी लेना होगा वहीं गिफ्ट शॉप पर देखकर तय करूँगा।

बर्थ ड़े – मैरेज ड़े – फादर्स ड़े – मदर्स डे – फलाना ड़े – चिलाना ड़े –आजकल तो अंग्रेज़ों की देखा-देखी ब्रदर्स और सिस्टर ड़े भी मनायी जाने लगी है – जैसे हम भारतीयों के लिये राखी का त्योहार अपर्याप्त था।


ये सारे के सारे चोंचले व्यपार के लिये है – बेकरी वाले का केक बिक गया – रेस्ट्रोरेंट में इतनी भीड़ हो गयी कि खाली टेबल के इंतजार में – पेट में दौड़ते चूहों को समझाना पड़ता है कि – ठंड रख ठंड – गैर-ज़रूरी आईटम जो सिर्फ आकर्षक होने के कारण बिकता है – गिफ्ट शॉप्स पर भरे पड़े है –जिनका कारोबार भी अच्छा-खासा है – कोई न कोई ग्राहक वहाँ मौजूद होता ही है –दुकानदार की कमाई इतनी है कि बच्चों को नकली कार बेचता-बेचता – खुद घर से दुकान और दुकान से घर – असली कार से आता-जाता है।

दम्पत्ति अगर धार्मिक प्रवृति के हो तो धार्मिक स्थल की ओर जाते है – घुमने-फिरने के शौकीन हो तो किसी मनोरम पिकनिक स्पॉट पर और मनोवृत्ति अगर विलासी हो तो बार एंड रेस्ट्रोरेंट।

कहने को तो इस तरह के खर्चो के बाद आनन्द भी आता है पर आनन्द की परिभाषा ही अलग है – कोई पेड़ की छाहँ में सुखी रोटी चबा कर ठंडा पानी पी कर तृप्ति की डकार ले सकता है और किसी को राज़ भवन के छप्पन भोग भी सन्तुष्ट नहीं कर सकते।

गिफ्ट शॉप पहुँचा – खासी भीड़ लगी हुई थी – शाम का वक़्त था – मेरी तरह और भी लोग काम से फुर्सत पा कर गिफ्ट खरीदने आये थे – हज़ारों चीज़ों में से कोई एक नग छांटना – पसन्द करना इतना आसान भी नहीं है – आज समझ आया कि पत्नियां साड़ी की पूरी दुकान क्यों पलटवा देती है – किसी गैर को देना होता तो बात सिर्फ आकर्षक और बजट देखने की होती – यहाँ बात बजट की ही नहीं – ज़रूरत और पसन्द की भी थी – आखिर खुद की पत्नी के लिये खरीदना था – फिल्मों और TV सीरियलों में तो ज़ुकाम ठीक होने पर भी लाखों के जड़ाऊ हार तोहफे में दिये जाते है – आम मध्यमवर्गीय परिवारों में – दूल्हा दुल्हन को सुहागरात पर मुँह दिखाई के समय सोने को अंगूठी या सोने की चैन भेंट करता है – हमनें रईसी देखी नहीं इसलियें रईसों के घर का हाल हमें मालूम नहीं।

कई बार पत्नी से उसकी सहेलियां पूछ लेती है कि तोहफे में क्या मिला – पत्नी समझदार है – मुझें ज़लील नहीं करती – झूठ बोलने की आदत नहीं है और हौसला भी नहीं है – झट से सहेलियां दिखाओं-दिखाओं कहेंगी – जो दूर रहती है वो व्हाट्सएप पर उपहार की तस्वीर मांगेगी – इसलियें पत्नी मेरा मान रखती है – स्पष्ट कहती है –”मेरे लिये तो ये ही तोहफा है।”

एक मध्यमवर्गीय प्राणी कर क्या पाता है ? – कोई ड्रेस खरीद देता है – घड़ी जूतियां दिलवा देता है – शाम को पत्नी को वर्षगांठ का अहसास हो – इसलियें किचन से मुक्ति देकर फुल टाइम मेकअप के लिये – साज़ श्रृंगार के लिये – छोड़ देता है – पत्नी जब श्रृंगार दान खोलती है तो पता चलता है कि नेलपॉलिश  सुख चुका है – लिपस्टिक और काजल पिघल कर बहने लगा है – फाउन्डेशन बिखर चुका है – लाइनर मिल ही नहीं रहा है – बेचारी जैसे-तैसे तैयार होती है तो – पता चलता है कि ब्लाउज़ टाइट हो रहा है – अगर नये कपड़े है तो आज पहनने में कुछ अटपटा-सा लग रहा है – शाम का खाना किसी रेस्ट्रोरेंट में सपरिवार या कुछ घनिष्ठ मित्रों के साथ – अगले दिन शिकायत कि खाना हज़म नहीं हुआ – खाना खराब था।

श्रृंगार दान भी क्या करता – बेचारा खास-खास मौकें पर साल में दो-चार बार खोला जाता है – गृहणियां घर परिवार पति बच्चों पर ध्यान दे या श्रृंगार दान की देखभाल करें। बेचारी की ख्वाहिश थी कि बिजलियां गिरायेंगी– श्रृंगार दान की हालत देख कर खुद पर बिजली गिर पड़ी।

आम आदमी की ज़िंदगी की जरूरतें इतनी है कि ज़रूरतें शौक मारने के लिये मजबूर करती है – दस-बीस हज़ार भी खर्च कर दिया तो पूरे महीनें उस दावत का खुमारी तो रहती नहीं – हाँ, जेब ज़रूर तंग रहता है।

अगर पति-पत्नी दोनों कमा रहें हो तो बात जुदा है – अकेली आमदनी वाले परिवार में यही होता है कि – सबसे पहले खाना – उसके बाद औषधि – फिर शिक्षा – उसके बाद समाजिक सरोकार – शौक की वस्तुएं।

घर में कोई कितना भी बीमार क्यों न हो –पहले भोजन की व्यवस्था करनी ही होगी – स्कूल की फीस भरने के लिये – बीमार को बिना इलाज के नहीं छोड़ा जा सकता और स्कूल की फीस के पैसे से मनाली नहीं घुमा जा सकता। हर खर्च की अपनी प्राथमिकता होती है जो क्रमानुसार ही करना पड़ता है।

देर तक गिफ्ट शॉप पर नज़र भटकाने के बाद भी जब कुछ न सुझा तो एक लेडीज़ परफ्यूम की बोतल ली गिफ्ट पैक करवाया और घर पहुँचा ।

पत्नी आज भी किचन में थी – सजी-धजी सी  फूल मेकअप में – मुझें ड्राइंग रूम में आते देख वह मेरे करीब आ गयी – स्वागतातुर मुस्कान के साथ पूछी – ” आने में देर कैसे हो गयी ?”

” तुम्हारें लिये गिफ्ट लेने लगा था ।”– मैं हैलमेट और ऑफिस बैग उसे देता हुआ बोला।

” कहाँ है गिफ्ट ?” –बिल्कुल बच्चों जैसी मासूमियत और आतुरता।

” बैग में है ।” – कह कर मैं एक कुर्सी पर बैठा और जुराब उतारने लगा।

इतनी ही देर में मोहिनी बैग से परफ़्यूम की बोतल निकाल कर उसे गिफ्ट रैपर से भी मुक्त कर चुकी थी – पसंदीदा परफ़्यूम की बड़ी बोतल पा कर उसके कंठ से खुशी की अतिरेक में ‘ वाऊ ‘ निकला – अपने कपड़ों पर स्प्रे की – फिर एकदम से भावनाओं में बह कर पहले मेरे गाल पर एक चुम्बन अंकित की फिर मेरे चेहरे को अपने वक्ष में भिंच ली ।


मुझें मेरा दम घुटता हुआ सा लगा।

” क्या हो रहा है यहाँ ।”

पीछे से आ रही आवाज़ ने हमें चौकाया – मोहिनी ने मुझें बंधन मुक्त किया और शरमा कर किचन की ओर भाग गयी।

” जीजाजी ।” – उसी आवाज़ ने पुनः कहा – “आप अभी ऐसे ही बैठें –मैं मोबाइल लाती हूँ –एक फोटो निकालनी है आपकी।”

” निकाल लेना , पहले नहा-धो कर फ्रेश तो हो लूँ।”

” नहा लेंगें तो बात ही खत्म हो जायेगी।”

” क्या मतलब!”

” जा कर मिरर में देखिये ।” – वह मुस्कुरायी।

मैंने वाश बेशिन के पास लगे आईने में अपना चेहरा देखा – लिपस्टिक से मोहनी ने मेरे गाल पर अपने होंठो का माप दे दिया था। निशान चमक रहें थे और चित्ताकर्षक लग रहें थे।

मैं उस निशान को अभी और देखता पर अंदर के कमरे से सासू-माँ को आते देख – मैं जल्दी से अपना गाल साफ करने लगा।

सास और साली से सुबह जब मोहिनी की बात हुई थी तभी तीनों ने शाम का प्रोग्राम तय कर लिया था।

रेस्ट्रोरेंट में मोहिनी ने सारा इंतज़ाम करवा रखा था – जहाँ केक से लेकर डिजर्ट तक सभी कुछ रेस्ट्रोरेंट वाले अरेंज करतें थे – हमें सिर्फ मेहमान और मोटी रकम ले कर जाना था।

मेहमानों को निमंत्रण मोहिनी ने पहले ही दे रखा था।

                                           

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