सुरेशजी के निधन के बाद केतकीजी काफी अकेली पड़ गई थीं। बिटिया महिमा शादी के बाद पुणे सेटल हो गई थी और बेटा माहिम पिता के कारोबार में व्यस्त था।
केतकीजी ने कुछ स्वयंसेवी संगठनों की सदस्यता ग्रहण कर ली ताकि मन लगा रहे। वहीं उनकी मुलाकात तपी से हुई जो निरक्षर बच्चों के लिए काम करती थी।
अपने सहज स्वभाव और सरल व्यवहार की वजह से तपी, केतकीजी के मन को भा गई। देखने में भी अच्छी थी और शिक्षिता भी। केतकीजी,तपी में अपनी बहू देखने लगीं। उन्होंने माहिम से बात की तो कुछ नानुकुर के बाद माहिम ने हाँ कर दी।
अब सिर्फ तपी और उसके माता-पिता से बात करनी थी तो महिमा ने केतकीजी को सुझाव दिया कि तपी और उसके परिवार को डिनर पर आमंत्रित किया जाए और इस तरह अपने मन की बात बताई जाए।
तपी तो केतकीजी से प्रभावित थी ही पर माहिम का व्यक्तित्व और आर्थिक स्थिति से तपी के माता-पिता भी प्रभावित हुए और उन्होंने इस रिश्ते के लिए हाँ कर दी। एक महीने के भीतर ही तपी, माहिम की दुल्हन बन कर केतकीजी के घर आ गई।
जल्दी ही तपी ने महसूस किया कि सब कुछ होते हुए भी माँ उदास रहती हैं। तब महिमा ने उसे बताया कि पापा के जाने के बाद माँ ने अपने मन को मार लिया है। तपी ने कहा,”ये तो गलत है,माँ को मन भरकर जीना चाहिए। अच्छे से अच्छा पहनना-ओढ़ना,खाना-पीना चाहिए। माँ को उदास देखकर तो पापा भी उदास होंगे।”
“हाँ,यही तो हम भी कहते हैं पर माँ मानती ही नहीं।””तुम कोशिश करके देखो,शायद कुछ बात बन जाए,” महिमा ने उदास होकर कहा।
तपी समझ गई कि इस चीज को कैसे हैंडल करना है! तपी ने माहिम से कहा कि आज से आप जब भी मेरे लिए कुछ उपहार लाओगे तो माँ के लिए भी लाना वरना मैं गिफ्ट एक्सेप्ट नहीं करूँगी।माहिम तपी की मंशा समझ गया।उसकी आँखों में कृतज्ञता के भाव उभर आए।
अब माहिम जब भी कोई उपहार लाता तो तपी उन्हें माँ के कमरे में रख देती कि माँ,साथ में इस्तेमाल करेंगे।पहले तो केतकीजी कुछ समझी नहीं। फिर लगभग मिलती-जुलती दो चीजें देख कर सब समझ गईं। काफी समय तक जब ये सिलसिला चलता रहा तो उन्होंने तपी के कान खींचते हुए कहा,” क्यों री,मेरे बेटे का कितना खर्च कराएगी,बंद कर मेरे लिए उपहार मँगाना।”
तपी हँसते हुए बोली,”नहीं माँ,ये तो न होगा। गिफ्ट तो दो ही आएँगे पर अगर आप चाहती हो कि ये सिलसिला कम हो जाए तो आप को मेरी एक बात माननी होगी।”
“अच्छा, बता दे महारानी,क्या करना होगा मुझे!” केतकीजी ने पूछा। उन दोनों की बहस देख कर माहिम हँसते हँसते पागल हो गया।
“माँ,मैं चाहती हूँ कि माहिम के साथ सिर्फ मैं ही बाहर न जाऊँ। एक बार मैं,एक बार आप”तपी ने गंभीर होकर कहा।
“क्यों? तीनों साथ क्यों नहीं?” माहिम ने पूछा।
“वैसे भी जाएँगे पर आप माँ के साथ अकेले भी जाना जैसे मेरे साथ जाते हैं। मैं दाल भात में मूसलचंद नहीं बनना चाहती।” तपी हँसते हुए बोली।
“देखोजी! ऐसी बहू होगी किसी की जो अपनी सास को अपना पति ही उपहार में सौंप दे।” केतकीजी ने तपी को गले लगाते हुए कहा।माहिम, तपी और केतकीजी की आँखों में आँसू थे और सुरेशजी तस्वीर में मुस्कुरा रहे थे।
(ऋतु अग्रवाल)