कुछ देर तक दोनों एक दूसरे को देखते रह गये ।मुकुल की खुद की ऑखें भी नम हो आईं। शायद दक्षिणा को मुकुल के इस तरह आने से खुशी हुई थी लेकिन ऊपर से डाॅटा – ” आप ••••• आपको क्या जरूरत थी आने की ?मैंने मना किया था ना आने को। घर वालों को पसंद नहीं आएगा।”
” मत आने दो। मना किया था तो क्या हुआ ? भाड़ में जायें सब लोग। किसी की उंगली भी गर्म हो जाती है तो तुम्हारी जान निकल जाती है और उन लोगों को शर्म नहीं आई कि तुम्हें इस स्थिति में छोड़कर चली गये। दरिंदे हैं सब और किसी को क्या कहा जाये जब तुम्हारे पति को तुम्हारी तकलीफ समझ में नहीं आई।”
” उन्हें अगर समझ में आई होती तो किसी की भी मुझे आधी बात कहने की हिम्मत न होती। वह लोग तो मेरे पीछे पड़े थे चलने के लिये। कह रहे थे कि कार से तो चलना है, वहाॅ चलकर आराम कर लेना। मामा लोग बुरा मानेंगे लेकिन मैंने न जाने की जिद पकड़ ली तो सभी नाराज होकर चले गये।”
मुकुल की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या कहें ?वह वहीं उसी दीवान पर बैठ गया इस पर दक्षिणा लेटी थी – ” सास तो कह रही थीं कि खास चोट नहीं है, फालतू की नखरेबाजी है। अभी अपने मायके में शादी होती तो पैर टूट भी जाता तो चली जाती । न जाने के बहाने हैं सब। अच्छा हुआ सब चले गये नहीं तो जिंदगी भर ताने सुनाते कि तुम्हारे कारण शादी में नहीं जा पाये।”
दक्षिणा फूट-फूट कर रोने लगी। मुकुल को कोई उपाय न सूझा तो वह दक्षिणा का हाथ अपने हाथ में लेकर धीरे-धीरे सहलाने लगा। शायद उसके हृदय को कुछ सान्त्वना मिल जाये।
मुकुल का इतना प्यार व अपनत्व पाकर वह अपने को सम्हाल नहीं पाई जैसे उसके अन्दर कोई बहुत बड़ा विस्फोट हो गया हो। मुकुल की गोद में सिर रखकर वह अपनी दोनों बॉहें उसकी कमर में डालकर लिपट गई। मुकुल की समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे उसे चुप कराये? चोट की पीड़ा से अधिक अपमान और उपेक्षा की वेदना ने उसे झकझोर कर रख दिया था।
” बस! दक्षिणा •••••।” दक्षिणा को उठाकर अपने अंक में समेट लिया उसने। उसका सिर अपने सीने से लगाकर उसके कॉपते बदन को शीशे की गुड़िया की तरह सहलाने लगा लेकिन दक्षिणा जैसे सब कुछ भूल चुकी थी, वह और बुरी तरह बिलखने लगी।
उसे सम्हालने का हर प्रयत्न मुकुल को दक्षिणा से और अधिक मजबूती से जोड़ता जा रहा था। दक्षिणा के क्रन्दन ने तेज बहती नदी की तरह सारे बॉध, सारी सीमायें तोड़कर सब कुछ बहा दिया।
उस क्षण वह अहिल्या को, बच्चों को, पद – प्रतिष्ठा, मान – मर्यादा, पाप – पुण्य, समाज सब कुछ भूल गया। उसके जलते अधर दक्षिणा के रोम रोम का स्पर्श करने लगे जैसे एक मदहोशी भरी बेहोशी ने दोनों को अपने मकड़जाल में कैद करके एक तिलस्मी लोक में पहुॅचा दिया।
उस क्षण वे दोनों मुकुल और दक्षिणा न रहकर ऐसी नदी और सागर बन गये जो सारे बन्धन तोड़कर उमड़ती घुमड़ती अपनी ओर भागकर आती सविता को खुद आगे बढ़कर अपने आलिंगन में समा लेता है । उस क्षण अचानक पता नहीं क्या हुआ कि हृदय से हृदय तक पहुॅचने वाली सान्त्वना और संवेदना के शब्द देह की भाषा बन गये । कब वे दोनों मुकुल और दक्षिणा न रहकर मात्र ऐसे स्त्री और पुरुष रह गये जो अपना
सम्पूर्ण अस्तित्व पिघलाकर एक दूसरे में समा गये। उस समय वे ऐसे शरीर थे जो अपने शरीर और हृदय का एक-एक बूॅद निचोड़कर एक दूसरे में समाहित करने के साथ ही एक दूसरे के भीतर का सारा का सारा अमृत अपने अन्दर आत्मसात करके पूरी तरह सोख लेना चाह रहे थे।
एक तूफान और जलजला आया और सारे आचार, विचार, सामाजिक दायित्व तिनके की तरह बिखर गये। एक सैलाब आया और बहा ले गया मुकुल और दक्षिणा के सम्बन्धों की पवित्रता को। एक बवंडर उठा और बहुत कुछ नष्ट हो गया।
जब तूफान थमा तो वह हो चुका था जो नहीं होना चाहिये था। ज्वार उतरा तो दोनों एक दूसरे से नजरें नहीं मिला पा रहे थे। समझ नहीं आ रहा था कि अचानक यह क्या हो गया? इस अनहोनी का उत्तरदाई कौन है – वे दोनों या परिस्थितियॉ। भूत, भविष्य और वर्तमान खण्ड – खण्ड हुये सामने पड़े थे और वे दोनों सूनी ऑखों से उन्हें देख रहे थे बिना एक शब्द बोले। मुकुल ने एक बार दक्षिणा की ओर देखा तो वहॉ वीरानी का सन्नाटापन देखकर डर से कॉप गया। चुपचाप वैसे ही उठकर चला आया।
उसका सिर दर्द से फटा जा रहा था। अहिल्या से सिर दर्द को कहकर न कुछ खाया और न कुछ पिया। पूरी रात तड़पता रहा। एक पल के लिए भी दक्षिणा का चेहरा ऑखों से हट नहीं रहा था। अब क्या होगा? इतनी बड़ी गलती कैसे हो गई ? जैसे किसी अज्ञात प्रेरणा के वशीभूत हो गये थे वे दोनों। जब वह इतना परेशान है तो दक्षिणा कैसे सह पायेगी?
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उपहार (भाग-10) – बीना शुक्ला अवस्थी : Moral stories in hindi
बीना शुक्ला अवस्थी, कानपुर