” दक्षिणा, बहुत दिन मायके में रह चुकी हो, अब यहॉ रहने की आवश्यकता नहीं है। अपने घर चलो।” यह दक्षिणा के पति थे जो अपने तीन महीने के बेटे को देखने पहली बार आये थे।
करीब एक वर्ष बाद दक्षिणा आज उस व्यक्ति को देख रही थी जिसके साथ उसने प्यार और अनुराग से भरपूर सफल दाम्पत्य के सपने देखे थे। शायद वह भूल गये कि परिवर्तन के लिये एक क्षण बहुत होता है, फिर अब तो एक वर्ष बीत गया है।
” दक्षिणा, अब तुम पूर्ण स्वस्थ हो, सबने तुम्हें लेकर आने के लिये कहा है। बोलो, कब चलोगी? तुम तैयारी कर लो, मैं दो – तीन दिन रुक जाता हूॅ। साथ लेकर ही जाऊॅगा।”
इतनी देर तक दक्षिणा केवल अपने पति को देखती जा रही थी, अब बोलना शुरू किया –
” अपना घर? मेरा घर? मेरा कौन सा घर है?” दक्षिणा का बेहद शान्त स्वर – ” जहॉ तुम मुझे चलने के लिये कह रहे हो, वह तो मेरा है ही नहीं। वह तो तुम लोगों का घर है, मैं वहॉ कैसे जा सकती हूॅ। मेरा तो यही घर है जहॉ सुख दुख में साथ देने के लिये मेरे पास मेरे माता पिता हैं।”
” मायके में ही रहना था तो शादी क्यों की थी?” वही क्रूरता और अहंकार।
” सुखद दाम्पत्य के लिये। तब नहीं जानती थी कि जिसके साथ जीवन की डोर बॉधकर एक अजनबी घर में प्रवेश करने जा रही हूॅ, उसे तो अपने शरीर और पैसे की भूख को शान्त करने के लिये एक मशीन चाहिये। भावनाओं, संवेदनाओं, प्यार के लिये उसके हृदय में स्थान ही नहीं है।”
” तुम्हारे लिये मैं अपना परिवार तो छोड़ूंगा नहीं।” पति होने का दंभ अब भी वैसा ही था।
” बिल्कुल सही कहा तुमने।”
दक्षिणा के स्वर में कोई तेजी नहीं थी – ” मुझे खुद न तुम्हारे घर जाना है और न तुम्हारे साथ रहना है। तुम आराम और सुख से अपने परिवार के साथ रहो। मैं थक चुकी हूॅ ओढ़े गये सभी सम्बन्धों से। मैं भी अब जीना चाहती हूॅ, मुझे तुमसे छुटकारा चाहिये।”
” तुम जानती भी हो कि क्या कह रही हो?”
दक्षिणा कुछ न बोली तो उसके पति ने तुरुप का आखिरी पत्ता खेल दिया –
” मेरा बेटा मुझे दे दो, फिर जो मन में आये करो। मुझे नहीं जरूरत है तुम्हारी, रहो जिन्दगी भर मायके में।” जानते थे कि कोई भी मॉ अपने बच्चे से अलग नहीं रह सकती।
दक्षिणा के अधरों पर एक विद्रूप मुस्कान तैर गई – ” आज तीन महीने बाद बाप का प्यार कहॉ से उमड़ आया? तुम तो जब चाहो हजारों बच्चे पैदा कर सकते हो, बॉझ तो मैं हूॅ, जिसमें बच्चा पैदा करने की क्षमता ही नहीं है। इसीलिये दूसरी शादी करने के लिये भी उत्सुक थे।”
दक्षिणा ने एक क्षण रुककर पति की ओर देखा फिर वैसे ही शान्त स्वर में कहा – ” वैसे तुम्हारी जानकारी के लिये बता दूॅ कि यह बच्चा तुम्हारा नहीं है।”
दक्षिणा के पति पर तो जैसे बिजली गिर पड़ी हो – ” क्या बकवास कर रही हो? पागल हो गई हो क्या? यह बच्चा मेरा नहीं है?”
दक्षिणा ने बड़े इत्मीनान से कहा – ” नहीं, यह बच्चा मेरे लिये किसी देवदूत द्वारा दिया हुआ उपहार है। अगर विश्वास न हो तो डी०एन०ए० टेस्ट करवा लो।”
क्रोध से लाल पड़ गया उनका चेहरा और वह फुंफकार उठे – ” कहॉ कहॉ व्यभिचार करती रहीं अब तक? किसका पाप है यह?”
इतनी देर तक इत्मीनान से शान्त स्वर में बात करती दक्षिणा का स्वर अब तीब्र हो गया –
” मेरे बच्चे को पाप कहने का अधिकार तुम्हें किसने दिया है? वह सिर्फ मेरा बच्चा है। तुम्हीं लोग कहते हो कि तुम पूर्ण समर्थ हो, तुममें कोई कमी नहीं है तो मेरी ओर से खुली छूट है। जाओ जितनी चाहे शादी करो और जितने चाहे बच्चे पैदा करो। अगर नहीं चाहते हो कि मैं तुम्हारी करतूतों का ढ़ोल पीटकर तुम्हें अदालत में सार्वजनिक रूप से अपमानित करूॅ
तो तलाक के कागजात भेजूॅगी, चुपचाप आपसी रजामन्दी से तलाक दे देना। तुम्हारी मेहरबानी के बिना मैं अपनी और अपने बच्चे की जिन्दगी अच्छी तरह बिता सकती हूॅ। अब नहीं रह सकती मैं तुम्हारी गुलाम बनकर। जाओ, अगर समाज में अपनी इज्जत बनाये रखना चाहते हो तो कभी मेरे पास मत आना वरना तुम्हारी अक्षमता और तुम्हारे घरवालों के कच्चे चिठ्ठे उजागर करते मुझे देर नहीं लगेगी ।”
दक्षिणा के पति हतप्रभ से फटी फटी ऑखों से दक्षिणा के ओजस्वी चेहरे को देखते रह गये जिस पर मातृत्व और वात्सल्य दमक रहा था।
बीना शुक्ला अवस्थी, कानपुर