“ जब देखो तुम और तुम्हारी यादों को पोथा…. कब तक ऐसे ही ले कर बैठी रहोगी माँ…. चलो अब …कब से हम खाने के मेज पर तुम्हारा इंतज़ार कर रहे हैं ।” कमरे में आकर चंचला जी के बेटे हरीश ने कहा
चंचला जी अपने बिस्तर पर औंधे मुँह लेटी हुई थी और सामने जाने कितनी पुरानी चीज़ों फैली पड़ी थी
“ बेटा तेरे बाबूजी को गए कितने साल हो गए पर अभी भी लगता है जैसे कल की ही बात हो… वो मुझे आवाज़ दे रहे थे और मैं अपनी ही दुनिया में मग्न….समय बीत जाता है यादें रह जाती है…तू चल मैं ये सब सहेज कर रख देती हूँ फिर आती हूँ..।”
चंचला जी अक्सर ऐसे ही अपने कमरे में कभी कभी पड़ी रहती और यादों के पन्नों को पलट कर पति के सानिध्य को महसूस करती रहती…. बीस सालों में बहुत कुछ बदल गया पर नहीं बदला था तो उनका अपने पति की चीजों को निकाल कर बिखेरना और फिर उलाहने के साथ समेटना….
बच्चे कभी कभी कहते माँ कोई देखेगा तो पागल समझेगा तुम्हें तो वो हँस कर कहती….,“ जिसको जो समझना समझें…. बस तुम लोग कभी मुझे पागल मत समझ लेना ….. बेटा मैं उनके बिना ज़िन्दा हूँ तो बस उनकी यादों के सहारे…. ।”
खाने के टेबल पर बहू और पोते पोती इंतज़ार कर रहे थे…
“ दादी फिर आप दादा जी से झगड़ा कर रहे थे?” पोती पाहुनी ने हँसते हुए पूछा
” हाँ देख ना सब सामान फैला देते हैं फिर मुझे समेटना पड़ता हैं ग़ुस्सा करूँगी ही ना….।” हँसते हुए चंचला जी ने कहा
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“ दादी पता मैं माही को बता रहा था…. तो वो बोली अच्छा मुझे भी सीखना दादी जी से झगड़ा करना …. मैं ग़ुस्सा हुआ तो बोलती है अरे बाबा झगड़ा होने के बाद प्यार और गहरा होता है ….. सच में दादी ?” पोते विहान ने पूछा
“ बेटा छोटे मोटे झगड़े तो सब पति पत्नी में होते बस ध्यान रखना सोने से पहले झगड़ा बेडरूम तक मत आने देना नहीं तो मनमुटाव बढ़ते वक़्त नहीं लगता….. बेटा तेरे दादा जी जाते जाते कह गए थे सुन री चंचला … माना मेरी बीमारी ने ज़िन्दगी भर साथ देने का वादा तोड़ दिया पर तू कभी उदास मत होना …. जब भी मेरी याद आए ना हर दिन की तरह झगड़ा कर लिया करना मेरी चीजें यथा स्थान ही रहने देना ताकि मैं सदैव तेरे आस पास रहूँ…. जो मैं याद कर रोने लगती हूँ तो ऐसा लगता है तेरे दादा जी ग़ुस्सा होकर घर से बाहर निकल गए …
.वो उनकी पुरानी आदत थी तब भी मैं बस ऐसे ही भुनभुनाती और वो मुझ पर हँसते मैं फिर और चिढ़ जाती तो कहती तेरी भिनभिनाहट ना घर में जीवन्तता लाती हैं चंचला नहीं तो ज़िन्दगी नीरस लगे…. बस फिर क्या मैं चुप हो जाती उनका ताना सुन ….बस ज़िन्दगी में और क्या चाहिए कोई इतना मान करें की हम दुखी हो तो वो मना ले और उसकी तकलीफ़ हम बिना कहे समझ लें……बस बेटा रिश्ता ऐसा ही होना चाहिए ।”खाना खाते चंचला जी ने कहा
खाना खा कर चंचला जी हर दिन की तरह बाहर बगीचे में चली गई जैसे पहले भी पति के रहने पर जाती थी…
कुछ महीनों बाद विहान की भी शादी हो गई…. चंचला जी ने अपनी आदतें ना छोड़ी….माही भी दादी सास के इस प्यार को देख भाव विभोर हो जाती कोई कैसे साथी के नहीं रहने पर भी उसकी यादों को अपने आज में ज़िन्दा रख सकता है… ये ही तो होता है मन का रिश्ता ।
समय गुजरता गया अब चंचला जी की तबियत नासाज़ रहने लगी….
एक दिन वो हरीश को बुला कर बोली,“ बेटा अब मेरा तेरे बाबूजी के पास जाने का समय आ गया है… बहुत दिन उनकी यादों के सहारे जीवन काट लिया अबकी जा कर उनका हाथ पकड़कर झगड़ा करने का समय आ रहा … वो क्यों मुझे ऐसे अकेले छोड़ गए…. बस बेटा अब हमारी यादों को सहेज कर रख सको तो ज़रूर रखना… हमें भी तुम सब के साथ रहकर अच्छा लगेगा ।” आवाज़ धीरे-धीरे मंद होती गई और चंचला जी अपनी यादों का जत्था इस लोक में छोड़ कर परलोक सिधार गई ।
शोक संतप्त परिवार को बस इस बात की तसल्ली थी कि माँ बाबूजी की यादों में जीते जी उनके पास चली गई…।
कुछ रिश्ते में प्यार इतना होता है कि वो उसके बिना ज़िंदगी कैसे जीना सीख जाते हैं… चंचला जी पहले अपने पति को याद कर के बहुत रोती थी … पर उनके बिना जीना नहीं चाहती थी और बस पति की यादों को सहेज कर वो फिर से ज़िन्दगी जीना सीख गई और अपने आपको उन्हीं यादों के सहारे अपने परिवार के साथ ख़ुशी से रहने लगी थी पर एक दिन तो उन्हें भी जाना ही था…. ।
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धन्यवाद
रश्मि प्रकाश
#मन का रिश्ता