“उनके जैसी” – ऋचा उपाध्याय : Moral Stories in Hindi

    “आज माँ की पार्टी की इतनी ज़रूरी मीटिंग है, चुनाव में नामांकन का पर्चा दाखिल करना है, उस पर से उन्हें कमज़ोरी भी लग रही है, सुनंदा तुम तुरंत वापस आओ, बार बार माँ तुम्हे ही बुला रही हैं”। 

  “क्या हुआ अनुराग! सुबह तक तो वो बिल्कुल ठीक थीं। बस मेरा नाम बुलाया जाने वाला है, आधे घंटे माँ को और मेहमानों को देख लो, जैसे ही अवार्ड मिल जाए मैं आ जाऊँगी।”

   “अच्छा! जब माँ को कुछ हो जाएगा, इतने लोगों के स्वागत में कमी हो जाएगी तब आओगी क्या? इतना बड़ा दिन है आज माँ के लिए, कैसी कठोरहृदय हो।”

    “अच्छा आती हूँ!” कह कर सुनंदा ने फोन काट दिया।

    “तुम्हारी माँ हैं तुम खुद ही देख लो थोड़ी देर। हुँह! माँ को कुछ नही होगा वो तो मेरे मरने के बाद ही” …..! दाँत पीसकर स्वगत ही बड़बड़ाते हुए खचाखच भरे हाल से निकलने का प्रयास करने लगी। बाहर आकर गाड़ी स्टार्ट कर चल दी और दिमाग भी अतीत में गोते लगाने लगा।

   कितनी खुश थी जब अनुराग से शादी तय हुई थी। सुंदर, सलोना कॉलेज में प्रोफेसर अनुराग तो मन में बस ही गया था, साथ ही माँ ने भी दिल जीत लिया था। पढ़ी लिखी मधुभाषिणी सत्ताधारी दल की एक बड़ी नेत्री। उनका प्रभामण्डल ऐसा था कि हर कोई उनसे प्रभावित हुए बिना न रह पाता था।

  वैसे तो मैं! यानि की सुनंदा! मैं भी कोई बुरी नहीं थी, जिंदगी में सफल भी थी। संगीत के क्षेत्र में शहर ही नहीं देश मे भी लोग मुझे जानने लगे थे, सुंदर, पढ़ी लिखी काॅलेज में हिंदी की व्याख्याता। सासू माँ के लगभग सारे भाषण मैं ही लिखती और वाहवाही वो लूटतीं। मेरी शादी के समारोह में भी दुल्हे-दुल्हन को छोड़ आकर्षण का केंन्द्र बनी माँ। कई दिनों की भागदौड़ से थककर बेहोश जो हो गईं थीं। हालांकि कुछ क्षण में ही बिल्कुल ठीक भी हो गईं पर हमें छोड़कर सभी आमंत्रित अतिथि उनके इर्द-गिर्द इकट्ठे हो गए थे।  

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    रोहन के जन्म से लेकर उसके इक्कीसवें जन्मदिन तक हमेशा आकर्षण का केन्द्र बनी रहीं माँ। कितनी बार तो अस्पताल तक जाने की नौबत आ गई पर हर बार कुछ ही समय में बिल्कुल स्वस्थ, तंदुरुस्त, लोगों की वाहवाही बटोरती रहीं माँ। कैसे कर लेती हैं इतने नाटक। शायद उन्हे सैडिस्टिक प्लेज़र मिलता है। काश मैं भी उनके जैसी बन पाती।

     और मैं! जब भी मेरे साथ कुछ अच्छा हो रहा होता माँ ऐन मौके पर बीमार हो जातीं या कुछ भी ऐसा होता कि सारी दुनिया का ध्यानाकर्षण अपनी ओर कर लेतीं। बिल्कुल ‘मीठी छुरी’। मै अगर किसी कार्यक्रम में लोगों की फर्माइश पर गाना शुरू करती, तुरंत उनके पाँव में मोच आ जाती, चक्कर आ जाता या गिर पड़तीं। फिर बाद में शहद पगे शब्दों में कहतीं “आय एम साॅरी बेटा तुम्हारा प्रोग्राम स्पाॅएल कर दिया। कितना सुन्दर गीत शुरू किया था तुमने” ऐसा कहकर वो धीमे से मुस्कुरा देतीं और वो मुस्कान बस मुझे ही दिखती। मुझे लगता है मैं उनकी छाया तले दब कर रह गई हूँ अवसाद ग्रस्त हो गई हूँ।

   आज भी एक फिल्म में गाए मेरे लोकगीत के लिए मुझे अवार्ड मिलने वाला था, खुश थी कि अच्छा है दोनो माँ बेटा नहीं रहेंगे कोई विघ्न बाधा नहीं।पर मेरा तो नसीब ही खराब है।

     कभी कभी लगता है कि जब मरूँगी तब भी मेरे मरने पर ये किसी को मेरे लिए रोने भी नहीं देंगी शायद।

    और अचानक बहुत ज़ोर का धमाका हुआ और मुझे लगा जैसे मैं आसमान में उड़ रही हूँ। अरे ये क्या हो रहा? इतनी भीड़, इतनी पुलिस क्यों है मेरी गाड़ी के चारों तरफ? अरे! मेरे सर से इतना खून, ओह! लगता है मैं सच में मर गई। सुना था दिन भर में सोची गई एक बात भगवान सच करते हैं, पर ऐसे और ये बात सच होगी कभी नहीं सोचा था। ओह वो तो अनुराग की गाड़ी है पर माँ कहाँ हैं। ये माँ को कहाँ छोड़कर आए।

   अरे! ये क्या बोल रहे हैं पुलिस और पत्रकारों से।  सुनीता के एक्सीडेंट की खबर सुनते ही माँ ने प्राण त्याग दिए, मेरी माँ सुनंदा को बहुतप्यार, करती थीं उसकी मौत का ग़म बर्दाश्त नहीं कर पाईं। लो! मेरे मरने को भी अपने नाम कर ले गईं।

     पर तभी आँख खुली तो खुद को अस्पताल में पाया। ओह! जान में जान आई , अभी मेरी उम्र ही क्या है , इतनी जल्दी नहीं मरना मुझे।

  “माँ कैसी हैं अनुराग ,और  ये बाहर शोर कैसा है” , अनुराग की तरफ मुड़ कर मैने पूछा ।

 “माँ बिल्कुल ठीक हैं।

आज नामांकन के लिए जाने ही वाली थीं कि तुम्हारे एक्सीडेंट की खबर आ गई और नहीं जा पाईं।

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बाहर ही हैं। अरे! बाहर मेरी प्रसिद्ध गायिका पत्नी का इंटरव्यू लेने वालों की और माँ के पार्टी कार्यकर्ताओं की भीड़ है, तुम मौत से लड़ के जो वापस आई हो”‘।

    “और उस पर से एक बहू और एक पत्नी का फर्ज निभाने के लिए तुम अपना अवार्ड फंक्शन छोड़ कर आई ,तुम्हारा एक्सीडेंट भी हो गया, तुम सबकी नज़रों मे एक आदर्श बन गई हो। बाहर माँ और उनकी पार्टी के सब लोग खड़े हैं। कुछ देर बाद ही पत्रकारों एवं कार्यकर्ताओं का तांता सुनंदा के कमरे में लगा हुआ था। कोई बधाई देता तो कोई सराहना, तो कोई हाल चाल पूछ रहा था।

आज माँ चुपचाप बनावटी सी मुस्कान लिए एक कोने में खड़ी थीं, ठीक वैसे ही जैसे उनके हर प्रपंच पर सुनंदा असहाय खड़ी रहती थी और वो सारी भीड़ जो पहले उनके इर्द गिर्द उन्हे घेरे रखती थी, आज सुनीता के  सम्मान में खड़ी थी।

   “साॅरी माँ आज मैने आपका प्रोग्राम स्पाॅएल कर दिया”,मैने हाथ जोड़ कर बोला।

   हालांकि मैने आकर्षण का केंद्र बनने के लिए कोई नाटक नहीं रचा था, लेकिन फिर भी आज एक अजीब सी खुशी महसूस कर रही थी।

  मैं कुछ क्षण के लिए, सब कुछ भुला कर गर्व से मुस्कुराने लगी और सोचने लगी कि आज कितना अच्छा लग रहा है, जब अनजाने ही सही लेकिन मैंने भी माँ के एक सुख में विघ्न डाल दिया और अगले ही पल मेरे चेहरे पर जीत की मुस्कान की जगह वही सैडिस्टिक प्लेज़र था इतने सालों का संघर्ष मेरे अस्तित्व की लड़ाई, दुर्घटनावश ही सही पर मेरे काम आई। 

 नहीं नहीं! हे ईश्वर! ये सब मेरा भ्रम हो, कहीं मैं ‘उनके जैसी’ मतलब सासू माँ जैसी तो नहीं बनती जा रही हूँ।

ऋचा उपाध्याय

स्वरचित मौलिक

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