Short Moral Stories in Hindi : नंदिता बिटिया की विदा होने के बाद धीरे धीरे सभी मेहमान एक एक करके चले गये थे। तीनों बेटे भी अपने अपने परिवार केसाथ अपनी अपनी जगह चले गये थे। बस उस सूने घर में रवि और अल्का ही रह गये थे।
अलका चुपचाप उदास बैठी थी तभी रवि ने उसे टोकते हुए कहा था कि –
–अब हम अपनी सारी जिम्मेदारियों से मुक्त हो गये।
लेकिन अलका अब भी चुपचाप बैठी थी, शायद उसे यह खाली खाली घर रास नहीं आ रहा था। वह इस घर की बड़ी बहू थी, मां के ना रहने पर शुरू से इस घर की जिम्मेदारी उसके कांधे पर आ गयी थी और वह भी देवरों-ननंदो की भाभी और बाद में मां के किरदार में ऐसी त्याग की मूर्ति बन कर समा गयी कि कभी वह पत्नी होने का वह अधिकार न पा सकी,
जिसकी वह हकदार थी या कहूं समय की आपाधापी में वह यंत्रवत सारे काम निपटाती रही और कभी अपनी सुध न ले पायी और वह स्वयं भी हमेशा जिंदगी में कहीं घुमाने ले जाने का प्लान ही बनाता रहा लेकिन घूमने से ज्यादा कोई न कोई जिम्मेदारी उनके सारे अरमानों को चौपट करती रही।
रवि ने चाय बनाते हुए अलका की ओर देखा, खिड़की से आती हुई सांझ की शीतल किरणें उसकी श्वेत लटों से खिलवाड़ कर रही थी, उसके चैहरे पर वही मासूमियत नजर आ रही थी जो बरसों पहले जब वह दुल्हन बन कर आयी थी,
तब उसके चैहरे पर थी लेकिन वह प्रेयसी बन ही न पायी थी, आते ही देवर-नंनदो की मां बन गयी थी। वह अपने व्यक्तिगत सुख को हमेशा दूसरों के सुख के आगे त्यागती गयी। हमेशा उसने अपने आप को त्याग और कर्त्तव्यों का ऐसा आवरण पहनाया कि कभी कभी वह भी अपने आप को दोषी समझने लगता लेकिन कभी उसके चैहरे पर कोई शिकन नहीं आई। उनके मुंह से एक गहरी श्वांस निकल गयी।
सभी समय के साथ साथ बड़े होते गयेऔर धीरे धीरे पंछियों की तरह अपने अपने घोंसले बना कर उड़ते गये और अब आखिरी जिम्मेदारी नंदिता भी शादी के बाद जा चुकी थी।
अलका चाय लेकर आई तो रवि उसके चैहरे को देख रहे थे।
अलका ने पूंछ लिया-आप ऐसे क्या घूर रहे हैं?
उन्होंने उसके अधरों पर अठखेलियाँ करती एक श्वेत लट को अपनी उंगलियों से उसके बालों में उछाल दिया और बोले –
–आज तुमको जी भर कर देखने का मन कर रहा है।
अलका के चैहरे पर एक अजीब सी मुस्कराहट आ गयी – पगला गये हैं क्या? सारी उम्र निकल गयी और अब – –
उन्होंने चाय टेबिल पर रख कर अलका को एक कुर्सी पर बैठा दिया और उसकी गोदी में सर रख कर नीचे घास पर बैठ गये और बोले-
-अलका, आज तुम्हें घर की सारी जिम्मेदारियों में साथ साथ परिवार के लिए किये अपनी भावनाओं के त्याग और मेरा हर कदम पर साथ निभाने तथा बिना किसी झुंझलाहट के सहयोग के लिए मैं दिल से घन्यवाद देना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि अब मैं वह तुम्हें सब दे सकूं जो जीवन की आपाधापी में न दे सका।
आज तक तुम इस घर में बहू, पत्नी और मां का किरदार निभाती रही लेकिन हम दोनों सच्चे मीत न बन सके। क्या उम्र की इस ढलान पर हम दोनों सिर्फ हम दोनों बचे हुए जीवन के पलों को एक मीत बन कर निभायेंगे।
अलका ने अपने पति का यह रूप पहली बार देखा था, उसे भी कहां फुर्सत भी मिल पायी थी कभी। वह भी वहीं घास पर बैठ गयी और पति का सर प्यार से सहलाने लगी।
–अलका, अब बचे हुए जीवन में भी तुम ऐसे ही साथ निभाओगी न?
उधर सांझ ढल रही थी, दोनों की भींगी आंखों से प्यार का वह अनजाना स्त्रोत वह रहा था, जिसका कोई मोल नहीं था। शायद निश्छल प्यार के लिए उम्र की सीमा की दरकार नहीं होती।
उम्र के इस पड़ाव में ही शायद एक दूसरे के साथ का अहसास और भी तीव्र होता है। वह दोनों शरीर की नाप से बहुत आगे अंतर्मन की गहराई में डूब गये थे और शायद आती हुई रात का अंधेरा भी इस प्यार के उजाले को कम नहीं कर सकता था, त्याग का प्रतिफल समेटे आज वह बह गये जीवन की धारा में एक सच्चे मीत बन कर।
दिनांक – राजीव रावत
कोलार , भोपाल (म0प्र0)