” बड़ी बहू, वो … देखो ना मेरी ये लाल साड़ी यहाँ से फट गई है… रंग भी बदरंग सा हो गया है…. हर बार होली पर लाल साड़ी ही पहनती हूँ ना… और कोई दूसरी लाल साड़ी भी नहीं है … इस बार हाट जाओ तो…. मेरे लिए भी एक लाल साड़ी ला देना।” जानकी जी झिझकते हुए अपनी बहू संगीता से बोली ।
सास की बात सुनते सुनते रसोई में काम करती हुई दोनों बहुओं के चेहरे के हाव- भाव बदल गए । बुदबुदाते हुए बड़ी बहू संगीता अपनी देवरानी जया से बोली , ” लो …. इनको यहां लाल साड़ी की पड़ी है और वहाँ ससुर जी खाट में पड़े हैं…. अरे कुछ तो उम्र का लिहाज करें … अब लाल साड़ी पहनकर कौन सा ससुर जी को जिला लेंगी …. हमें तो ये चिंता खाई जा रही है कि पता नहीं इस बार होली का त्यौहार सुख सम्मति से निकलेगा भी की नहीं और इनके सिंगार हीं पूरे नहीं होते।”
छोटी बहू जया भी कहां चुप रहने वाली थी। अपनी आदत अनुसार हमेशा की तरह खर्चे की बात सुनते ही मुंह से निकल पड़ा , ” अरे जीजी, यहां घर के खर्चे पूरे नहीं होते और वहां एक नए ख़र्चे की फरमाइश हो रही है ।”
शायद उनके बुदबुदाने की वजह जानकी जी समझ रही थीं । उन्होंने अपनी साड़ी के पल्लू में लगी गांठ खोलते हुए बोला ,” बहू ये कुछ पैसे हैं मेरे पास , इस बार की बुढ़ापा पेंशन के आए थे मेरे और तेरे ससुर जी के । कुछ बच रखे हैं।”
तीखी नजरों से बहुएं उनकी तरफ देखने लगीं। ज्यादा देर बहुओं के पास खड़ा होना मुश्किल लग रहा था इसलिए जल्दी से पल्ले के सारे पैसे निकालकर वहीं रसोई में रखे मटके के पास रख दिए । दोनों बहुओं की त्यौरियां कुछ और ज्यादा हीं चढ़ गई थीं।
बहुओं की बात सुनकर जानकी जी का कलेजा जोरों से धड़कने लगा था। आंखे छलछला उठी थीं…..बहुओं का रोज- रोज ऐसा बोलना उन्हें बहुत अखरता था। उन्हें पता था कि उनके पति बीमार हैं । पिछले तीन महीनों से खाट पर हीं हैं। लेकिन वो हैं तो अभी सुहागन ही ना…. जब तक सांस है तब तक आस है। पति की ऐसी अवस्था देखते देखते जानकी जी भी केवल एक ढ़ांचा बनकर रह गई थीं। हर रोज भगवान से यही दुआ करती थीं कि मेरी उम्र भी इनको लग जाए।
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उम्र भले ही सत्तर हो चुकी थी लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि एक दूसरे के प्रति प्रेम और लगाव कम हो गया था। इतने वर्ष साथ गुजारने के बाद ये लगाव तो और भी मजबूत हो गया था। लेकिन शायद उनकी इन भावनाओं को समझने वाला इस घर में कोई नहीं था । क्योंकि बच्चों को हमेशा यही लगता है कि उम्र हो गई है तो एक ना एक दिन तो जाना ही है ।
मृत्यु तो शाश्वत सत्य है ये सभी को पता है लेकिन स्वीकारना सभी के लिए मुश्किल । फिर उस मोह का क्या करे जिसमें जन्म के साथ ही इंसान बंध जाता है?
जानकी जी के जाते हीं संगीता ने आगे बढ़कर उनके रखे पैसे उठाए, ” ओह.. पांच सौ रूपये हैं । पता नहीं कहाँ छिपा रखे थे….. हमेशा तो कहती हैं बाबूजी की दवा में लग गए।”
तभी जया बोल पड़ी, ” अरे जीजी, दो दिन पहले मैंने देखा था अम्मा बड़के भईया को दवा की पर्ची पकड़ा रही थीं।”
” अच्छा जी… तो इस बार दवा के पैसे भी बेटे के माथे मढ़ दिए… एक ये हैं जो अम्मा बाबू के प्रेम में मरे जाते हैं और एक तरफ अम्मा हैं जो पैसे छिपा कर रखती हैं….। हे भगवान बुढ़ापे में भी शौक पूरे करना नहीं भूलते….. मैं लाकर दूंगी इन्हें लाल साड़ी,” दांत पीसते हुए संगीता बोली।
उधर होली को दो दिन बचे थे। सारा सामान आ चुका था। जानकी जी भी बाट में थी कि बहू साड़ी भी लाएगी लेकिन उनकी साड़ी नहीं आई.. दोबारा बोलने या कुछ पूछने की हिम्मत नहीं थी जानकी जी की । अपनी वही पुरानी साड़ी निकाल कर सूई धागा लेकर बैठ गईं लेकिन इस उम्र में आंखें भी साथ नहीं दे रही थीं… बाबूजी भी अपनी पत्नी की बेबसी पर चुप थे । हां आखों से दो बूंद ढुलक कर तकिये पर जरुर गिर गई थीं। आंगन में खेलती हुई अपनी पोती को आवाज देकर अपने पास बुलाया और सूई दिखाते हुए बोली , ” बिटिया जरा इसमें धागा डाल दे।”
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पोती धागा डालकर वापस खेलने भाग गई.. जानकी जी ने कांपते हाथों से साड़ी सिली और होली के दिन सुबह नहाकर वही साड़ी पहन ली और अपने पति के सिराहने बैठ गईं। … पूजा के वक्त हो चला था लेकिन अम्मा अभी तक बैठी थीं। बेटा आया, ” अम्मा… चल पूजा हो रही है… अम्मा ….. ओ अम्मा…”
लेकिन अम्मा नहीं बोली… अम्मा सुहागन हीं विदा हो गईं… बाबूजी की आंखें भी खुली की खुली हीं पथरा गईं … अब ना किसी को दवा की जरूरत थी और ना साड़ी की…..
दोस्तों , जो माता- पिता अपनी सारी उम्र बच्चों की जरूरत पूरी करने में निकाल देते हैं उम्र के अंतिम पड़ाव में वही माता पिता अपनी छोटी छोटी जरूरतों और इच्छाओं के लिए अपने बच्चों पर आश्रित हो जाते हैं…. और एक दिन उनके साथ साथ उनकी इच्छाएं भी दम तोड़ देती हैं..
#प्रेम
सविता गोयल