दिव्या और नीतू बचपन की सहेलियाँ नहीं थीं, परंतु एक ही सोसाइटी में रहने और हर रोज मिलने से उनमें घनिष्ठता बन गई थी। दोनों की उम्र में थोड़ी बहुत समानता थी और उनकी एक जैसी सामाजिक परिस्थितियों ने भी उन्हें आपस में जोड़ दिया था। दिव्या एक मध्यम वर्गीय परिवार से थी और अपने जीवन में अनुशासन का बड़ा महत्व देती थी। उसका मानना था कि पैसा मेहनत से कमाया जाए और जरूरत के अनुसार ही खर्च किया जाए। उसने अपनी नौकरी के साथ-साथ घर को भी सलीके से सँभालने की आदत डाल रखी थी, और अपने भविष्य के लिए भी उसने कुछ छोटी-मोटी बचत शुरू कर रखी थी।
नीतू उसके ठीक विपरीत थी। उसे फिजूलखर्ची और दिखावे में बड़ा आनंद आता था। एक मध्यमवर्गीय परिवार में रहते हुए भी नीतू का व्यवहार और अंदाज जैसे किसी उच्च वर्गीय परिवार की हो। वह कभी न कभी किसी से उधार लेकर अपनी इच्छाओं को पूरा करती रहती थी, मगर फिर उसे लौटाने में कतराती भी थी।
एक दिन नीतू ने दिव्या को फोन कर अचानक ही चालीस हज़ार रुपए उधार मांगे। उसने दिव्या को बताया कि उसे पैसों की बहुत जरूरत है और वह जल्दी ही उसे एक महीने में लौटा देगी। दिव्या पहले तो थोड़ा असमंजस में पड़ी, क्योंकि उसने कभी किसी को इतनी बड़ी रकम उधार नहीं दी थी और वह ऐसी आर्थिक सहायता करने से बचना भी चाहती थी। लेकिन फिर उसे लगा कि नीतू ने पहली बार ही उससे उधार मांगा है, शायद उसे सचमुच जरूरत होगी। दिव्या ने बड़े मन से नीतू के अकाउंट में पैसे ट्रांसफर कर दिए, बिना यह सोचे कि वह उसे लौटाएगी या नहीं।
दिव्या अक्सर ऑफिस से आते समय नीतू और कुछ अन्य महिलाओं के समूह से मिलकर हाल-चाल पूछ लेती थी। यही उसके लिए रोज का एक मामूली, मगर संतोषजनक हिस्सा बन गया था। कुछ दिनों बाद उसने ध्यान दिया कि नीतू, जो अभी तक आर्थिक संकट में होने का दावा कर रही थी, वो महिलाओं के बीच अपने शॉपिंग के किस्से बड़े गर्व के साथ सुना रही थी। वह महंगे कपड़ों, गहनों और यहां तक कि नई-नई चीजों के बारे में बढ़ा-चढ़ा कर बातें करती थी। दिव्या यह सब देखकर अचंभित हो गई, उसे यकीन नहीं हो रहा था कि जो महिला उससे कुछ दिन पहले उधार के लिए कह रही थी, वह अब इस तरह फिजूलखर्ची कर रही है और बिना किसी संकोच के दिखावा कर रही है।
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एक महीना बीत चुका था, परंतु नीतू ने दिव्या के पैसे अब तक नहीं लौटाए थे। दिव्या को लगा कि शायद नीतू वाकई आर्थिक दिक्कत में होगी और एकाध हफ्ते बाद पैसे लौटा देगी। मगर नीतू ने न तो कोई फोन किया और न ही पैसे लौटाने का संकेत दिया। कुछ समय और बीत गया। इस बीच दिव्या के मन में नीतू के प्रति एक असहजता और अविश्वास का भाव पनपने लगा।
फिर अचानक एक दिन दिव्या की बेटी की तबियत बहुत खराब हो गई। उसकी बेटी तेज बुखार में तप रही थी और सांस लेने में भी दिक्कत महसूस कर रही थी। दिव्या घबरा गई और उसे तुरंत अस्पताल ले गई। उस दिन दिव्या का पति शहर से बाहर था और घर में भी उस समय ज्यादा पैसे नहीं थे। कुछ ही समय में डॉक्टर ने बताया कि इलाज के लिए तुरंत कुछ मेडिकल टेस्ट करवाने होंगे। दिव्या के पास समय बहुत कम था, उसे तुरंत पैसों की आवश्यकता थी।
दिव्या ने सोचा कि क्यों न नीतू को फोन करके अपना पैसा वापस मांग लिया जाए। उसने तुरंत नीतू को फोन किया और उसकी समस्या बताई, उसे उम्मीद थी कि नीतू तुरंत पैसे ट्रांसफर कर देगी। लेकिन नीतू ने फोन पर सुने बिना ही उसे यह कहकर टाल दिया कि वह अभी बाहर है और बाद में बात करेगी। दिव्या की समस्या को समझे बिना उसने फोन काट दिया, जिससे दिव्या को बहुत दुख हुआ। उसने फिर नीतू को व्हाट्सएप पर मैसेज भी भेजा कि उसे तुरंत पैसों की जरूरत है, लेकिन इस पर भी नीतू ने कोई उत्तर नहीं दिया। दिव्या उस समय बहुत असहाय महसूस कर रही थी।
शुक्र है कि कुछ देर बाद दिव्या के पति ने उसके फोन कॉल्स और मैसेज देखे और उसे तुरंत ऑनलाइन पैसे ट्रांसफर कर दिए। अस्पताल में सभी खर्चे हो गए और बेटी का इलाज समय पर हो गया। इस घटना ने दिव्या को भीतर से तोड़ दिया। उसकी सबसे बड़ी उम्मीद नीतू से थी, जिसने उसे बुरी तरह से निराश किया।
अगले कुछ दिनों में दिव्या ने नीतू से मिलने का कोई प्रयास नहीं किया। वह अपने दिल की चोट और टूटे हुए विश्वास को संभालने में लगी थी। कुछ दिनों बाद, सोसाइटी के एक कार्यक्रम में दोनों का आमना-सामना हुआ। नीतू ने दिव्या को देखकर अपनी लापरवाही और अनदेखी को सहज तरीके से मानने की बजाय कहा, “मैं उस दिन बाहर थी, इसलिए फोन नहीं उठा पाई। पैसे थोड़े दिन में दे दूंगी, चिंता मत करो।”
दिव्या ने उस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और शांत रही। मगर फिर अपने आक्रोश और दुःख को संभालते हुए बोली, “नीतू, मेरी बेटी की तबियत बहुत खराब थी, इसलिए सोचा कि तुमसे मदद मांग लूं। जैसे मैंने तुम्हारी मदद की थी, वैसे ही उम्मीद थी कि तुम तुरंत पैसे ट्रांसफर कर दोगी।”
नीतू, जो अपने आप में मग्न और अपनी ही दुनिया में खोई रहती थी, यह सुनकर भी बेशर्मी से बोली, “अरे, अगर मैंने कह दिया था कि मैं बाहर हूं, तो तुम्हें फिर से फोन करना चाहिए था या मैसेज में पूरी डिटेल लिखनी चाहिए थी। वैसे भी मैं तो हमेशा अपने पेटीएम में इतना पैसा रखती हूं कि किसी से मांगने की जरूरत न पड़े।”
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नीतू की इस बात ने दिव्या का दिल पूरी तरह से तोड़ दिया। उसे एहसास हो गया कि नीतू सिर्फ दिखावे और अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए ही दोस्ती निभाती है, और जरूरत पड़ने पर किसी का साथ देने में विश्वास नहीं रखती। नीतू ने उसकी मदद की कोई कोशिश नहीं की थी और उसकी परेशानी के समय में उसे पूरी तरह से अनदेखा कर दिया था।
दिव्या के मन में अब नीतू के लिए कोई जगह नहीं बची थी। उसे लगा कि शायद यही वजह है कि लोग उधार देने में संकोच करते हैं और दूसरों की मदद करने से बचते हैं। आज नीतू ने उसके मन में बसे इस विश्वास को तोड़ दिया कि इंसानियत अभी बाकी है। अब दिव्या ने यह ठान लिया कि भविष्य में वह किसी पर अंध विश्वास नहीं करेगी और अपने फैसले सोच-समझ कर ही करेगी।
इस पूरे अनुभव से दिव्या को यह सिखने को मिला कि दोस्ती और रिश्ते महज शब्द नहीं होते, बल्कि विश्वास, सम्मान और सहयोग पर आधारित होते हैं। उसे यह भी समझ में आ गया कि किसी की असली पहचान तभी होती है जब आप खुद किसी मुश्किल में होते हैं। नीतू जैसी दोस्ती में भरोसा करना ही नहीं बल्कि उसे निभाना भी जरूरी होता है, और जहां केवल स्वार्थ हो, वहां भरोसे की जगह नहीं होती।
अब दिव्या ने अपनी ज़िन्दगी में नीतू जैसे लोगों को दूर रखने का निर्णय लिया। उसने नीतू से किसी प्रकार के संबंध को खत्म कर दिया और अपनी जीवन में रिश्तों के चुनाव में और अधिक सावधान हो गई।
लेखिका : डॉ. पारुल अग्रवाल,