उद्घघोष विश्वास का – पूनम भटनागर : Moral Stories in Hindi

जिज्ञास मूर्ति को आकार देते अपने पिता से आपस में बात भी करते जाते, क्यों पिता  जी अगर हम इस मूर्ति को आकार देने में सफल हो पाए तो हमारा यह पहला आर्डर आने की बात बननी शुरू हो पाएगी।

अभी कहां, जिज्ञासा पहले यह मूर्ति इस लायक बने कि हम इसे प्रदर्शनी के लिए प्रस्तावित आफिस तक ले जाएं।

पर पिता जी आप की बनाई मूर्ति तो मेले में सबको पसंद आती है।

हां , पर इस समय बात कुछ और है। हमारे जैसे की लोगों ने बनाई होगी। हमारी मूर्ति पहली बार किसी आफिस में होने वाली प्रतियोगिता में रखने जा रही है , कहते हूं मूर्ति को केशवानंद ने पूर्ण रूप दिया। और जिज्ञासा उसे फाइनल टच देने में लग गयी।

अगले दिन पिता केशवानंद के साथ जिज्ञासा भी आफिस चल दी।

  यह केवल उसका शौक ही नहीं था, बल्कि वह पिता के साथ मिलकर घर के लिए सहयोग भी करना चाहती थी, पिता एक कंपनी में क्लर्क थे, उनकी सीमित आय से घर तो जैसे तैसे चल जाता था, पर उसके बड़े भाई , मां तथा बहन के खर्चे निकलना मुश्किल होता था, भाई-बहनों में वही यह सब समझने लायक थी,

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क्योंकि भाई हालांकि उससे बड़ा था पर एक्सीडेंट होने के कारण एक पैर जाता रहा था। सो अभी तो अधिकतर समय घर पर ही बिताता व कोई विशेष कार्य करने में भी असमर्थ था। जिज्ञासा ने अभी कालेज में कदम रखा था। बारहवीं अच्छे नंबरों से उत्तरीण करने पर विश्विद्यालय में प्रवेश आसानी से मिल गया। पर वह पिता को सुबह-शाम काम में लगे देखकर बहुत मायूस होती, जिज्ञासा को पढ़ने लिखने का शौक तो था ही,

ऐसे ही एक दिन उसने एक प्रतियोगिता के बारे में पढ़ा जिसमें था कि किसी ऐसी कला को प्रदर्शित कर उसमें भाग ले सकते हैं। जीतने वाले को इनाम के साथ ही उस कला के जरिए रोजगार के अवसर भी दिए जाएंगे। जिज्ञासा को पिता का मूर्ति कला याद हो आई, उसे लगा कि अगर वे इसमें भाग लें,। पिता से बात करने पर पिता ने कहा, मैं तो शौक के लिए यह सब बनाता हूं।

पर पिताजी मूर्ति होती तो निश्चित ही अच्छी है और फिर ज़िद करके वह प्रतियोगिता में नाम लिखा आई। अपने साथ उसने  जयदेव को भी मिला लिया। जयदेव उसी की सोसायटी में रहता था और बी काम फाइनल ईयर में था। वह व जिज्ञासा एक दूसरे को पसंद करते थे। पर जिज्ञासा की जिद थी कि वह कुछ बन कर,

पहले अपने परिवार के लिए हाथ बंटाएगी। फिर अपने बारे में सोचेगी। जयदेव को भी उसके पिता घर के कपड़ों के व्यापार में हाथ बंटाने को कहते , घर का व्यवसाय होने पर वह कुछ हद तक संतुष्ट था, पर पढ़ाई पूरी कर वह जिज्ञासा से शादी करना चाहता था।

  प्रतियोगिता के आफिस में उनकी बनाई मूर्ति का सलेक्शन हो गया, वहीं कुछ मझोले उद्योगों के प्रतिनिधि आए हुए थे उन में से एक ने उनके साथ व्यापार करने का प्रस्ताव रखा। उसके पिता तो अनुभव नहीं है, कह कर आ गये पर घर आकर जिज्ञासा ने जयदेव से बात की उसने उसे व्यापार की दुनिया में कदम रखने के लिए प्रोत्साहित किया तथा उसके पिता की व जिज्ञासा की हर संभव मदद करने का वादा भी किया।

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अगले दिन जयदेव के साथ जाकर वह उधोग के लिए हां कर आई। पिता उनके उत्साह को देखते हुए उनके साथ हो लिए। रात दिन मेहनत कर वे मूर्ति बनाने में लग गए। जयदेव उसके लिए मिट्टी जुटाने तथा अन्य कार्यों में सहयोग करता। एक महीने बाद एक लाट तैयार कर जब वे उधोगपति के पास पहुंचे तो वह उन सबकी मेहनत देख गदगद हो गया

। उसने उसी समय उन्हें की आर्डर दे दिए। जयदेव व जिज्ञासा ने पिता के साथ मिलकर सभी आर्डर पूरे किए। जयदेव ने अपने पिता से वादा किया कि वह उनका व्यापार तो संभालेगा ही पर इस समय जिज्ञासा को उसकी जरूरत है, उसका साथ निभाने दे। पिता ने दोनों की दोस्ती को समझते हुए उसे यह आज्ञा दे दी।

  इसी बीच जिज्ञासा ने मूर्ति उधोग केंद्र जाकर अपने उधोग के बारे में जानकारी हासिल की। एक साल का कोर्स भी किया। अपने उधोग को गति प्रदान करने के लिए उन्होंने लोन लिया

तभी जिज्ञासा के पिता बीमार भी हो गये, तब उसने अपने बूते पर सारे कायों को किया। जयदेव भी अपने व्यवसाय में कार्य करने लगा था। वह मूर्तियों के लिए स्वयं मिट्टी जुटाती। की कायों में उसने परेशानी का सामना भी किया। फिर इस तैयार माल की बिक्री की भी समस्या उत्पन्न हो जाती, पर जिज्ञासा बिना घबराए आगे बढ़ती गई।

आज दो साल और खत्म होने पर थे, पर जिज्ञासा अपने मेहनत के बल पर मूर्ति उधोग का जाना पहचाना नाम बन चुकी थी। पिता भी कहते कि मेरी बेटी उस उधोग को आगे ले कर गयी, जिसे मैं शौक ही समझता रहा। जयदेव के शादी के प्रस्ताव पर जिज्ञासा बोली, हां अवश्य शादी करेंगे क्योंकि मेरे मूर्ति उधोग में कार्य करने के विश्वास का उद्घोष मैं कर चुकी हूं

और उसमें मैं सफलता प्राप्त कर अपने लक्ष्य में सफल भी हो चुकी हूं। पर जिज्ञासा के उधोग को इस ऊंचाई तक पहुंचने के लिए जिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा वह चाहती थी , कि किसी और को इतनी परेशानी न सहन करनी पड़े। इसके लिए उसने की उधोगपतियो से बात की तथा उधोग केंद्र में भी इसके लिए कयी और प्रावधान लागू करने के लिए बताया, किसी भी कार्य के लिए विश्वास का उद्घोष तो आवश्यक ही है।

  *  पूनम भटनागर ।

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