Moral stories in hindi : डॉ माया राजधानी की प्रसिद्ध चिकित्सक थीं। बेशुमार व्यस्तताओं के बीच बेटे आदित्य में उनकी जान बसती थी। भारी थकान के बाद बेटे के साथ वक़्त गुजारकर उन्हें बहुत ही सुकून मिलता था। क्या करें प्रोफेशन ही ऐसा था।
डॉ माया के पति परिवार से ज्यादा अपने व्यवसाय तथा अपनी आदतों के प्रति समर्पित रहने वाले व्यति थे। बिजनेस टूर के नाम पर अक्सर शहर से बाहर रहना उनके लिए सामान्य बात थी। धीरे-धीरे बाहर रहने का क्रम बढ़ता गया। बाद में पता चला कि शहर से बाहर उन्होंने अपनी समानांतर दुनिया बसा रखी है जिसमें दूसरी स्त्री व बच्चे भी थे।
गुजरते वक़्त के साथ आदित्य ने इंजीनियरिंग में एडमिशन लेकर पुणे चला गया। इधर डॉ माया की व्यस्तता और बढ़ती गयी या यूं कहें कि उन्होंने स्वयं को और व्यस्त कर लिया। जीवन के एकाकीपन को भरने वाला बेटा भी बाहर चला गया था। माया के जीवन में पैसों की कोई कमी न थी। पर भीतर से रिक्त। वो यह सोचकर सुकून पाती थीं कि कुछ वर्षों बाद काम से सदा के लिए अवकाश लेकर बेटे के साथ भरपूर जिंदगी जियेंगी। कुछ वर्षों बाद बेटे की धूमधाम से उन्होंने शादी की।
बेटे- बहू मुम्बई में रहने लगें। इधर डॉ माया का भी अब काम में पहले की तरह मन न लगता। वर्षों की ख्वाहिश अब जोर लगाकर मन में उभरने लगा कि अब उन्हें ज़रा आराम से बच्चों के बीच रहना चाहिए। नन्ही ग्रैंड डॉटर कुहू के साथ रहने का मन होने लगा। उसके धीरे- धीरे बढ़ते पल को देखना चाहती थीं जिसे अपनी व्यस्तता के कारण आदित्य के बचपन को अपनी आंखों से देख व जी न सकीं थी। आदित्य भी उन्हें अपने पास आ जाने को बार-बार कहता। कुहू के जन्म के बाद से तो कुछ ज्यादा हीं।
उच्च रक्तचाप तथा हृदयरोग के कारण डॉ माया की तबीयत भी अब जबतब खराब रहने लगी थी। काफी उधेड़बुन के बाद उन्होंने निर्णय ले लिया। सब कुछ सेट करके डॉ माया मुम्बई चली आयीं। कुछ दिन बेटे-बहु और कुहू के साथ अच्छा गुज़रने लगा। दिनभर कुहू के साथ खेलतीं। उसकी देखभाल करके उन्हें काफी अच्छा लगता। कुछ ही महीनों बाद डॉ माया को ऐसा लगने लगा कि उनकी बहू को उनकी उपस्थिति उसकी प्राइवेसी पर असर डालती सी लगती।
ऐसा उसके व्यवहार से लगता। वर्षों से परिवार के सानिध्य को तरसती डॉ माया से बेटे- बहू-पोती के निकट रहना अच्छा लगता था। अब कभी -कभी बहू का बेरुखा व्यवहार उन्हें सालने लगा। उन्हें कुछ स्पष्ट तो नहीं कहती किंतु आदित्य को जरूर कहती होगी। क्योंकि आदित्य भी अपनी पत्नी के सामने उनसे खुलकर बात करने से कतराने लगा।
साथ ही वह कुछ तनावग्रस्त भी दिखता। डॉ माया सब समझती थीं। एक दिन उन्होंने आदित्य से कहा कि वो उनके लिए अपने आसपास एक घर देख दे जहां वो अलग रह सकें। बेटे ने एक गहरी दृष्टि उनपर डाली। सहमति में सिर हिलाया। एक बार भी न कहा कि उन्हे अलग रहने की जरूरत नहीं। संयोग से
कुछ ही महीनों बाद बेटे के घर से तीन किलोमीटर दूर सोसाइटी में एक ग्राउंड फ्लोर का घर मिल गया। डॉ माया वहां शिफ्ट कर गईं। डॉ माया का अकेलापन से पुराना नाता फिर से जुड़ गया। कभी- कभी बेटा उन्हें मिलने आया करता था। वक़्त गुजारने के लिए उन्होंने पास के एक क्लीनिक में जाकर अपनी सेवा देने लगीं किंतु स्वास्थ्य साथ न देता। फिर भी यह सब चलता रहा। बाद वो बिल्कुल घर पर सिमटकर रह गईं।
कभी-कभी शाम को सोसाइटी के पार्क में कुछ देर बैठतीं और बच्चों को खेलते हुए देखा करतीं। कुछ महीने पूर्व डॉ माया सोसाइटी के सेक्रेटरी से मिलकर बुजुर्गों की विशेष देखभाल के लिये कुछ योजनाएं भी बनाई जिसपर अमल किया जाना था।
आदित्य के घर पर उसकी सासू मां करीब एक माह से आई थीं। एक रोज उन्होंने आदित्य से उसकी मां से मिलने की इच्छा प्रकट की। आज कल कहते हुए तीन दिन बाद वह एक शाम उन्हें लेकर मां के घर पहुंचा। डोरबेल बजाई। कुछ देर प्रतीक्षा किया। फिर बेल बजायी। कोई आहत नहीं। तब उसने दरवाजा पीटना शुरू किया।
धक्का देकर खिड़की खोजने की कोशिश की। तभी उनदोनों को बदबू सी आयी। आशंकित हो उठे। आदित्य ने पुलिस को फोन लगाया। आधे घण्टे बाद पुलिस आयी। दरवाजा खोला गया तो बदबू का भभका सबके नाक से आ टकराई। भीतर जाकर देखा तो ऐसा हृदय- विदारक दृश्य देखकर सभी सन्न रह गए।
डॉ माया अपने बेड के नीचे गिरी मरी पड़ी थीं और उनके शरीर पर कीड़े रेंग रहे थें। वही डॉ जो अपने कार्यकाल में अनगिनत लोगों को मौत के मुंह से निकलकर जीवनदान दिया था। उनमें से कितनों ने उन्हें भगवान का दर्जा देकर उन्हें दिल से दुआएं दी होंगी लेकिन किसी की दुआ काम न आई थी। तभी तो आज इतनी बुरी मौत उन्हें नसीब हुई थी। पुलिस ने उनकी बॉडी को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया।
आदित्य से पूछताछ के दौरान पता चला कि वह लगभग चार-पांच महीनों से व्यस्तता के कारण अपनी मां से सम्पर्क नहीं कर पाया था। इसलिए उसे मां की मौत के बारे में कुछ पता न चला। बाद में जांच में पता चला कि डॉ माया के घर में कई महीनों से बिजली कटी हुई थी। न कोई कुकिंग गैस स्टोव था। ईश्वर जाने क्या खाती रही होंगी वो।
कितने अभावों और तकलीफों में उनकी जिंदगी गुजर रही होगी।पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार उनकी मृत्यु करीब पच्चीस दिन पूर्व हो चुकी थी। आधुनिकता के इस दौर में हम कितने हृदयहीन एवं स्वार्थी हो चुके हैं कि हम मानवधर्म के प्रति आस्था हीन होते जा रहे हैं। न बेटे को मां प्रति अपने कर्तव्यबोध का भान है और न ही पड़ोसियों को पड़ोसी धर्म का। डॉ माया की मौत हमसे सवाल पूछ रही कि क्या वास्तव में हम मनुष्य कहलाने के योग्य हैं? बुढ़ापे की बैसाखी कहलाने वाले संतान क्यों आजकल माता-पिता को इससे वंचित करते जा रहे हैं?
–डॉ उर्मिला शर्मा।