“तूने…. यह क्या कह दिया मानू?” निचोड़ कर रख दी, मेरी समूची आत्मा। लग रहा है अब…..कुछ भी शेष नहीं है। फिर ये सॉंसें क्यों चल रही है? तेरे शब्दों के बाण तो मैं फिर भी झेल लेती मानू, बचपन से अभ्यस्त हूँ, इन व्यंग बाणों की। फिर तू तो मेरे दिल में धड़कती है,दिल की धड़कन से कोई कब तक नाराज रह सकता है?
पर तेरा गलत कदम, इस तरह घर को छोड़कर जाना और तुझे न रोक पाने की असमर्थता, मुझसे बरदाश्त नहीं हो रही। समझ नहीं पा रही कि क्या करूँ। यह तनाव बर्दाश्त नहीं हो रहा। कई परेशानियों से गुजरी हूँ,हर तनाव को धुॅंए की तरह उड़ा दिया। इन तनावों से गुजरकर ही जीने की राहें तलाशी है।
बचपन से ही एक ख्वाइश मन में पल रही थी, कि कोई हो जो मेरे सिर पर हाथ रखे और कहैं “क्यों चिन्ता करती है,मैं हूँ तेरे साथ।” मगर यह ख्वाइश कभी पूरी नहीं हुई। ईश्वर ने रंग दिया काला कलूटा,भद्दी शक्ल सूरत, जो कहीं से भी मेरे परिवार से मेल नहीं खाती थी। मेरे भैया और दोनों बहिनें गोरे चिट्टे और बहुत खूबसूरत थे। जो देखता उन्हें प्यार करता और मुझे देख एक -दो व्यंग तो कस ही देता। माँ प्यार करती थी और कहती थी-
‘सुन्दरता मन की होती है मन को सुन्दर बनाओ। रूप रंग ईश्वर की देन है, और मन को तो हम ही सुन्दर बनाते हैं अपने गुणों से।’ माँ के ऑंचल की छाया सुकून देती थी, पर वह भी सिर्फ आठ साल की उम्र में साथ छोड़ गई। घर की बड़ी बेटी, इतनी छोटी उम्र में घर के कामकाज की जिम्मेदारी आ गई, पापा मदद करते ,मगर माँ के जाने से वे टूट गए थे।
उन्हें कभी ऐसा लगा ही नहीं, कि वे मेरे सिर पर हाथ रखकर कहैं कि -‘मैं हूँ तेरे साथ।’ उनकी नजर में मैं बहुत बड़ी हो गई थी। विवाह की उम्र हुई तो मेरे रिश्ते के लिए, हमेशा उनके चेहरे पर तनाव नजर आता, मेरा रंगरूप बाधक बन गया था। पिता के तनाव को मैं महसूस कर रही थी।
एकदिन हिम्मत करके मैंने पापा से कहा -‘पापा! मुझे अभी शादी नहीं करनी है, पढ़ाई पूरी करके मैं कुछ बनना चाहती हूँ।पापा ने मेरी बातों का क्या अर्थ समझा यह तो मुझे नहीं मालुम पर उनके चेहरे पर अब पहले जैसा तनाव नहीं रहता था। समय पर मेरे भाई बहिनों का घर बस गया, वे अपने परिवार के साथ खुश थे, और मैं उच्च श्रेणी शिक्षक के पद पर पदासीन थी।
आगे प्रमोशन हुआ और मैं हायर सेकण्ड री स्कूल की प्राचार्य बन गई।सोचा जीवन में जो मुझे नहीं मिला, उसे मैं विद्यार्थियों और जरूरतमंदो को प्रदान करूँ, ताकि वे तनाव से मुक्त रहैं। जीवन परेशानियों में गुजारा है, इसलिए जानती हूँ एक प्यार भरे स्पर्श और दो मीठे बोलों की अहमियत को, जो उदास चेहरे पर मुस्कराहट ला सकते हैं।
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जीवन भर यही प्रयास रहा कि मानव की उदासी दूर कर उसके हृदय में आशा का संचार करूँ।मेरे इस प्रयास की श्रंखला में तूने एक अनमोल मोती की तरह मेरे जीवन में प्रवेश लिया। विद्यालय के प्रांगण के बाहर एक सड़क दुर्घटना में दम तौड़ते तेरे माता-पिता, तेरे जीवन को लेकर उनका तनाव।
सब मैनें अपनी ऑंखों से देखा। हर संभव प्रयास के बाद भी हम उन्हें नहीं बचा पाए और तू मेरे जीवन का हिस्सा बन गई।मेरे जीवन का सहारा, मेरी हृदय कणिका,बड़े प्यार से तेरा नाम मनस्वी रखा और तुझे विधिवत गोद ले लिया। मानू तेरा प्यार का नाम है जो सिर्फ मैं तुझे कहती हूँ।जानती हूँ मानू!तू लौट कर आएगी,पर डरती हूँ कि ऐसा न हो…..।
तू सारा धन और जेवरात ले गई उसकी चिन्ता नहीं है बेटा, पर तूने जो जीवनसाथी चुना है वह सही नहीं है, मेरी अनुभवी ऑंखें सब जानती है बेटा! इसी लिए तुझे रोक रही थी। ओह…. क्या कह दिया तूने…… ‘आपका कोई अधिकार नहीं है मुझपर, क्यों गले का फंदा बनी हुई हो,अपने अनुशासन में रखकर क्यों मेरा जीवन बर्बाद करना चाहती हो।
खुद ने तो शादी की नहीं और अब मुझे अच्छा साथी मिला है तो विवाह में अड़चन डाल रही हो।’ बेटा धन की परवाह नहीं, अपनी अस्मिता बचाए रखना, मोन्टू तुझे बरगला रहा है, वह सही नहीं है.. लौट आ मेरी लाडो…. लौट आ….।”डायरी पर वृन्दा की उंगलियाँ चल रही थी,ऑंखें बरस रही थी और उसकी सॉंसें उसका साथ छोड़ रही थी।
यह वृन्दा के दिल की दुआ थी या ईश्वर की कृपा समय रहते मानू को मोन्टू की असलियत मालुम हो गई, मोन्टू ने जेवरात का बैग ले लिया था, उसे एक जगह ठहरा कर चुपचाप किसी के साथ उसका सौदा कर रहा था। जैवरात का मोह छोड़ वह भागकर अपने घर आ गई थी।
सोच रही थी अम्मा कहकर लिपट जाएगी वृन्दा के सीने से ,और मॉफी मांग लेगी तो वे जरूर माफ कर देंगी। मगर…. सबको तनावों से मुक्त कराने वाली वृन्दा इस तनाव को नहीं झेल पाई और अनन्त में विलीन हो गई। उसके अन्तिम संस्कार की तैयारी हो गई थी, मानू के हाथों में डायरी के पन्नें फड़फड़ा रहै थे,ऑंखों से अश्रु झर रहै थे जिसमें था अपने कहैं शब्दों का पछतावा और कभी न मिटने वाला दर्द।
प्रेषक-
पुष्पा जोशी
स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित