बधाई हो विष्णु आज तेरी वर्षों की तपस्या त्याग और मेहनत सफल हो ही गई शिवदयाल ने विष्णुप्रताप को गले लगाते हुए जोर से बधाई दी तो बेटा भड़क उठा
हुंह..!पापा की कौन सी त्याग तपस्या मेहनत अंकल!!इन्होंने आज तक किया ही क्या है मेरे लिए ये सब मेरी मेहनत है.. पिता हैं तो बेटे को पढ़ाना लिखाना तो आपका कर्तव्य ही है ना पापा सभी पिता करते हैं ऐसा कुछ अनोखा काम तो आपने किया नहीं कि जिसे त्याग तपस्या जैसे शब्दों से विभूषित किया जाए
आप तो अपनी पूरी जिंदगी खुद का एक अदद मकान तक बनवा नही पाए….वो तो शुक्र है कि आपका बेटा आज अपनी मेहनत अपने बूते पर इतना शानदार मकान बनवा लिया वर्ना…..रिटायरमेंट के बाद सरकारी आवास से सीधे सड़क पर फेंक दिए जाते…!!नवीन गृहप्रवेश के अवसर पर पिता को मिलने वाली बधाई पर व्यंगात्मक लहजे में बेटे अमर द्वारा कही इस कटुक्ति से विष्णु प्रताप जी मानो सरेआम निर्वस्त्र हो गए थे।
बेटे के मुंह से निकला एक एक शब्द उनके कलेजे को# छलनी छलनी# कर गया था।
शर्मसार से बैठे रह गए थे मानो काठ मार गया हो नज़रे उठाने की हिम्मत नही थी धीरे से डगमग कदमों से जाने को उठे ही थे कि उनकी धर्मपत्नी वसुधा जी ने आकर उनके कांपते हाथ थाम लिए “हां बेटा … तू ठीक कह रहा है आखिर तेरे पिता ने ऐसा क्या किया तुम्हारे लिए..!!
अपना गांव अपना समाज छोड़कर शहर पलायन किया तुम्हारे लिए तुम्हारी बेहतर शिक्षा के लिए..ओवर टाइम करके ज्यादा पैसे कमाए तुम्हारी कॉलेज की फीस के लिए …कई बार मन हुआ खुद की पूंजी जोड़ ले खुद का भी एक मकान बनवा ले अपने सभी साथियों की ही तरह पर रुक गए तुम्हारे लिए …
मेरा बेटा ही तो असली पूंजी है भावी मकान है यही सोचते रह गए…. लायक होते ही बेटे ने अपनी पसंद की लड़की से शादी कर ली पर सारी बिरादरी की थू थू के बाद भी तेरे पिता तेरे ही साथ मजबूती से खड़े रहे तुम्हारी खुशी के लिए….! हांफ गईं थीं वसुधा जी इतना कहने में ही और अमर को तो मानो सांप सूंघ गया था।
….तू कहता है… पिता हैं तो करना ही चाहिए तो ठीक है ये सब करना इनका कर्तव्य मात्र था तो आज तू भी एक पुत्र होने का कर्तव्य पूरा कर दे जैसे बचपन में तेरे डगमग कदमों को मजबूती से सहारा दिया तेरे पिता ने आज तू भी कर दे जैसे साल दर साल तेरे अच्छे खाने पीने पढ़ाई बीमारी स्वास्थ्य उपलब्धियों का ध्यान रखा
तेरे पिता ने तू भी रख ले जैसे तेरी इज्जत को अपनी इज्जत समझा तेरे पिता ने तू भी समझ ले….बस कर मां बस कर छलनी हो गया हूं मैं अपने ही कुबोलों से बीच में ही रोक दिया था हांफती हुई मां को अमर ने।
जितना पापा ने मेरे लिए किया है उसका शतांश भी मैं कभी नहीं कर पाऊंगा मां मुझे माफ कर दे भीगी आंखों से अमर ने लपक कर पिता के डगमगाते कदमों को मजबूती से पकड़ लिया था।
लतिका श्रीवास्तव