पूरा शहर रंग-बिरंगी रोशनी से नहाया हुआ था। पटाखों और बच्चों के शोर अंदर कमरे तक सुनाई दे रहें थें लेकिन दीनदयाल जी अपने कमरे में पत्नी शकुंतला की तस्वीर के आगे बैठे एकटक उन्हें निहारे जा रहें थें।नम आँखों से उनसे शिकायत करने लगे,” मुझे अकेला छोड़कर तुम क्यों चली गई…पिछली दीपावली पर तुमने अपनी पसंद से मेरे लिये कुरता खरीदा था…उसपर रंग-बिरंगे बटन भी….।
विवाह के दो बरस बाद शकुंतला जी ने जब अपने अध्यापक पति दीनदयाल जी को गर्भवती होने की खुशखबरी सुनाई तब वो बोले,” हमें तो पहला बेटा ही चाहिये…खानदान का वारिस और हमारे बुढ़ापे का सहारा।”
” बेटी भी तो बुढ़ापे का सहारा होती है जी…।” शकुंतला जी तपाक-से बोलीं तब वो बोले,” बेटी तो ब्याह के बाद पराई हो जाती है लेकिन बेटा हमेशा अपना होता है।” पति के तर्क के आगे वो निरुत्तर हो गईं थीं।
नौ महीने के बाद शकुंतला जी ने एक पुत्र को जनम दिया।बेटे सुशांत को गोद में उठाकर दीनदयाल जी खुशी-से फूले नहीं समा रहे थें।स्कूल से घर आते ही बेटे के साथ खेलना और उससे बातें करना उनकी आदत बन गई थी।सुशांत के दूसरे जन्मदिन पर शकुंतला जी ने फिर से खुशखबरी सुना दी।
समय पूरा होने पर शकुंतला जी ने जुड़वाँ बच्चों को जनम दिया।पहले बेटा पैदा हुआ और उसके कुछ मिनटों के बाद बेटी का जनम हुआ।उस दिन दीनदयाल जी पत्नी से बोले,” शकुंतला..तुमने तो मेरा जीवन खुशियों से भर दिया है।आज कुछ भी माँग लो…।” तब वो बोलीं,” आपकी खुशी ही मेरी खुशी है..।”
समय अपनी गति से आगे बढ़ता रहा।सुशांत अपनी पढ़ाई पूरी करके एक बैंक में नौकरी करने लगा तब दीनदयाल जी ने अपने ही एक परिचित की बेटी सुलेखा के साथ उसका विवाह करा दिया।निशांत ने इंजीनियरिंग पास करके एक प्राइवेट फ़र्म को ज्वाइन कर लिया।बेटी प्रिया भी बीए के फ़ाइनल ईयर में थी।
शकुन्तला जी प्रिया को विदा करने के बाद ही दूसरी बहू को लाना चाहतीं थीं लेकिन तभी निशांत ने अपनी पसंद की लड़की से विवाह करने का ऐलान कर दिया।तब उन्होंने एक खाते-पीते घर के लड़के मनीष के साथ प्रिया का विवाह तय कर दिया और आपसी विचार-विमर्श करके निशांत और प्रिया की शादी की तारीख ऐसे रखी कि रिश्तेदार एक बार आये तो दोनों विवाह अटेंड कर सके।
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प्रिया अपने ससुराल चली गई और शकुंतला जी अपनी बहुओं की सेवा का आनंद उठाने लगी।साल भर बाद दीनदयाल जी भी सेवानिवृत हो गये और पत्नी के साथ जीवन का आनंद लेने लगे।समय के साथ उनके घर में पोते-पोती की किलकारियाँ गूँजने लगी, उधर प्रिया भी एक बेटे की माँ बन गई थी।
सब कुछ अच्छा चल रहा था, कभी-कभी प्रिया भी अपने मायके का आनंद उठाने आ जाती थी।अपनी बहुओं की सेवा-शुश्रूषा देखकर एक दिन शकुंतला जी बोलीं,” तुम दोनों मेरा इतना ख्याल रखती हो कि मृत्यु भी पास आने से कतरायेगी।”
तब दोनों बहुएँ समवेत स्वर में बोलीं,” मरे आपके दुश्मन…आप तो बस ऐसे ही हमेशा प्रसन्न रहिये।वो कहते हैं ना कि #जिस घर में बुजुर्ग मुस्कुराते हैं उस घर में भगवान का वास होता है।” सुनकर शकुंतला जी तो गदगद हो उठीं थीं।
एक दिन दीनदयाल जी सैर करके लौटे और शकुंतला जी को सीने पर हाथ रखकर बिस्तर पर लेटे देखा तो उनका मन आशंकित हो उठा।पूछा कि क्या हुआ तो वो बोलीं,” कुछ ठीक नहीं लग रहा है…।”आँखें बंदकर लेट गईं।दीनदयाल जी वहीं बैठे थे और कब शकुंतला जी के प्राण पखेरू उड़ गये, उन्हें पता ही नहीं चला।
पत्नी के शोक से दीनदयाल जी अंदर तक टूट गये थे।उस वक्त बेटे-बहू ने उनका खूब ख्याल रखा।प्रिया भी निश्चिंत थी।फिर एक दिन निशांत उनसे बोला,” पापा..अगर आप उचित समझे तो घर का बँटवारा…।”
” हाँ बेटा..तुम वकील को बुलवाकर एक कमरा मेरे पास छोड़कर बाकी दोनों भाई आपस में बाँट लो।” दो दिन बाद उन्होंने कागज़ात पर हस्ताक्षर कर दिये और उसी दिन वो मालिक से एक मेहमान बन गये।उनके खाने-पीने पर बंदिशे लग गई।परिवर्तन का कारण था कि बेटों ने घर में पिता का हिस्सा भी हथिया लिया था।
एक दिन मनीष अपने ससुर से मिलने आये..दीनदयाल जी की स्थिति देखकर उसने तुरंत उनका बैग पैक किया और अपने साथ ले आये।प्रिया और मनीष उन्हें खुश रखने की हर कोशिश करते।उनका नाती भी ‘नाना जी कहानी’ कहता तो वो हँस देते फिर भी उन्हें लगता कि ये तो बेटी का घर है।वापस जाने की ज़िद करते तो मनीष कल पर टाल देते।
समय बीता और फिर दीपावली आ गई।पत्नी की याद और बेटों की दगाबाज़ी याद करके उनकी आँखों से अश्रुधारा बहने लगती….।
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” पापा..आप अंधेरे में…ये लीजिए…जल्दी-से चेंज कर लीजिये..तब तक प्रिया पूजा की तैयारी कर रही है।” कहते हुए मनीष उनके हाथ में बैग थमाकर बाहर निकल गया।
” लेकिन मैं….।” दीनदयाल जी बात अधूरी रह गई, तभी प्रिया की सास आ गईं, बोलीं,” भाई साहब…मैं जानती हूँ कि अपनों के जाने का दुख असहनीय होता है।तीन साल पहले जब मनीष के पापा मुझे अकेला छोड़ गये थे तब मैं जीना भूल गई थी।तब प्रिया ने ही मुझे फिर से हँसना-बोलना सिखाया था।मुझे समझाती थी कि # मम्मी जी,जिस घर में बुजुर्ग मुस्कुराते हैं उस घर में भगवान का वास होता है।आप उदास रहेंगी तो हम कैसे खुश रह सकते हैं।बस तभी से मैंने अपने बच्चों के लिये फिर से जीना शुरु कर दिया तो भाई साहब.. आप क्यों नहीं….।”
” नाना जी..जल्दी चलिये ना…।” नाती को धोती पहने देख उन्हें हँसी आ गई और तुरंत कपड़े बदलने चले गये।उनका कुरता देख नाती खुशी-से चिल्लाया,” नानाजी…सेम पिंच!”
तब दीनदयाल जी ने देखा कि नाना-नाती के कपड़ों में बस साइज़ का फ़र्क है…।उन्होंने मुड़कर पत्नी की तस्वीर को देखा जैसे कह रहें है, तुम कितनी सही थी और मैं कितना गलत…परन्तु मुझे अपने गलत होने का ज़रा भी दुख नहीं है….और वो अपने नाती की नन्हीं अंगुली पकड़कर पूजाघर की ओर चले गये।
विभा गुप्ता
स्वरचित, बैंगलुरु
# जिस घर में बुजुर्ग मुस्कुराते हैं उस घर में भगवान का वास होता है