राधेश्याम जी के छोटे बेटे की शादी को हुए अभी कुल तीन महीने ही हुए थे कि घर का वातावरण कुछ बोझिल सा रहने लगा। हँसती,खिलखिलाती छोटी बहू दीप्ति के चेहरे पर उदासी साफ दिखाई देती थी।
“क्या बात है मीना? दीप्ति बहू कुछ उदास सी दिखाई देती है। जब शादी होकर आई थी, तब कैसे चिड़िया की तरह चहकती फिरती थी सारे घर में बिल्कुल पारुल की तरह। उसके आने से पारुल बेटी की जो कमी महसूस होती थी वह भर सी गई थी। बड़ी बहू नूतन तो शुरू से ही स्वभाव से धीर-गंभीर है। चलो कोई बात नहीं, यह तो प्रत्येक व्यक्ति का अपना स्वभाव है। पर दीप्ति तो चंचल तितली की तरह पूरे घर में अपने रंग बिखेरती फिरती थी। उसे क्या हो गया?” राधेश्याम जी ने अपनी पत्नी मीना से कहा।
“जी! मुझे भी कुछ शंका हुई तो थी पर फिर लगा कि अभय के साथ कुछ कहा-सुनी हुई होगी पर ऐसा भी नहीं है।
जिस तरह से दीप्ति और अभय एक-दूसरे के साथ पेश आते हैं तो लड़ाई-झगड़े की भी कोई गुंजाइश नहीं दिखती।” मीनाजी कुछ चिंतित स्वर में बोलीं।
“कारण तो जानना पड़ेगा मीना। मैं नहीं चाहता कि मेरे घर में कोई भी सदस्य उदास रहे।” राधेश्यामजी ने कहा तो मीना जी ने दीप्ति को अपने कमरे में चाय लेकर आने को कहा।
दीप्ति चाय की ट्रे रखकर जाने लगी।
“दीप्ति बेटा! कुछ देर हमारे साथ बैठो।” मीनाजी ने आग्रह किया।
“जी!मम्मी।” कह कर दीप्ति वहीं पड़ी कुर्सी पर बैठ गई।
“बेटा तुम्हारा यहाँ मन तो लग रहा है न। कोई परेशानी तो नहीं।” राधेश्याम जी ने पूछा।
“जी! पापा! मुझे यहाँ बहुत अच्छा लगता है। बिल्कुल अपने मायके के घर जैसा। लगता ही नहीं कि मैं किसी दूसरे घर में आई हूँ।” दीप्ति ने कहा पर उसकी आवाज़ में पहले की तरह उल्लास नहीं था।
“तो फिर तुम——।” राधेश्यामजी की बात करते हुए मीनाजी बीच में ही बोल पड़ीं,”दीप्ति! दस दिन बाद ही बड़ अमावस्या आ रही है। यह तुम्हारी पहली बड़ अमावस्या है। तुम मेरे साथ बाज़ार चलना। मैं तुम्हें शगुन का सामान दिलवा दूँगी।” मीनाजी ने राधेश्याम जी को चुप रहने का इशारा किया।
“जी! मम्मी!” दीप्ति की आँखों में पानी भर आया।
“क्या बात है दीप्ति? यह आँसू क्यों बेटा?” मीनाजी ने पूछा।
“मम्मी! मुझे माफ़ कर दीजिएगा। मेरे पापा-मम्मी नहीं है और शायद भैया-भाभी को इन रस्मों-रिवाज़ के बारे में ज्यादा कुछ न पता हो। हो सकता है कि त्योहारों पर बहू के मायके से जिस प्रकार शगुन का सामान आता है, वह मेरे मायके से न आ पाए।”कहकर दीप्ति रोने लगी।
“अरे! अरे! यह तुमसे किसने कहा कि हमें तुम्हारे मायके से शगुन का सामान चाहिए। बेटा! क्या तुम इस वज़ह से उदास रहने लगी हो?” कहकर मीनाजी दीप्ति के बाल सहलाने लगीं।
“जी,मम्मी! मेरी सहेलियाँ कह रही थीथीं कि तेरे माता-पिता तो हैं नहीं और भाई-भाभी पर कोई ज़बरदस्ती नहीं होती कि वे त्योहार पर शगुन का सामान भेजें। हो सकता है कि इस वज़ह से ससुराल में तेरा मान और अहमियत कम हो जाए।” दीप्ति सुबकने लगी।
“देखिए तो ज़रा इस पागल लड़की को।” राधेश्यामजी को देखते हुए मीनाजी खिलखिला कर हँस दीं।
“और तुम मान गईं कि ससुराल में मान और अहमियत मायके से आए उपहारों की वज़ह से मिलती है। बिटिया! हमारे खानदान में लेने-देने की जगह रिश्तों में प्यार हो और अपनापन हो, इस बात पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है। पिछले तीन महीनों में तुमने हमारे घर में जो खुशियाँ बिखेरी है, वह अमूल्य हैं। महंगे से महंगे तोहफ़े भी उनकी जगह नहीं ले सकते। आज के बाद यह बात कभी सोचना भी मत।”राधेश्याम जी ने दीप्ति के सिर पर हाथ रख दिया।
“जी, पापा!” दीप्ति के चेहरे पर मुस्कुराहट फैल गई।
“मीनाजी! आप अपनी बहुओं को त्योहार पर शगुन के रूप में जो भी दें पर एक-एक उपहार दोनों बहुओं को इस पिता की तरफ़ से भी ज़रूर दिलाया जाएगा।” राधेश्याम जी बोले।
“वाह, पापा! इसी बात पर मैं आपको गर्मागर्म पकौड़े खिलाती हूँ।” कमरे में आते हुए बड़ी बहु नूतन ने कहा तो सब ज़ोर से हँस पड़े।
स्वरचित
डॉ ऋतु अग्रवाल
मेरठ, उत्तर प्रदेश