तोहफा – डॉ० मनीषा भारद्वाज :

धूप की सुनहरी किरणें श्रीवास्तव जी के छोटे से ड्राइंग रूम में चाय की प्यालियों पर पड़ रही थीं। हवा में गुलाब जल और ताज़ा कटे हुए केक की मिठास मिली हुई थी। आज प्रिया का इक्कीसवाँ जन्मदिन था। उसकी माँ, सुधा जी, परदे को बार-बार समेटतीं, बाहर झाँकतीं। “अरे वाह! फूफी जी आ गईं! देखो तो, क्या शानदार कार है!” उनकी आवाज़ में उत्तेजना और थोड़ा सा तनाव भी था।

प्रिया, जिसने सादगी से कॉटन की सलवार-कुर्ती पहन रखी थी, सोफे के एक कोने में सिमटी बैठी थी। उसकी आँखों में जिज्ञासा थी, पर चेहरे पर एक हल्की सी ऊब भी। “मम्मी, बस कह दो ना सबको कि तोहफे की ज़रूरत नहीं। बेकार का टेंशन लेते हैं सब।”

श्रीवास्तव जी अख़बार सरकाते हुए बोले, “बेटा, ये सब ‘सोशल कम्पलशन’ है। हमें भी तो उनके बच्चों के जन्मदिन पर देना पड़ता है। एक चक्र चलता रहता है।” उनकी आवाज़ में जीवन के इस यांत्रिक नृत्य की थकान थी।

दरवाज़े पर धूम मच गई। फूफी जी, चमचमाती साड़ी और भारी ज़ेवरात में लदी, एक विशाल रिबन लगे डिब्बे को संभालती हुई अंदर आईं। “हैप्पी बर्थडे माय डार्लिंग प्रिया! लो, ये लो तुम्हारा टोकन ऑफ लव!” उन्होंने डिब्बा प्रिया की ओर बढ़ाया। अंदर एक ब्रांडेड परफ्यूम का शानदार सेट था, जिसकी कीमत शायद प्रिया के महीने भर के खर्चे से ज़्यादा थी।

प्रिया ने मुस्कुराने की कोशिश की, “बहुत बहुत शुक्रिया, फूफी जी। लेकिन आपको इतना…”

“अरे नॉनसेंस, डार्लिंग! ये तो बस प्यार का इज़हार है!” फूफी जी ने हवा में हाथ लहराया।

फिर मौसी जी आईं, हाथ में एक सिल्क का स्टोल लपेटा हुआ। “बेटी, तुम्हारे लिए। असली कश्मीरी है। तुम्हारी स्किन टोन के साथ परफेक्ट लगेगा।” उनकी नज़र फूफी जी के परफ्यूम सेट पर चली गई, और चेहरे पर एक अलक्षित प्रतिस्पर्धा की छाया दौड़ गई।

इसी बीच चाचा जी आ धमके, एक नवीनतम स्मार्टफोन के बॉक्स को गर्व से थामे हुए। “लो बिटिया! तुम्हारे ढेर सारे सेल्फी और रील्स के लिए! ओल्ड वाला तो बहुत पिछड़ गया था न?”

कमरा महंगे उपहारों और चटख रंगों वाले रैपर से भरने लगा। प्रिया के चारों ओर बढ़ते गिफ्ट्स के ढेर पर चाचा-मौसियों की बधाइयों की बौछार हो रही थी। वह मुस्कुरा रही थी, “थैंक्यू” कह रही थी, पर उसकी आँखों में चमक नदारद थी। ये सब ‘तोहफे’ उस पर एक अदृश्य बोझ की तरह लद रहे थे, जिसके एवज़ में उसे भविष्य में और बड़ा, और महंगा लौटाना होगा। ये प्यार का इज़हार नहीं, सामाजिक करार की पूर्ति थी।

“अच्छा, केक काटो अब प्रिया!” मम्मी ने चिंतित नज़रों से प्रिया की ओर देखा, शायद उसकी खामोशी को भाँपकर।

तभी दरवाज़े की घंटी बजी। प्रिया खुद दौड़कर गई। दरवाज़े पर उसका सबसे करीबी दोस्त, अविराल खड़ा था। उसके हाथ में कोई चमचमाता डिब्बा नहीं था। बस एक छोटा सा मिट्टी का गमला था, जिसमें एक नन्हा, कोमल हरा पौधा लहलहा रहा था। उसकी पत्तियाँ नई जन्मी जिजीविषा से झिलमिला रही थीं।

“हैप्पी बर्थडे, प्रियू!” अविराल ने मुस्कुराते हुए कहा, गमला आगे बढ़ाते हुए।

प्रिया की आँखें अचानक चमक उठीं। उसने गमला सावधानी से लिया, जैसे कोई नाज़ुक ख़जाना हो। “अवि… ये क्या है?”

“एक मनी प्लांट नहीं है भई!” अविराल हँसा, “बस बाज़ार से आते वक्त रास्ते में एक छोटी सी नर्सरी देखी। इसकी पत्तियों का शेप मुझे तुम्हारी स्केचबुक में बनाए उस पत्ते जैसा लगा… वो तुम्हारा फेवरिट। सोचा, तुम्हारे नए साल की शुरुआत में थोड़ी हरियाली, थोड़ी ज़िंदगी जुड़ जाए।”

प्रिया ने पौधे की एक कोमल पत्ती को अपनी उंगली से सहलाया। एक गहरी, गर्म भावना उसके भीतर उमड़ी। यहाँ कोई दिखावा नहीं था, कोई भारी कीमत का टैग नहीं था। सिर्फ़ था – ध्यान। सच्ची दोस्ती का। उस एक पल में, चमचमाते परफ्यूम बॉक्स, रेशमी स्टोल और नए फोन की चमक फीकी पड़ गई।

फूफी जी की भौंहें तन गईं। “अरे वाह बेटा! ये क्या तोहफा दिया है? एक पौधा? कुछ खास तो ले आते।”

प्रिया ने गमले को अपने दिल के पास लगा लिया। उसके चेहरे पर अब वही असली, गहरी मुस्कान थी जो सुबह गायब थी। “फूफी जी, यही तो सबसे खास है। देखिए ना, कितना नाज़ुक है, पर कितनी ज़िद्दी जान है इसमें! ये बढ़ेगा, फैलेगा… मेरे साथ। ये महज़ एक चीज़ नहीं, ये एक साथी है।”

अविराल शर्माते हुए पैरों को घिसरने लगा। श्रीवास्तव जी अख़बार नीचे रखकर देखने लगे। उनकी आँखों में एक सूक्ष्म समझदारी थी। सुधा जी का चेहरा थोड़ा ढीला पड़ा, शायद प्रिया के शब्दों ने उन्हें भी छुआ था।

“पर बेटा,” चाचा जी ने फोन के बॉक्स की ओर इशारा करते हुए कहा, “ये नया फोन? तुम्हें चाहिए ही होगा।”

प्रिया ने पौधे की ओर देखा, फिर चारों ओर पड़े महंगे उपहारों पर नज़र दौड़ाई। उसकी आवाज़ में एक नई दृढ़ता थी। “चाचा जी, फोन तो एक टूल है। ये पौधा…” वह गमले को थोड़ा ऊपर उठाते हुए बोली, “…ये एक ज़िंदगी है। इसे पानी देना होगा, धूप दिखानी होगी, इसकी देखभाल करनी होगी। ये मुझे रोज़ याद दिलाएगा कि ख़ुद को भी निखारना है, बढ़ना है। ये मेरा सबसे कीमती तोहफा है, क्योंकि इसमें अवि ने सोचा… सच में सोचा कि मुझे क्या अच्छा लगेगा।”

एक पल के लिए कमरे में सन्नाटा छा गया। फिर मौसी जी ने हल्का सा खाँसकर कहा, “हाँ… बहुत सुंदर विचार है बेटा। अच्छी बात है।”

फूफी जी ने अपने परफ्यूम बॉक्स को थोड़ा सा पीछे धकेल दिया।

प्रिया ने अविराल की ओर देखा। उसकी आँखों में कृतज्ञता के साथ-साथ जीवन के एक सरल सत्य की पहचान थी। उसने कहा, बात सिर्फ़ उससे ही नहीं, बल्कि कमरे में मौजूद हर किसी से: “हम अक्सर तोहफे की कीमत उसकी पैकेजिंग या टैग में तलाशते हैं। असली कीमत तो छुपी होती है देने वाले के दिल में, उसकी सोच में… उस पल में जब वह सोचता है कि सामने वाले की ख़ुशी किसमें है। ये छोटा सा पौधा,” उसने उसे सहलाया, “ये मुझे यही याद दिलाएगा। हर दिन।”

श्रीवास्तव जी ने मुस्कुराते हुए अपना चश्मा साफ किया। सुधा जी की आँखें नम थीं। अविराल की मुस्कान चौड़ी हो गई थी।

जन्मदिन का केक काटा गया। मुंह मीठा कराया गया। पर उस दिन कमरे की सबसे गहरी मिठास उस छोटे से मिट्टी के गमले में उग आए नन्हे जीवन से फैल रही थी। प्रिया के लिए वह सिर्फ पौधा नहीं, जीवन के सच्चे रोमांच का प्रतीक था – सादगी का, स्नेह का, विकास का, और उस अनमोल सत्य का कि सबसे बड़ा तोहफा कभी दुकानों में नहीं, दिलों में बसता है। और कभी-कभी, वह सबसे साधारण चीज़ में पलक झपकते ही सबसे असाधारण बन जाता है।

तोहफा कहानी

डॉ० मनीषा भारद्वाज 

ब्याडा ( पंचरूखी ) पालमपुर

हिमाचल प्रदेश

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