शाम ढलने लगी थी। सूर्य देव अस्ताचल की ओर धीरे-धीरे अग्रसर हो रहे थे। आसमान शांत था ।पक्षियों का झुंड कोलाहल करते हुए अपने घोंसले की ओर बढ़ता जा रहा था।
सब कुछ प्रकृति के नियमानुसार ही घट रहा था सिर्फ एक उन्हें छोड़कर।
प्रकृति न जाने क्यों उनके ऊपर कुपित हो गई है ?
सुलभा जी ने एक लंबी सांस ली।
वह अपने छोटे से घर के बाहर एक छोटे से आंगन में कुर्सी डालें बैठी आसमान को निहार रही थीं ,कहीं से सूरज का उजाला उनकी जिंदगी में भी आ जाए मगर उनके हिस्से में तो शाम भी नहीं सिर्फ अमावस भरी रात आ गई थी ।
कुछ दिन पहले तक सब कुछ ठीक चल रहा था।
एक सड़क दुर्घटना में उनके पति जतिन के पैर की हड्डी टूट गई थी। 2 महीने तक बिस्तर पर रहने के बाद जब प्लास्टर कट गया तब भी वह आराम से चलने फिरते में असमर्थ हो गए थे।
डॉक्टर ने कहा था इस उम्र में हड्डी का टूटना ठीक नहीं होता शरीर को थोड़ा आराम चाहिए उनके लिए चलना ही मुश्किल हो गया था तो फिर स्कूटर चलाना तो और भी दुरुह काम। वह स्कूटर भी नहीं चला पा रहे थे जिसके कारण नौकरी भी छूट गई। नौकरी भी नहीं थी सॉरी कोई सरकारी नौकरी नहीं थी जिसे पेंशन का कोई आसरा रहे। बच्चे दोनों बेटे शहर में थे। अगर पति की नौकरी नहीं है तो बच्चों का ही मुंह देखते हुए जिंदगी गुजारना पड़ेगा
उन्हें अपनी जिंदगी अभिश्रापित सी लगने लगी थी।
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चाय का वक्त हो गया था वह उठकर अंदर आ गई। उनके पति जतिन बैठकर टीवी देख रहे थे ।
वह रसोई में आकर दूध का पतीला देखने लगी ।थोड़ा ही सा दूध बचा हुआ था। एक आह उनके अंदर से निकल गई।
“अभी अगर चाय बन जाएगा तो फिर रात में जतिन को क्या दूंगी ?दवा के साथ उन्हें दूध देना जरूरी होता है।”
महीने का आखिरी हफ्ता था। कुछ पैसे जो एफडी किए हुए थे उन्हीं के इंटरेस्ट पर घर का खर्च चल रहा था। रसोई के खाली डब्बे उनका मुंह चिढ़ा रहे थे ।
कई दिनों से जतिन सांभर बनाने के लिए बोल रहे थे। इडली सांभर उनका फेवरेट खाना था मगर वह टालती आ रही थीं ।
एक साधारण सा खाना उनके लिए पहाड़ सा बन गया था।
एक सर्द श्वास उनके अंदर से निकल गई। एक बार भी उनके दोनों बेटों को यह उचित नहीं होता कि पूछे कि आप लोगों को पैसे चाहिए या नहीं।
दबे जुबान से उन्होंने कई बार दोनों बच्चों को कहा भी था “तुम्हारे पापा की अब नौकरी नहीं है ।कुछ पैसे जो जमा थे वह अस्पताल और डॉक्टर में निकल गए। अब बचे पैसे से कितने दिन घर चलेंगे ?”
लेकिन दोनों बच्चों के कान में जूं रेंगे तब तो!
वह चाय बनाकर अपने पति के पास ले गई। वह भी उतनी ही उदास थे।आने वाला भविष्य अंधकारमय था। उन्हें भी समझ में नहीं आ रहा था कि वह अपने टूटे हुए पैर से आखिर क्या करें!
बच्चों के आगे कितना हाथ फैलाएं ?इस उम्र में कहां जाएं? क्या करें??
दूसरे दिन सुलभा जी सामने वाले दुकान में दूध लेने गईं ।
वहां दुकानदार सुलभा जी की जान पहचान का था। उसने सुलभा जी को देखते हुए ही कहा
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“आपको पता है यहां पर एक नया पीजी खुलने वाला है।भाभी जी बहुत ही अच्छा रहेगा मेरी तो बिक्री बढ़ जाएगी।” वह हंसते हुए बोल रहा था।
सुलभा जी की आंखों में एक चमक सी आ गई। वह बड़े ही उम्मीद लेकर घर लौट आईं।
अभी पीजी खुलने में देर थी एक हफ्ते की देर थी ।
उन्होंने अपना माइंड सेट कर लिया था। घर लौटकर उन्होंने जतिन से कहा “यहां पर एक पीजी खुलने वाला है।
“हां,दो सालों से उसके ऊपर काम हो रहे थे।”
“ मैंने कुछ डिसाइड कर लिया है !”
“क्या?”जतिन जी उनकी ओर आश्चर्य से देखते हुए बोले।
“मैं अब इडली सांभर लेकर पीजी के सामने बेचूंगी। हमारी आय का कोई तो स्रोत बनेगा।”
“तुम पागल हो गई हो क्या? इस उम्र में अब तुम इडली सांभर बेचोग”
“कोई काम छोटा बड़ा नहीं होता जी! इज्जत से जिंदगी जीनी चाहिए।आप जरा गौर से सोच कर देखिए हमें अगर बच्चों के पास जाना पड़े तो पूरी तरह से हम उनके ऊपर आश्रित हो जाएंगे और दूसरा उनके पास इतने पैसे भी नहीं कि वह अपने परिवार को छोड़कर हमारी भी जिम्मेदारी उठाएं।
अच्छा होगा कि हम बुढ़ापे में भी अपने पैरों पर ही खड़े रहें और इज्जत से अपनी बाकी जिंदगी काट लें ।
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“तुमने बिलकुल ठीक कहा सुलभा ।मैं भी तुम्हारी मदद करूंगा।”
दोनों पति-पत्नी एक दूसरे को देखकर मुस्कुरा दिए।
घर में इडली बनाने का सांचा था। बाकी सामान वह दुकान से खरीद लाईं।
देखते देखते हफ्ते बीत गए थे।दिन भर लगकर उन्होंने इडली सांभर का सामान तैयार कर लिया ।
पीजी के सामने पेड़ के नीचे उन्होंने अपना स्टॉल लगाया और गरम-गरम इडली सांभर बेचने लगी।
धीरे-धीरे बच्चे बढ़ने लगे और सुलभा जी की आमदनी भी ।
इस उम्र में भी उनकी सोच ने उनके लिए एक नया सूर्योदय ला दिया था।
उनका सही फैसला उनका आत्म सम्मान लौटा दिया था।
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प्रेषिका -सीमा प्रियदर्शिनी सहाय
नई दिल्ली
#एक फैसला आत्मसम्मान के लिए
बेटियां के साप्ताहिक विषय के लिए
पूर्णतः मौलिक और अप्रकाशित रचना।
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