तेरी मोहब्बत ने – विनोद सिन्हा “सुदामा”

मैं उसे जब भी देखता ,जब भी मिलता था तो यह सोचकर मिलता कि या तो आज सब कुछ कह दूँगा या फिर सब कुछ खत्म कर दूँगा..

फिर सोचता आखिर खत्म क्या करूँ…

मेरे दिल मे बसी उसकी बेपनाह मुहब्बत या उसके दिल में बसी  मेरे लिए बेहिंता नफरत..

“दिव्या” मेरे मुहल्ले की भोली भाली सी लड़की..

रूप-गज़ब, उसकी शरबती आँखें ओहोहो क्या कहूँ..उसकी शालीनता.. जब भी देखता जान हलक में आ जाती..

जो जाने कब मेरे दिल की गहराईयों तक उतर गई थी, जिसे छोड़ मैं किसी और की तरफ देखता तक नहीं था..जिसके लिए मैं कुछ भी कर सकता था..

पर उसे मेरी फीलिंग्स के बारे में पता नहीं था और गर रहा भी हो तो मेरे चाल चलन को देख दूरी बनाए रखने में अपनी भलाई समझती थी..

या फिर मन में माँ का डर हो शायद

अपनी सौतेली माँ से काफी डरती थी वो..

और उसकी माँ मुझसे…जाने क्यूँ मुझे देखते ही उसकी सौतेली माँ के फाख्ते उड़ जाते थे..चेहरे पर हवाईयां दिखने लगती थी…

खैर…कितनी बार चाहा कि दिव्या को रोक कर अपने दिल की बात कह दूँ लेकिन कभी हिम्मत नहीं हुई…

राह गुजरती तो मेरी तरफ़ देखना तक गँवारा नहीं समझती थी वह.। मुझे जब भी देखती  नफरत से मुँह बिचकाकर आगे बढ़ जाती…

फिर भी मैं उसे पसंद करता था उसे रोज देखने को तरसा करता था…

हाँ मेरी छोटी बहन शिल्पी को मेरा प्रेमरोग जरूर पता था..अक्सर चिढ़ाती मुझे..भाई ख्वाब देखना छोड़ दे…क्यूँ बेकार अपना वक़्त खराब करता है..वो तुझे पसंद नहीं करती…वैसे भी तेरी हरकतें तेरे चालचलन सुधरने वाले तो हैं नहीं..

और न ही तू कभी सुधरेगा…

मैं कहता….वो कहे न कहे ..पसंद करे या न करे…करता रहूँगा..

आखिर कब तक..

मैं कहता…तब तक जब तक मैं जिंदा हूँ…वो जिंदा है..तब तक जब तक हम दोनों जिंदा हैं..

और गर मैं मर भी गया तो उसके पास आने में बिल्कुल देर नहीं करूँगा…..

चल हट…..पागल…बहन उपहास उड़ाती चली जाती..



मुझे लगता था कि वह मुझसे मुहब्बत करती है..लेकिन कभी किसी तरह की जबर्दस्ती नहीं की उसके साथ ..न कभी उसका रास्ता रोका न कभी किसी तरह की कोई छेड़कानी की उसके साथ..बस मन ही मन प्रेम करता रहा उसे…

शायद इसे ही मुहबत कहते है…आप जिसे चाहते हैं उसे ता उम्र बस निस्वार्थ प्यार करते रहें..पर उसे पाने की जिद्द न करें..

शायद…इसका जिम्मेदार भी मैं ख़ुद और मेरी हरकते ही थी….

सच…

वो दौर भी कितना जादुई था..जब आँखों में सिर्फ़ रंगीन सपनें तैरा करते थे.दिलो दिमाग में हर पल बस नशा ही नशा छाया रहता था.. .न खुद की फिक्र रहती न दुनिया का डर रहता….बस यार दोस्तों की मंडली और हुल्लड़बाजी…

हवा ही कुछ ऐसी चलती थी उन दिनों..अगर इसकी चपेट से बच गए तो ठीक नहीं पाँवों का लड़खड़ाना तय था….

फिर मैं कोई अवतारी पुरूष तो था नहीं कि इस हवा से बच जाता…अतः मेरा बहकना भी लाजमी हो गया…यार दोस्तों के साथ मैं भी उसी दौर का होकर रह गया…

रोज़ कॉलेज से बंक मारना…जरा जरा सी बात पर….कॉलेज के लड़कों से झगड़ जाना..

गली के चौक पर सिगरेट के छल्ले तो ऐसे उड़ते मानों धुओं का बादल मंडरा रहे हों..दिन भर इतनी विषैली गंध फैली रहती थी कि लोगों का आना जाना तक मुहाल होता..

कितनी बार तो पिता जी की सेकनी से सेका भी जा चुका था मैं..इतनी मार पड़ती इतनी मार पड़ती कि दुखता बदन दिन भर नागिन डाँस करता रहता…

मौका देख माँ भी अपनी चरणपादुका का दो चार स्वाद चखा ही देती…

पर मैं निर्लज्ज कहाँ सुनने और सुधरने वाला..

उम्र ही कच्ची थी मेरी..क्या करता

फिर वही यार वही दोस्त वही धमाचौकड़ी..

मुहल्ले के संभ्रांत लोग हम यार दोस्तों को आवारा नकारा… हुल्लड़बाज.. नशेड़ी..सिनेमची जाने किन-किन उपाधियों से नवाज़ रखा था…

मुहल्ले की लड़कियाँ तो हमें देख ऐसे नाक मुँह सिकोड़ती थी मानों हम सब कूड़ा करकट हो कोई या फिर सड़ांध समझती होंगी.

सच कहें तो मुहल्ले का शायद ही कोई ऐसा घर था जहाँ हमें इज्ज़त भरी नज़रों से देखा जाता था…

पर हमें इन सब की कोई फिक्र न थी न ही कोई चिंता कि कौन क्या सोचता है..हमें तो बस हमारी  रंगमीजाजी से मतलब था….हम पाँच यारों को अपनी यारी से मतलब था..



हाँ एक बात थी परीक्षाओं के समय हम लोग कब छुप छुपा के पढ़ लेते थे किसी को कोई खबर नहीं होती…जैसे तैसे हम सभी पास भी हो जाते…

लोग कहते चोरी चमारी कर के पास हो गया. ..वरना सिनेमा हॉल छोड़ कॉलेज कब जाते सभी..दिन भर तो आवारागर्दी करते फिरते हैं..

सच भी था..कोई भी नई फिल्म आई नहीं कि फस्ट डे फस्ट शो बुक..समझें…

उस दिन दिव्या भारती की फिल्म रंग की रिलीज डेट थी…दोस्तों ने पहले दिन पहली शो का टिकट बुक कर रखा था…पर मेरा मन फिल्म देखने जाने का बिल्कुल भी नहीं था…अमूमन दिव्या की फिल्म मैं छोड़ता नहीं था.. एक तो “दिव्या” नाम से लगाव था दूसरी मैं “दिव्या” को पसंद करता था.उसकी जितनी भी फिल्में आईं शायद ही कोई फिल्म फस्ट डे फस्ट शो नहीं देखा हो..एकाद रह गई हो तो याद नहीं…लेकिन इस फिल्म के जारी होने से तीन महीने पहले ही दिव्या भारती की मृत्यु हो गई थी और यह फ़िल्म उसकी याद में समर्पित थी..मैं दिव्या का बड़ा प्रसंशक था अतः उनकी मृत्यु से थोड़ा दुखी था..मन और दुखी न हो…इसलिए फिल्म देखने नहीं जाना चाहता था फिर भी मन मार कर जाना पड़ा…

यारों की बात टाली नहीं जाती…हम सभी दोस्त समय से सिनेमाघर पहुँच गए थे..काफी भीड़ थी..हम सभी अपनी अपनी सीट पर बैठ गए थे…फिल्म शुरु हो चुकी थी…

फिल्म का पहला गाना

“तेरी मुहबत ने दिल में मकाम कर दिया”

चल रहा था…मैं अभी सोच ही रहा था कि यह गाना दिव्या पर क्यूँ नहीं फिल्माया गया…अगर उसपर फिल्माया होता तो और अच्छा होता…

तभी मेरे मोबाईल पर मेरे छोटी बहन का फोन आया….दिव्या को देखा क्या..??

मैंने बोला हाँ…उसी की फिल्म देख रहा हूँ…

उधर से बहन की आवाज़ आई..पागल मैं मुहल्ले की दिव्या की बात कर रही..उसकी नहीं जो स्वर्ग सिधार गई… “दिव्या” सुबह से दिखी नहीं….मुझे भी कुछ बताकर नहीं गई..यहाँ हो हल्ला मचा है…उसका कहीं अता पता नहीं… अपने घर पर भी नहीं.. उसके पापा ने पास पड़ोस सगे संबंधियों सभी से पूछ लिया.

सभी तुम पर ही शक कर रहें…

पर मैं तो यहाँ दोस्तों के साथ फिल्म देख रहा..

फिल्म छोड़ जल्दी भाग कर घर आ..

मुझे तो उसकी माँ पर शक हो रहा..

बहन ने कहा…

आता हूँ कहकर..

मैंने सारी बात अपने दोस्तों को बताई..जाने क्या सोच सभी फिल्म देखे बिना ही मेरे साथ हो लिए…



हम सभी भागे भागे…घर पहुँचे..हड़बड़ाहट में हाँथ में जलती सिगरेट भी नहीं फेंक पाया था मैं..

माँ ने आँखें तरेर कर देखा तो ध्यान आया..

मैंने जल्दी से सिगरेट पास वाले नाले में डाल दिया…

मुहल्ले की भीड़ मुझे किसी मुजरिम की तरह देख रही थी…पर माँ जानती थी मैं लाख बुरा सही पर ऐसा कुछ नहीं करूँगा ..जिससे उसे शर्मशार होना पड़े..शायद पापा को भी विश्वास था पर मेरी हरकतों से परेशान थे..

मैंने दिव्या के पापा से पूछा..पहले तो उन्होंने ने कुछ नहीं कहा लेकिन मेरे बार बार पूछने पर पहली बार उन्होंने मुझसे खुलकर बात की थी..आज उनकी नज़रों में मेरे प्रति नफरत नहीं बल्कि बेटी के लिए डर बसा था…

वो कहते हैं न जब वक़्त बुरा चलता रहता है तो आपके चाहने वाले भी आपसे नफ़रत करने लगते हैं और जब वक़्त अच्छा हो तो आपके आलोचक भी आपके प्रशंसक बन जाते हैं..मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा था…

आज हम सभी लफ़ंगे मुहल्ले के हीरो बन गए थें..जहाँ कल हमें देख सबकी नज़रें आग उगलती थी आज उनकी नज़रो में हमारे प्रति इज्ज़त और प्यार भरा था..

हुआ यूँ था कि दिव्या अपनी सौतेली माँ को बिल्कुल नहीं सुहाती थी…वो रोज़ दिव्या को खूब मारती और पीटती थी..दिव्या सब चुप चाप सहती रहती थी.और सब कुछ जान समझकर भी दिव्या के पापा कुछ नहीं कहते थे….रात उस सौतेली माँ ने अपने भाई के साथ मिलकर दिव्या का सौदा कर दिया था..और दिव्या के सौतेले मामा ने ही दिव्या को बेहोश कर सभी से छुप छुपाकर उठा ले भागा था..और किसी दूसरे शहर..ले जा रहा था..

दिव्या की माँ मुझसे डरती तो पहले से ही थी..मैंने डरा धमकाकर दिव्या की माँ से सारा सच उगलवा लिया था..कहाँ गया कैसे गया सब जान  उसके पीछे अपने दोस्तों को लेकर भागा…और उसके शहर छोड़ने से पहले जा दबोचा था…और दोनों को मुहल्ले ले आया था..

दिव्या अपने घर आ चुकी थी और पुलिस उसकी सौतेली माँ और मामा को अपने गिरफ्त में ले चुकी थी..

मैं दिव्या को उसके पिता के हवाले कर..

दोस्तों के साथ…गली की ओर छल्ले उड़ाने के लिए बढ़ गया..

बढते कदम के साथ मेरे लब स्वतः गुनगुनाने लगें..

तेरी मुहब्बत ने दिल में मकाम कर दिया..

थोड़ा मुड़कर देखा तो दिव्या मेरी बहन की ओट लिए मुझे देख मुस्कुरा रही थी…

मैं समझ गया लड़की हँसीं तो फँसी

ऐसा महसूस हो रहा था कि मानो वह भी कह रही हो..

मैंने भी अपना दिल जान तेरे नाम कर दिया..

तेरी मुहब्बत ने दिल में मकाम कर दिया..

विनोद सिन्हा “सुदामा”

 

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