त्याग – डॉ.अनुपमा श्रीवास्तवा

“माँ! पिताजी हरदम एक ही राग क्या अलापते रहते हैं??

काम के ना काज के दुश्मन अनाज के!

मुझे उनके मुहावरे बिल्कुल भी पसंद नहीं हैं कह देना उनसे! जब से रिटायर क्या हुए हैं जीना हराम कर दिया है उन्होंने। जब देखो नसीहतों का पिटारा लेकर बैठ जाते हैं। खाली दिमाग….!”

माँ ने जोर से डांटा- “किसे बोल रहा है तू!!”

पता नहीं, फिर आज किस बात पर दोनो की तकरार हो रही है।माँ को इसी बात का डर बना रहता था कि कहीं किसी बात का बत्ंगड़ ना हो जाय। जब से रिटायर हुए हैं बेटे के भविश्य को लेकर परेशान रहते हैं। कुछ चिड़चिड़े भी हो गये हैं।

कितनी बार समझाया है कि जब बच्चा बड़ा हो जाये तो बाप को उसे अपना मित्र समझना चाहिए। लेकिन कहने का कोई फायदा नहीं भिड़ जाना है बेटे के साथ!

बेटा तीसरी बार फिर से प्रतियोगी परीक्षा में असफल हुआ था। पिताजी के नाराज होने का कारण भी वही था। उनका कहना था कि किसी चीज की कमी नहीं कर रहा हूँ फिर क्या परेशानी है जिसकी वजह से पढ़ाई अधूरी रह जा रही है। लगता है फिर से उसे कुछ कह दिया होगा।


“क्या हुआ?”- कहते हुए माँ बैठक में भाग कर आई।

“क्या हो गया फिर से जो आप बेटे को डाटें जा रहे हैं?

     होगा क्या! दिन-रात मोबाईल में घुसा रहेगा तो कहां से       सफलता मिलेगी! टोक दिया तो मुझे ही समझा रहा है।

“पिताजी आपने ध्यान नहीं दिया वर्ना मैं कहीं सेटल रहता।”

       “तुम्हीं बताओ क्या कसर छोड़ा है इसकी पढ़ाई में! क्या    नहीं किया मैनें इसके लिए! अपना सारा सुख त्याग कर इसकी खुशी में लगा रहा। जब जिस चीज की मांग रखी वो लेकर दी। फिर भी इसे शिकायत है कि मैनें ध्यान नहीं दिया।”

“माँ ने बेटे को समझाया- “बेटा तू ही बता की तू क्या करने के लिए कह रहा है?”

“माँ “ढंग की नौकरी के लिए सोर्स के साथ फोर्स की भी जरूरत है आज के समय में।”

“क्या मतलब है तुम्हारा? इतना पढ़ने लिखने के बाद भी तू मूर्खो वाली बात करता है।”


“माँ तुम समझती नहीं हो! अब वो समय नहीं रहा जब आसानी से नौकरी हो जाती थी। बीए पास किया ऑफिस में बाबु बन जाते थे लोग। दुनियाँ में आजकल सब कुछ पैसो से ही होता है!

पिताजी ने बीच में ही बात काटते हुए कहा- “सबसे बड़ा समझदार तू ही है! मुझे जितना करना था मैनें किया। अब इससे ज्यादा कुछ नहीं कर पाऊँगा। तुम्हें जो करना है करो!

“क्या किया है आपने?”

वह गुस्से से दांत किटकिटाने लगा।

पिताजी ने कहा -“क्या नहीं किया! अपने सारे सुख-चैन को तेरी जरूरतों पर न्योछावर कर दिया। जन्म से लेकर आज तक कर ही तो रहा हूँ। अब क्या करना बाकी है!

“हाँ तो कौन सा नया काम किया है आपने,सब पिता अपने बच्चों के लिए करते हैं। आप अपना ही गुणगान करते रहते हैं!

यह त्याग किया वह त्याग किया। अभी देखा कहाँ कि लोग अपने बच्चों के लिय  क्या-क्या  त्याग करते हैं, दखते तब समझ में आता कि त्याग करना किसे कहते हैं!

पिताजी भी गुस्से में आकर बोले- “ठीक है-ठीक है,मुझे नहीं पता तुम ही बता दो ना!”

“शर्मा अंकल का एक्सीडेंट याद है ना आपको।”


“हाँ याद है…तो?”

वह एक्सीडेंट थोड़े ही था…उन्होनें जान बुझकर खूद को छत से गिरा दिया था ताकि उनकी जगह पर उनके बेटे की नौकरी हो जाय।

“इसको कहते हैं त्याग!”

स्वरचित एवं मौलिक

डॉ.अनुपमा श्रीवास्तवा

मुजफ्फरपुर ,बिहार

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