तकरार – डाॅ संजु झा : Moral stories in hindi

कभी-कभी छोटी-सी तकरार भी बहुत  बड़ी हो जाती है।इस तकरार में व्यक्ति का अहं बीच में आ जाता है,जिसका परिणाम परिवार और समाज को भी भुगतना पड़ता है।तकरार से सम्बन्धित कहानी प्रस्तुत है।

काफी दिनों के बाद मुझे ननिहाल जाने का मौका मिला।ननिहाल से बच्चों का विशेष लगाव होता है।ननिहाल की एक बात मुझे बहुत अच्छी लगती है कि वहाँ लोग बच्चों को उसके माँ के नाम से जानते हैं।वहाँ माँ का अस्तित्व-बोध मन में एक अव्यक्त खुशी भर देता है।

बचपन में तो हमेशा ननिहाल जाने का अवसर मिलता था,परन्तु जैसे-जैसे बड़ी होती गई, ननिहाल जाना कम हो गया।इस बार ऐसा संयोग  बना कि  बहुत  दिनों बाद ममेरे भाई की शादी में ननिहाल जाना हुआ।वहाँ पहुँचने पर सभी ने गर्मजोशी से स्वागत किया। बच्चे किशोर हो चुके थे।जवान चेहरे प्रौढ़ हो चुके थे और प्रौढ़ चेहरे जीवन की सान्ध्य वेला की और बढ़ चुके थे। कुछ  बच्चों की किलकारी से घर-आँगन गूँज रहा था।सभी के आदर -सत्कार से विह्वल मन में महसूस हो रहा था कि रिश्तों की गर्माहट बनाए रखने के लिए मेल-मिलाप भी बहुत  जरुरी है।

ममेरे भाई की शादी अच्छी तरह संपन्न हो गई। अगले दिन सुबह-सुबह खुले आँगन में हाथों में चाय का प्याला लिए हुए गाँव के प्राकृतिक वातावरण का आनंद ले रही थी।प्रकृति के मनोरम दृश्यों को देखकर हृदय रुपी कमल खुशी से खिल रहा था।आँगन से ही उगते हुए भास्कर की लाली सम्मोहित कर रही थी।

सामने पेड़ों पर पक्षियों के हृदयग्राही कलरव कानों में सुमधुर संगीत घोल रहे थे।सौरभयुक्त प्रातःकालीन समीर के मंद-मंद झोंके शरीर में एक अलग ही एहसास भर रहे थे।खिले हुए पुष्प अपनी रमणीयता से नेत्रों को शीतलता प्रदान कर रहे थे।इन दृश्यों को देखकर ऐसा महसूस हो रहा था मानो शहरी जीवन की आपा -धापी में बहुत कुछ छूट गया हो।

अचानक बगलवाले ठाकुर साहब की हवेली की हलचल से मेरी तंद्रा भंग हो गई। काफी मजदूर, रैयत,हलवाई  ठाकुर साहब की शान में कसीदे पढ़ते हुए  उनके घर की ओर जा रहे थे।एक-दूसरे से कह रहे थे-” परिवार की शान और इज्जत  रखने वाला रतन ठाकुर जैसा बेटा ईश्वर सभी को दें।”

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मैंने अपनी नानी से पूछा -” नानी!ठाकुर साहब ने ऐसा क्या कर दिया था कि मरने के इतने सालों बाद भी लोग बरसी पर उनका गुणगान कर रहें हैं?”

मेरी बात सुनकर  नानी ने ठाकुरों के तकरार की कहानी सुनानी आरंभ की।आजादी के बाद  जमींदारों की तो जमींदारी चली गई, परन्तु उनकी अकड़,शानो-शौकत और घमंड में कोई कमी नहीं आई। जमींदारी प्रथा का उदय भी अंग्रेजों के समय हुआ और अस्त भी अंग्रेजों के समय ही।

जमींदारी जाने के बाद  भी ठाकुर  रतन सिंह के दादा श्याम सिंह के पास काफी जमीनें  थीं।श्याम सिंह के दो बेटे थे-सोहन सिंह और मोहन सिंह। ठाकुर सोहन सिंह के चार बेटे और एक बेटी थी।ठाकुर रतनसिंह उनका छोटा बेटा था। दूसरे भाई ठाकुर मोहन सिंह को दो बेटियाँ और एक बेटा ठाकुर उमेश सिंह था।

स्वाभाविक-सी बात है कि बचपन में भाईयों में कोई मनमुटाव नहीं होता है,परन्तु जैसे-जैसे बड़े होते जाते हैं,उनमें कभी पत्नी,कभी बच्चे तो कभी संपत्ति को लेकर विवाद उठ खड़ा होता है।यही हाल ठाकुर सोहन सिंह दोनों भाईयों के बीच हो रहा था।ठाकुर सोहन सिंह को अपने चार बेटों का घमंड था,तो ठाकुर मोहन सिंह को अपने एकलौते वारिस ठाकुर उमेश सिंह पर।मोहन सिंह अपने बड़े भाई को दंभ के साथ कहते -” भैया!आपकी जमीन के तो चार टुकड़े होंगे,परन्तु मेरी जमीन का कोई बँटवारा नहीं होगा।मेरी पूरी संपत्ति का वारिस मेरा एकलौता बेटा उमेश ही है!”

सोहन सिंह पलटवार करते हुए छोटे भाई  मोहन सिंह को कहते -” सोहन!मेरे जैसा भाग्यशाली कौन होगा,जिसके चार बेटे खुद कंधा देंगे?”

दोनों भाईयों में इस तरह की छोटी-मोटी तकरार चलती रहती।दोनों भाईयों के तकरार से सोहन सिंह की पत्नी सुनयना का मन व्यथित रहता।मन-ही-मन उस तकरार का हल सोचते हुए सुनयना ने अपने पति से कहा -“क्यों न मैं अपनी भतीजी उमा की शादी देवर मोहन सिंह के बेटे उमेश से करवा दूँ?इससे रिश्तों में गर्माहट आ जाएगी!”

ठाकुर सोहन सिंह को भी पत्नी सुनयना का विचार पसन्द आया।उन्होंने अपने भतीजे ठाकुर उमेश सिंह की शादी अपनी पत्नी की भतीजी उमा से करवा दी।अब बुआ-भतीजी आस-पास ही घरों में रहतीं थीं।बुआ सुनयना भतीजी उमा को बहुत प्यार करती थी।भतीजी उमा को सास नहीं थीं,इस कारण बुआ सुनयना ही सास बनकर उमा के सारे तीज-त्यौहार करवाती।

सब कुछ अच्छा चल रहा था।एक दिन अचानक ठाकुर मोहन सिंह की हृदयाघात से मृत्यु हो गई। काल के चक्र को भला कौन समझ पाया है?अब ठाकुर उमेश सिंह पिता के बिना अकेला पड़ गया।इधर सोहन सिंह के बेटे अपनी संख्या बल के उन्माद में ठाकुर उमेश सिंह पर हावी होने की कोशिश करने लगें,परन्तु ठाकुर उमेश सिंह  की रगों में भी ठाकुरों का खून था।वह भी उनकी तकरार का जमकर प्रतिकार करता।

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ठाकुर सोहन सिंह की पत्नी अपने बेटों को समझाते हुए कहतीं -” देखो बच्चों!ठाकुर उमेश सिंह से हमलोगों का दोहरा रिश्ता है।एक तो वह तुम्हारा चचेरे भाई  है,दूसरा उसकी शादी तुम्हारे मामा की बेटी से हुई है।इस कारण तुमलोग रिश्तों की मर्यादा को समझो।”परन्तु सदियों से तो नारी की आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज  ही साबित हुई है।सुनयना जी की बातें बेटे एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देते।

उसी समय मामी आवाज देती हुई कहती है-” अब आकर तुमलोग खाना खा लो।कहानियाँ तो चलतीं ही रहेंगी।”

नानी ने भी खाना खाने चलने का इशारा किया।मुझे तो कहानी सुनने में रोचकता और उत्सुकता का अनुभव  हो रहा था।इस कारण  नानी से मैंने कहा -” नानी!खाने के बाद कहानी पूरी कर देना।कल मैं मन में अधूरी कहानी लेकर नहीं लौटूँगी।”

नानी ने प्यार से सिर पर हाथ फेरते हुए  सहमति जताई। जैसे ही खाना खत्म  हुआ, वैसे ही मैं नानी को फिर से कहानी सुनाने का आग्रह करने लगी।

 आगे की कहानी सुनाते हुए  नानी ने कहा कि बढ़ती हुई तकरार से ठाकुर उमेश सिंह और उनकी पत्नी उमा भी परेशान रहने लगें।एक दिन उमा ने अपने पति से कहा -“क्यों न हम यहाँ से थोड़ी दूर पर अपना दूसरा घर बनवा लें,जिससे आपसी

 सम्बन्ध भी सौहार्दपूर्ण बने रहेंगे?”

ठाकुर उमेश सिंह ने पत्नी की बात मानते हुए गाँव के दूसरे छोर पर अपना आलिशान घर बनवाया।वहीं जाकर पत्नी और बच्चों के साथ रहने लगें

परन्तु कहा गया है कि सम्बन्धों में अगर थोड़ी सी भी तकरार आ जाएँ,तो उसे बड़ी दुश्मनी बनने में देर नहीं लगती है।यहाँ भी वही हो रहा था।रिश्तों में कड़वाहट बढ़ती जा रही थी।उनलोगों के घर तो अलग हो गए थे,परन्तु जमीनें तो एक ही जगह थीं।जमीनों का बँटवारा तो लगभग उनके पिता के समय ही हो गया था,परन्तु एक जमीन की टुकड़ी ऐसी थी,

जिस पर दोनों पक्ष अपना हक जता रहें थे।उस जमीन को लेकर आए दिन तकरार होती रहती।एक दिन तकरार बढ़ जाने पर ठाकुर उमेश सिंह  ने अपना हक जताते हुए रातों-रात उस जमीन पर दीवार खड़ी कर दी।अगले दिन जब सोहन सिंह  के बेटों को  जब ये बात पता चली,तो उन्होंने मजदूरों से वह दीवार गिरवी दी।

अब तकरार का रुप विकराल हो चुका था।एक पक्ष उस जमीन पर दीवार  डालता,दूसरा पक्ष उसे गिरा देता।यही सिलसिला चलने लगा।पुलिस के पास ये मामला पहुँचा,परन्तु दोनों पक्ष के लोग अपनी जिद्द पर अड़े हुए थे।दोनों पक्ष उस जमीन को अपनी नाक का सवाल मान बैठे थे।अब वह जमीन ,जमीन न रहकर प्रतिष्ठा का सवाल बन गई थी।

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तकरार का रुप वीभत्स हो चुका था।अब खून-खराबें शुरु हो चुके थे।दीवार जोड़ने-तोड़ने के क्रम में जो मजदूर, मिस्री या परिवार का सदस्य पकड़ा जाता ,उसी का खून हो जाता।देखते-देखते कुल मिलाकर दोनों तरफ से लगभग बीस खून हो चुके थे।पुलिस भी इन दबंग परिवारों के समक्ष हार मान चुकी थी।चारों भाईयों में ठाकुर रतन सिंह का खून बहुत गर्म था,उसपर उसके पिता और भाई दुश्मनी की चिंगारी को हवा दे रहें थे।वकालत पढ़ने के कारण ठाकुर रतन सिंह खुद को ज्यादा बुद्धिमान समझते थे।

ठाकुर उमेश सिंह भी अपने आप को उनलोगों से कम नहीं आँकते थे।किसी भी परिस्थिति में महज  एक जमीन के टुकड़े पर अपनी मिल्कियत नहीं छोड़ना चाहते थे।उनका भी खून ठाकुर रतन सिंह जितना ही गर्म था।इतना खून हो जाने पर भी कोई पक्ष झुकने को तैयार  नहीं था।उस समय तो मीडिया,फोन या इंटरनेट की सुविधा नहीं थी,इस कारण आस-पास के कुछ गाँवों तक ही इस बात की चर्चा थी।दोनों पक्ष दबंग परिवार से थे।पुलिस बार-बार दोनों परिवारों के बीच सुलह कराने का प्रयास करती,परन्तु नतीजा वही ढ़ाक के तीन पात निकलता।

तकरार के वीभत्स रुप से ठाकुर रतन सिंह की माँ आतंकित हो चुकीं थीं।एक बार फिर उन्होंने अपने छोटे बेटे रतनसिंह को समझाते हुए कहा -” देखो बेटा!इतने खून हो चुके हैं।अब बस भी करो।उमेश ठाकुर मेरी भतीजी उमा का पति है।मैंने उसका ब्याह करवाया है।उसके पति को कुछ हो गया,तो मायके में अपने भाई-भाभी को मैं क्या मुँह दिखलाऊँगी?”

परन्तु माँ सुनयना देवी की आवाज  भी बस अरण्य-रोदन बनकर रह गई। उल्टे उनकी बातों का जबाव देते हुए ठाकुर रतन सिंह ने कहा -” माँ!सारे फसाद की जड़ ठाकुर  उमेश सिंह ही है।जबतक वह जिन्दा रहेगा,तबतक खून खराबा बन्द नहीं होगा।”

सुनयना देवी अपने पति और बेटों के समक्ष बेबस-सी,लाचार थीं।जब बेटे और पति उनकी बातें नहीं सुन रहें थे,तो थक -हारकर उन्होंने मध्यस्थता करने के लिए अपने दामाद समरेश सिंह को बुलवाया।समरेश सिंह ने दोनों पक्ष को आमने-सामने बिठाकर कहा -“देखो!जमीन की एक टुकड़ी की कीमत तुमलोगों के लिए कुछ भी नहीं है।इस कारण आपसी दुश्मनी और खून-खराबे को छोड़कर सुलह कर लो।”

परन्तु दोनों पक्ष में कोई झुकने को तैयार नहीं था।उमेश ठाकुर ने प्रत्युत्तर में कहा -” जीजा जी!वह जमीन की टुकड़ी नहीं है,वरन् हमारी आन है।इस कारण उसे छोड़ना नामुमकिन है!”

समरेश सिंह की मध्यस्थता का परिणाम सिफर ही रहा।अगले दिन  ससुराल में सुबह-सुबह समरेश सिंह टहलने निकले।सभी ने बाहर जाने से मना किया,परन्तु समरेश सिंह ने बेफिक्री से कहा -” दुश्मनी तो तुमलोगों की आपस की है।मुझे क्या डरना है?”

दोनों पक्षों में दुश्मनी इतनी बढ़ चुकी थी कि  उसी दिन सुबह समरेश सिंह का खून हो गया।अब तो  ठाकुर सोहन सिंह के परिवार में हाहाकार मच गया।एकलौती बहन को विधवा रुप में देखकर ठाकुर रतनसिंह  ने कसम खाते हुए कहा -” मैं प्रण  लेता हूँ कि जबतक ठाकुर  उमेश सिंह को मौत के घाट नहीं उतार देता हूँ,तबतक चैन से न बैठूँगा।”

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अब ठाकुर  रतन सिंह दिन-रात ठाकुर  उमेश सिंह की गतिविधियों पर नजर रखने लगा।अब जमीन की टुकड़ी छोड़कर ठाकुर उमेश सिंह जान बचाने की जुगत में था और ठाकुर रतन सिंह उसकी जान लेने की फिराक  में।ठाकुर उमेश सिंह ने चुपचाप गाँव छोड़कर पटना के गेस्ट हाउस में शरण लेकर ली थी।वे हमेशा अपने साथ अंगरक्षक रखते थे।बिना अंगरक्षक  के कहीं बाहर नहीं निकलते थे।

ठाकुर रतन सिंह भी कुत्ते की तरह सूंघने हुए पटना पहुँच गए। ठाकुर उमेश सिंह के पटना -प्रवास की सारी जानकारियाँ इकट्ठी कर ली।ठाकुर रतन सिंह को पता चल चुका था कि ठाकुर उमेश सिंह अपने अंगरक्षकों के साथ शाम छः बजे बाहर  टहलने निकलते हैं।

 ठाकुर  रतन सिंह  ने देखा कि  गेस्ट हाउस के मुख्य दरवाजे पर बहुत से घने पेड़ लगे हुए हैं।योजनानुसार सुबह-सुबह चार बजे ही ठाकुर रतन सिंह एक घने पेड़ पर चढ़कर बैठ गए। पेड़ पर छिपकर दिनभर इंतजार किया।शाम चार बजे से ही हाथ में पिस्तौल पकड़े मुख्य दरवाजे पर टकटकी लगाए रहें।इंतजार की घड़ियाँ खत्म होने का नाम नहीं ले रहीं थीं।

जाड़े का समय था,शीघ्र ही अंधेरा होने लगा था।ठाकुर  रतन सिंह  के लिए  एक-एक पल का इंतजार सदियों का इंतजार महसूस हो रहा था।ज्यों-ज्यों समय नजदीक आ रहा था,त्यों-त्यों ठाकुर  रतन सिंह के हाथों में मौजूद  पिस्तौल की पकड़ मजबूत होती जा रही थी।इंतजार की घड़ियाँ खत्म हुईं।

अचानक सामने से गेस्ट हाउस के मुख्य  दरवाजे से ठाकुर  उमेश सिंह अपने अंगरक्षकों के साथ बाहर निकलते दिखे।चीते की फूर्त्ति दिखाते हुए  ठाकुर रतन सिंह  पेड़ से नीचे कूदकर ठाकुर उमेश सिंह के सामने पिस्तौल तानकर खड़े हो गए। ठाकुर उमेश सिंह के सारे अंगरक्षक भाड़े के टट्टू ही साबित हुए।

सभी ठाकुर उमेश सिंह को छोड़कर भाग खड़े हुए। ठाकुर  रतनसिंह  ने ठाकुर उमेश सिंह के सीने में दनादन गोलियाँ उतार दी।ठाकुर  उमेश सिंह की मौत की पुष्टि कर लेने के बाद ठाकुर रतन सिंह वहाँ से भागकर गंगा किनारे आकर खड़े हो गए। साँसों की गति नियंत्रित करते हुए ठाकुर रतन सिंह एकटक गंगा की उफनती धारा को देख रहे थे।उन्हें महसूस हो रहा था मानो गंगा उनसे कह रही हो-” बेटा!तुम मेरी गोद में आ जाओ,मैं तुम्हें विपत्ति से निकालुँगी।”

ठाकुर  रतन सिंह  न तो गंगा की उफनती धारा से भयभीत हुए  ,न ही उसके हिम से शीतल जल से।अचानक से ठाकुर रतन सिंह गंगा की धारा में कूद पड़े।कुशल तैराक  तो वे थे ही,कानून के जानकार होने के कारण उन्होंने पिस्तौल को गंगा की बीच धारा में फेंक दिया।चार घंटे तैरकर रात में अपने घर पहुँच गए और कपड़े बदलकर  घर में आराम से सो गए। 

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कुछ चश्मदीद ने गवाही देते हुए  कहा कि ठाकुर रतन सिंह ने हत्या की है।अगले दिन सुबह-सुबह पुलिस ठाकुर रतन सिंह के घर पहुँची और रतन सिंह को आराम से सोते हुए पाया।उस समय तो आवागमन की सुविधा बहुत कम थी,इस कारण पुलिसवाले आपस में बातें करते हुए कहते हैं -” अगर पटना में ठाकुर रतन सिंह ने हत्या की होती तो किसी सूरत में सुबह-सुबह यहाँ नहीं पहुँच सकता था।”

पुलिसवाले गंगा तैरकर आने की बात  सोच भी नहीं सकते थे।ठाकुर  रतन सिंह  साक्ष्य के अभाव में अदालत से बरी हो चुके थे।रतन सिंह  ने वकालत की पढ़ाई की थी,जिसका फायदा उन्होंने खूब उठाया।उसके बाद खूनी खेल बन्द हो चुका था,परन्तु  फिर  सुनयना जी जीवित  रहते कभी मायके नहीं गईं।सभी से अपने दिल की पीड़ा सुनाते हुए कहतीं -” मायके जाकर भाई-भाभी को क्या मुँह दिखलाऊँगी।”

कहानी समाप्त करते हुए नानी ने कहा -” बिटिया! आज उसी ठाकुर  रतन सिंह  की बरसी है।तकरार बहुत बुरी चीज है।कभी भी तकरार को वीभत्स  नहीं बनने देना चाहिए ।”

मैं तकरार की ऐसी भयानक कहानी सुनकर हतप्रभ-सी रह गई। 

समाप्त। 

लेखिका-डाॅक्टर संजु झा।(स्वरचित)

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