” अनु और सुम्मी दो सहेलियाँ थीं।दोंनो गाँव में रहती थीं।अनु के पिता बहुत बड़े जमींदार थे– पचासियों नौकर चाकर उनके यहाँ काम करते थे।धन तो पानी की तरह खर्च होता था।अनु अकेली बेटी थी और चार भाई थे।सभी बहुत अच्छे स्वभाव के थे– कभी किसी गरीब का निरादर नही करते हालांकि उनके पास अथाह पैसा था
फिर भी संस्कारवान थे।अनु भी बहुत सरल स्वभाव की थी तभी उसकी दोस्ती सुम्मी से होगई। सुम्मी बहुत निर्धन परिवार से थी।उसके पिता खेतों में मजदूरी करते– दो भाई थे वे छोटे थे।सुम्मी पढ़ने में बहुत तेज थी– उसको वजीफा मिलता था।वो उससे ही अपनी पढ़ाई करती और अपनी माँ को भी देदेती थी।सुम्मी और अनु पक्की सहेली थीं।
अब वे पढ़ाई पूरी कर चुकी थीं।सुम्मी स्कूल में अध्यापिका बन गई। इधर अनु का विवाह शहर के धनाढ्य परिवार के लड़के रमेश से होगया। लेकिन रमेश के परिवार और अनु के परिवार में संस्कारों का बहुत अंतर था।रमेश के यहाँ सब अक्खड़ स्वभाव के थे।अपने से नीचे लोगों के साथ अच्छा व्यवहार नही करते थे।
अनु जैसे तैसे आपने को एडजस्ट कर रही थी।दो साल बाद उसके बेटा हुआ– परिवार में खुशी की लहर दौड गई।बच्चे के नामकरण के लिए बहुत लोगों को निमंत्रण भेजे गए। अनु ने भी अपनी सहेली सुम्मी को निमंत्रण भेजा और कहा कि ,”जरूर आये जीजाजी के साथ”। सुम्मी की शादी उसी के साथ पढ़ा रहे टीचर
मोहन से होगई थी।दोनों खुश थे।जब अनु के यहाँ का निमंत्रण आया तो सुम्मी बहुत खुश हुयी और उसने अपने हाथ से नवजात शिशु के लिए चार जोड़ी कपड़े तैयार किये– कुछ खिलौने लिए और मिठाई– एक जोड़ी पायल अनु के लिए- अपनी हैसियत से ज्यादा सामान लेकर वो दोनों गये अनु के यहाँ।
अनु अपनी सहेली को देख बहुत खुश हुयी और अपने पति रमेश से मिलवाया– रमेश कुछ अनमने मन से उनसे मिला।खैर कोई बात नही।
फिर अनु की सास भी मिलीं सुम्मी से।अनु ने अपनी सास को अपनी सहेली के हाथ के सिले खूबसूरत कपड़े दिखाए बड़े खुश होकर। लेकिन उसकी सास उन कपड़ो को देख बोली,” अय हये– कैसे कपडे लायी हो बिटिया– हमारे यहाँ के नौकर के बच्चे भी इससे अच्छे कपड़े पहनते हैं– बेकार ही लायी तुम– हमारा पोता तो पहनेगा नही इन्हें,
” सुम्मी टका सा मुँह लेकर रह गई– उसकी आँखों में पानी भर आया लेकिन समझदार थी चुप रही और कहने लगी,” ठीक है आंटी जी– आप ये पाचसौ रुपये रख लीजिए– कुछ मंगा लीजिए बच्चे के लिए, “– अनु की सास जब चली गई तो अनु सुम्मी के गले लग फूट फूटकर रोने लगी और फिर उसने अपने ससुराल के अक्खड़पन की सब बातें बताई। आज अपनी सास के व्यवहार स वो अपनी प्राणप्रिय सहेली सुम्मी के आगे टका सा मुँह लेकर रह गई– बेचारी कुछ ना कह पाई।
कैसी विडम्बना है जीवन की हमें कभी कभी अपने सबसे प्रिय के आगे भी लज्जित होजाना पड़ता है।
आज दोनों सहेलियाँ टका सा मुँह लेकर रह गईं थी।।
#लेखिका
डॉ आभा माहेश्वरी अलीगढ
#टका सा मुँह लेकर रह जाना
#अर्थ: लज्जित होजाना