स्वरा….!!- विनोद सिन्हा “सुदामा”

कहते हैं पीड़ा और वेदना का कोई रूप नहीं होता,कभी अथाह कष्ट असहनीय वेदना के कारण बन जाते हैं तो कभी अति स्नेहलता आपको असीम पीड़ा से रूबरू करा देती है..पर दोनों ही रूप में कहीं न कहीं वक़्त और आपकी परिस्थितियाँ ही दोषी होती हैं.।

मेरा अभिन्न मित्र शुभय भी इन दिनों कुछ इन्हीं वेदना रहित परिस्थितियों से गुज़र रहा था.। एक तरफ़ जहाँ वह वक़्ती परस्थितियों से लड़ रहा था तो दूसरी ओर रोज जन्म लेती मानसिक परेशानियों के जद्दोजहद से..।

इधर कुछ दिनों से शुभय के जेहन में उसकी पत्नी समीक्षा और बेटी स्वरा का चेहरा हर घड़ी कुंडली मारे बैठा रहता था..उसकी पत्नी समीक्षा,जो थी तो शांत स्वभाव की स्वामिनी लेकिन जरा सी बात पर चिड़चिड़ापन हावी हो जाता था उसपर..वहीं  ठीक उलट उसकी बेटी स्वरा गुस्से से भरी,बात बात पर गुस्सा करना मानों आदत सी हो गयी थी उसकी,

हालांकि शुभय ने और उसकी पत्नी दोनों ने ही कभी भी कहीं से अपने स्नेह में कमी नहीं रखी स्वरा के प्रति….लेकिन दिन व दिन अपनी माँ के प्रति स्वरा का व्यवहार जहाँ काफी उग्र होता जा रहा था वहीं पत्नी समीक्षा भी दिन प्रतिदिन और ज्यादा चीड़चिड़ी होती जा रही थी.। जिसका कारण न तो शुभय समझ सका था न ही कभी मैं..

पर एक बात थी जो मुझे समझ भी आ रही थी और मैं जान भी पा रहा था,शायद इसलिए कि मैं उसके मन के काफी करीब था..मैं देख रहा था ये सब देख कर जाने क्यूँ शुभय का मन क्षुब्धता से भरता जा रहा था ,थक सा गया था मन उसका,तंग आ गया था वह इन सबसे और कुछ कुछ डरने भी लगा था इधर..जाने क्यूँ उसे ऐसा लगने लगा था कि मानों सब कुछ खत्म हो रहा हो उसका,रेत की तरह धीरे धीरे हांथों से छूट रहा हो सब और जिसे सँभालने की जरा भी ताकत नहीं रही थी शुभय में..।



शुभय अक्सर मुझसे अपने मन की बातें कहता, फिर मेरे अलावा उसका कोई था भी नहीं जो उसके मन की बातों को समझ सके.कभी कभी शुभय सोचता था, मुझसे पूछता भी कि यार…आखिर अपने बच्चों के प्रति माँ बाप के स्नेह की आखिरी सीमा क्या है…आखिर क्यूँ माता पिता अपने बच्चों के स्नेह और मोह जाल से कभी बाहर नहीं निकल पाते हैं..क्यूँ सबसे जीत कर भी  हार जाते हैं अपने औलाद से..मैं क्या कहता भला निरूत्तर हो जाता.!

कैसे कहता,इसलिए ही तो वो माता पिता कहलाते हैं..फिर छोड़ इनके और नि:स्वार्थ वात्सल्य कहाँ और किसके पास.!

उस दिन घर के अंदर प्रवेश करते ही शुभय के कानों में बेटी स्वरा के गुस्से भरे गूंजते स्वर सुनाई दिए..जो कि अपनी माँ पर किसी कारणवश चिल्ला रही थी,यह वही नन्ही बच्ची थी जिसके पालन पोषण में उसकी माँ समीक्षा ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी,यह वही नन्हीं बच्ची थी जिसे गोद में लिए उसकी माँ घंटो घंटो काम किया करती थी,यह वही नन्हीं बच्ची थी जिसे शुभय अपना जीवन रक्षक मानता था एक उम्र की तपस्या का फल..जिसका एकमात्र गवाह मैं स्वयं था.!

बहुत स्नेह था उसे अपनी बेटी स्वरा से,बहुत प्रेम करता था आज भी करता है,जब तक एक नज़र बेटी को देख न ले चैन नहीं आती उसे जब तक उसके मुख से पापा शब्द सुन न ले मन बेचैन रहता उसका..कई कई रातें जाग कर गुजारी थी उसने उसे सीने से लगाए ताकि उसकी नन्हीं परी चैन की नींद सो सके,समय समय पर यथासंभव हर ख्वाहिश हर मांग पूरी करने की कोशिश रहती उसकी..जबकि अपनी हैसियत पता थी शुभय को फिर भी हिम्मत नहीं हारता..मैं मना भी करता जरूरत से ज्यादा लाड प्यार बच्चों को बिगाड़ देते हैं लेकिन मेरी एक नहीं सुनता आज़ वही छोटी सी बेटी अब बड़ी हो गई थी,कुछ जिद्दी और कुछ नकचढी भी हो गई थी शायद,वो आज इतनी बड़ी हो गयी थी कि अपने माता पिता को ही सीख देने लगी थी.।

हालांकि अपने बच्चों पर कभी हांथ उठाना पसंद नहीं था शुभय को..पत्नी समीक्षा अगर कभी बच्चों पर हांथ उठा भी देती तो शुभय समीक्षा को प्यार से समझता कि बच्चों को बात से समझाओ मारने पीटने से बच्चें बिगड़ जाते हैं..जबकि शुभय भली भाँति जानता था कि अगर माँ बच्चों पर सख्त होती है तो उसके पीछे हजार कारण होते हैं…फिर भी शुभय बात से ही काम लेता लेकिन आज शुभय जान चुका था कि वो ही गलत था मैं सही और शायद शुभय का अपनी बेटी स्वरा को ज्यादा लाड प्यार देना ही स्वरा के इस व्यवहार का कारण बना हो.जो उसे हद से ज्यादा तकलीफ दे रही थी.। क्योंकि स्वरा अब अपनी हर बात मनवाने लगी थी,बात बात पर माँ को यहाँ तक कभी कभी खुद उसे ही समझाने लगती थी.।

हर दिन नई- नई फरमाइशें होती उसकी,न करो तो चिल्लाने लगती,मन में छोटे भाई शुभम को लेकर गुस्सा रहता सो अलग,जाने क्यूँ हर समय चिढती रहती थी अपने छोटे भाई शुभम से जबकि,शुभम जरा भी बात नहीं टालता उसकी..बहन स्वरा जो कहती झट कर देता..लेकिन जब देखो तब उससे झगड़ा करती रहती..शुभम नटखट था पर शैतान नहीं ,उसकी बदमाशियों में उसका व्यवहार कहीं से गलत नहीं रहता..मैं भी हैरान रहता देख कर..पास के और बच्चों के साथ स्वरा का व्यवहार इतना बुरा नहीं रहता..फिर ख़ुद के भाई के साथ क्यूँ..?

फिर अभी उम्र ही क्या थी स्वरा की मात्र सोलह साल लेकिन जाने कहाँ से इतनी उदंडता आती जा रही थी स्वरा में…जरा भी इज्ज़त नहीं करती थी अपनी माँ की..माँ बेचारी लड़की समझ कुछ नहीं कहती डरती थी..लेकिन शुभय हर बार समझाता उसे,हर तरह से बात करता स्वरा से..घंटो घंटो अकेले छत पर लेकर बैठता ,कहता उससे कि माँ को ऐसे नहीं बोलतें..माँ पर इस तरह गुस्सा करना ठीक नहीं.सब समझ कुछ दिन ठीक रहती फिर वही हरकतें..दिन व दिन उसकी उदंडता उसका जिद्दीपन भी बढ़ता जा रहा था,कुछ समझने के बजाए उल्टा गुस्सा हो जाती.लेकिन उस दिन बेटी के द्वारा अपनी माँ को कहे शब्द पसंद नहीं आए शुभय को और उसने बेटी को जोर डाँट दिया..हांथ भी उठा देता उस दिन गर समीक्षा ने रोका नहीं होता,उस समय बेटी स्वरा ने बोला तो कुछ नहीं लेकिन उसने अपना जबड़ा भींच लिया..बेटी का इस तरह रियेक्ट करना शुभय के लिए किसी हृदयाघात से कम नहीं था और शुभय को समझने के लिए काफी था,बेटी के उस दिन के व्यवहार ने उसके आगे की बहुत सी बातों के जवाब दे दिए थे.। शुभय समझ चुका था कि उसकी स्नेहिल परवरिश गलत मोड़ ले चुकी है..नतीजा बिगत कई दिनों से उसकी प्यारी बेटी ने गुस्से में शुभय से बात़ करनी छोड़ दी.शुभय भी अपने गुस्से को अपने अंदर जब्त रखे था,इसलिए नहीं की बेटी के प्रति उसका स्नेह कम गया बल्कि इसलिए कि बेटी का बात बात पर माँ से झगड़ना अच्छा नहीं लगता था उसे और फिर एक पल ऐसा भी आया कि बेटी की चुप्पी ने शुभय को सदा के लिए चुप और मौन कर दिया..। क्योंकि उस एक क्षण में स्वरा के द्वारा किए व्यवहार के बाद शुभय के पास खोने को अब कुछ नही बचा था..उसके सारे सपनें एक साथ धराशाही होते दिख रहे थे उसे..आगे-पीछे,ऊँच-नींच जाने कितने खयाल एकसाथ मुँह उठा रहे थे उसके सामने.।



शुभय जान चुका था माँ,बाप को जितनी उनकी बढ़ती उम्र नहीं तोड़ती उससे कहीं ज्यादा बच्चों के व्यवहार तोड़ डालते हैं.लेकिन इस बीच एक बात अच्छी हुई शुभय के मौन ने माँ बेटी के बीच की दूरियों को कम कर दिया था..अब स्वरा अपनी माँ के साथ सुलझे व्यवहार और सही तरीक़े से बात करने लगी  थी पर कब तक,क्योंकि बीच तल्खियाँ इतनी थी कि कब मुँह उठा ले कहा नहीं जा सकता.

लेकिन शुभय मौन हो चुका था और साथ उसके मौन के उसके अंदर का पिता खो सा गया था कहीं.पर मरा नहीं था और मैं चाहता भी नहीं था कि एक पिता ख़ुद में आत्महत्या करे..इसलिए उसे फिर से खड़ा करने और जिंदा रखने की जिम्मेदारी मैंने स्वयं पर ले ली है..देखता हूँ कितना सफ़ल हो पाता हूँ मैं..। क्योंकि “वो” उसका “मन” और “मैं” अलग नहीं.. उसके हार जाने का मतलब मेरा हार जाना है और मैने कभी हारना सीखा नहीं..परिस्थितियाँ चाहे कितनी ही विकट क्यूँ न हो..परिस्थितियों पर जीत हासिल करना आदत रही है मेरी फिर शुभय तो मेरा अभिन्न मित्र है और प्रति बेटी के मेरा दायित्व भी..

विनोद सिन्हा “सुदामा”

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