स्वयंसिद्धा – शुभ्रा बैनर्जी 

“मां!मां! ये क्या सुन रहा हूं मैं?क्या हो गया है आपको? मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था,कि आप ऐसा कुछ कर सकतीं हैं।”

अखिल की आवाज में निराशा और गुस्से का मिश्रण था।मुझे उसके चेहरे में कहीं न कहीं एक पुरुष का सारा हुआ अहं दिखाई दे रहा था।मेरे लिए उसका यह सवाल अप्रत्याशित तो नहीं था और मैं स्वाभाविक रूप से अपने”मैं” को तैयार कर चुकी थी।”क्या हुआ अखिल?क्या कर दिया ऐसा मैंने”?मैंने भी थोड़ा गुस्से से जवाब दिया।

“क्या किया है आपने! वाह! मां,आप तो बिल्कुल अनजान बन रहीं हैं।सारी ज़िंदगी मैं यही सोचता रहा कि, मैं सब कुछ ठीक कर दूंगा।मैं आपको दुनिया की सारी खुशियां देना चाहता थाऔर मैंने ईमानदारी से कोशिश भी की है पूरी।आपको तो पता है ना मां?”

“हां अखिल तूने मुझे दुनिया की सारी खुशियां दीं हैं।अपनी सभी जिम्मेदारियों को बखूबी निभाया है तूने। मुझे तुझ पर गर्व है बेटा।”

“अच्छा तो क्या इसीलिए आप अलग घर में रहना चाहतीं हैं?”अखिल ने शिकायत करते हुए पूछा।

“नहीं अखिल ,ऐसा बिल्कुल भी नहीं है।मैं अलग मकान में रहना चाहतीं हूं,घर तो है तेरा।”

“मैंने जिंदगी भर हालातों से समझौता किया है।दूसरों को खुश रखने में मैंने कभी अपनी खुशी के बारे में नहीं सोचा।शायद तुम लोगों को एक अच्छा बचपन भी नहीं दे पाई मैं,अपनी भावनाओं के कारण।मैंने हमेशा हर किसी को अपना मानकर बहुत प्यार किया और उलझी रही गई रिश्तों की डोर से।”अब मैं मुक्ति चाहती हूं बेटा।ये मोह के बंधन छोड़ना चाहती हूं,टूटने से पहले।”

“पर उसके लिए आपको इस उम्र में अकेले रहने की क्या जरूरत है?”

 अखिल ने समझाते हुए पूछा।

” है ना बेटा ,मुझे नहीं श्वेता को ज़रूरत है”मैंने तटस्थ होकर कहा।

“क्या !श्वेता को!उसने कहा आपसे अलग रहने की बात?”अखिल फिर उखड़ गया।”




“नहीं रे,वो क्यों कहेंगी?वो बहुत समझदार लड़की है।और समझदार होना ही सबसे बड़ी दुर्बलता है औरतों की।मैं नहीं चाहती कि समझदारी का जो भूत मेरे सर पर सवार था,वही मैं विरासत में अपनी बहू को भी दूं।”

देख अखिल ऐसी बहुत सी बातें होतीं हैं, जो लड़की ससुराल में किसी से कह नहीं पाती।मन ही मन घुटतीं रहतीं हैं ज़िंदगी भर।और ज़िंदगी रेत की तरह कब फिसल जाती हैं हाथों से पता भी नहीं चलता।

एक नववधू अपने साथ ढेरों सपने संजोकर लाती है अपनी नई ग‌हस्थी में।अपने पति के घर को अपने हिसाब से सजाने,चलाने की इच्छा होती है हर लड़की के मन में।जब पहले से ही सास का आधिपत्य दिखता है उसे अपनी गृहस्थी में,वो अपना मन मारकर रह जाती है।”

ये मेरा ख़ुद का अनुभव है,शायद इसीलिए मैं श्वेता को समझ पा रहीं हूं।

“मैं यह कभी नहीं चाहूंगी कि तू अपनी मां और पत्नी के बीच में लट्टू की तरह घूमता रहे।

“तुम लोगों की एक नई ज़िंदगी शुरू हुई है।कुछ तुमसे गलतियां होंगी तो श्वेता संभाल लेगी और उसकी गलतियों को तुम संभाल लेना।मुझे श्वेता और तुम्हारी दोनों की मां बने रहना है।बेटे के मोह में पड़ी मां अक्सर बहू को बेटी नहीं मान पाती।कितना भी मां बनने का ढोंग कर लें वो सास ही बनी रहती है।फ़िर बहू भी बहुत ही रह जाती है।”

मैं अवधि और श्वेता में कोई भेद नहीं रखना चाहती तेरी खातिर।

“अवधि ने तो मुझे बचपन से यह आईना दिखाया था कि मैं बेटे को ज्यादा प्यार करती हूं।अब मैं मोहवश श्वेता के मन में यह जहर नहीं सोना चाहती।”

नई -नई शादी है तुम्हारी।एक दूसरे को समय दो।एक दूसरे को उसी रूप में स्वीकार करो जैसा हो।

अभी अगर तू श्वेता को छोड़ मेरी आंखों के आगे पीछे घूमता रहेगा तो शादी का कोई मोल नहीं रहेगा।”

“पर मां ,इन सबके बीच में तुम्हारे अलग रहने की बात कहां से आ गई?तुमने तो खुद श्वेता को चुना है ना मेरे लिए।फ़िर तुम्हें ये असुरक्षा क्यों होने लगी?”अखिल‌ ने कहा

“हां मैंने श्वेता को तेरी बीवी के रूप में पसंद किया है,जो तुझे समझेगी।पर मैंने उसे ख़ुद की तीमारदारी के लिए पसंद नहीं किया।”




“देख अखिल,ये स्वाभिमान बड़ा नाज़ुक होता है, थोड़ी सी ठोकर से टूट सकता है।मैं नहीं चाहती कि मेरी किसी बात से नाराज़ होकर तू श्वेता के सामने मुझ पर चिल्लाने लगे।और ना हीं श्वेता को अपमानित होना पड़े मेरे सामने।”

“जब तक मेरा शरीर चल रहा है,मुझे अपने हिसाब से रहना है।बिना किसी को सफाई दिए या सफाई लिए।

मैं अपनी कमजोरियों को खूब समझती हूं।बड़ा नरम है मेरा दिल,पर यही मेरी ताकत है।यही मेरा वजूद है।मुझे कभी किसी से कोई अपेक्षा नहीं थी और ना मैं अब रखना चाहती हूं।अब मैं अकेले अपने शौक पूरे करना चाहतीं हूं।ट्यूशन पढ़ाऊंगी, कहानियां लिखूंगी,कविताएं लिखूंगी।जब मन किया खाना बनाऊंगी ना मन किया तो मैगी खा लूंगी।

मैं अब किसी और के लिए बदलना नहीं चाहती अखिल।मैं जैसी हूं वैसी ही रहना चाहती हूं।श्वेता अपना घर अच्छे से संभाल लेगी इस बात की पूरी तसल्ली है मुझे।”

और देख अखिल गृहस्थी की नई गाड़ी में चक्के भी नए ही लगाने चाहिए।पुराने घिसे हुए चक्के लगाने से नई गाड़ी फिर चल नहीं पाएगी,घिसटेगी।और फिर इन दोनों के बीच में तू फंसकर रह जाएगा।”मैंने अपनी बात खत्म करते हुए उसकी तरफ देखा।तभी सामने अखिल के साथ श्वेता को खड़े देखकर मैं असहज हो गई।

“मैं आपके लिए लेमन टी बनाकर लाती हूं”श्वेता ने मुझे सहज करने के लिए कहा।”

“मैंने स्वीकृति में गर्दन हिलाई।लेमन टी की तो मैं दीवानी थी।और हां अपने लिए काॅफी भी बना लेना।क्योंकि मेरे हाथों की काॅफी तो माशाअल्लाह ही बनती है।”मैंने माहौल को बदलते हुए कहा।

“अखिल जीवन की बहुत सारी सच्चाई मैंने तुझसे और तेरी बहन से सीखी।तुम दोनों मेरे गुरु हो।मुझे कभी भी दीक्षा लेने की जरूरत ही महसूस नहीं हुई।तुझसे मैंने परिस्थितियों से लड़ना सीखा।अपने उसूलों पर चलना सीखा।अपनी भावनाओं प्रश्र काबू पाना सीखा।अवनि ने मुझे आत्मसम्मान के साथ समझौता ना करना सिखाया। दुनिया की परवाह न करके खुद को अहमियत देना सिखाया।




“अरे मां अवनि आ गई।”अखिल ने बाहर गाड़ी रुकने की आवाज सुन ली थी।”

अवनि कार से उतरी अपने पति के साथ।एक बड़ा सा पैकेट हाथों में लिए 

भाई ने आदतन चिढ़ाया,गधी तुझसे ज्यादा साइट तो बैग की है,कैसे संभाली तू।?

अवनि ने मेरी तरफ शिकायती लहजे में देखकर हर बार की तरह कहा”मां!मना करो दादा को,फिर मुझे चिढ़ा रहा देखो।”अच्छा, अच्छा।

“क्या लेकर आई फिर से तू”?

“अरे कुछ नहीं।यहां आओ ना मां।ये देखो-तुम्हारा वाॅल क्लाक।हर घंटे चिड़िया बाहर निकलेगी।”

“ओह!!! वाह!!!!चूं चूं करेगी ना?मैंने खुश होकर पूछा

“हां हां!!मां चूं चूं चीं चीं सब करेगी।तुम्हारी चिड़िया है,जो तुम बोलोगी वो सब करेगी।”

अच्छा!! गज़ब हो गया ये तो”और क्या क्या उठा लाई तू?

“ये लो तुम्हारा बड़ा सा विंडचैम,हैंगिंग गमले और गोपालदास गौर की बुक्स।”

“ओह!!!!तुझे याद था?

“हां हां!मैं सबकी फरमाइश याद रखती हूं,बस तुम्हें तुम्हारे बेटे के अलावा कुछ नहीं दिखता।”

मैंने हंसकर अखिल की तरफ देखा और बोली”तुम लोग बात करो,मैं जल्दी से खाना बनाती हूं।”

अवनि अपनी भाभी श्वेता को उसकी चीजें दिखाने लगी।

अभी तो मेरे जाने में समय है।अच्छा ही हुआ सब साथ में मिल लिए।

“मैंने अवनि की तरफ मुस्कुराते हुए देखा।ये उसे अपनी जीत का संकेत था।वह भी मेरी खुशी देखकर समझ चुकी थी कि मैंने अखिल को अपने अलग रहने की बात पर सहमत कर लिया था।मेरे स्वाभिमान की संरक्षिका है मेरी बेटी।

मुझे आज उसने सच में स्वयंसिद्धा बना दिया।

“थैंक यू,मैंने आंखों से उसे कहा।”

शुभ्रा बैनर्जी

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