न जाने क्यों, अब जीने की इच्छा ही नहीं रही. बूढ़े शरीर में दिमाग़ भी अब सुस्त हो गया है. आंखों की रोशनी और जीभ का स्वाद तो कब का चला गया.पेट में कुछ पचता नहीं. दांत भी एक एक कर साथ छोड़ गए. नहीं नहीं, कुछ बीमारी नहीं. बस थकान रहती है, चलने सा सांस दोहरी हो जाती है.
बहुत जी लिया. भाप के इंजन से बिजली से चलने वाली रेल तक, लैंड लाइन फोन से मोबाइल तक, घर में जलते चूल्हे से गैस पाइपलाइन तक. चारों धाम भी दर्शन कर लिए. कोविड जैसी महामारी से भी पार पा लिया इस जर्जर तन ने.
तो अब जब मरने का निश्चय ही कर लिया है तो सोचा सुसाइड नोट भी लिख डालूं. क्योंकि मौका भी है और दस्तूर भी. नहीं तो बाद में शरीर की और परिवार, दोनों की छीछालेदर. नहीं नहीं, परिवार से या ज़माने से, कोई शिक़ायत नहीं. लेकिन मृत्यु के बाद कोई मिस भी करेगा, नहीं कह सकता.
हां , तो सुसाइड नोट लिखने का अधिकार क्यों छोड़ूं. फिर भी समझ नहीं आ रहा क्या लिखूं. गद्य में लिखूं या पद्य में, गीत लिखूं या कविता, या लघुकथा लिखकर निबटाऊं. वसीयत लिखकर भी क्या होगा. थोड़ा बहुत जो है,आपस में बांट लेंगे. किसी के लिए कोई संदेश भी क्या लिखूं, कई अच्छे शायरों के कलाम याद आ रहे हैं, हिन्दी फिल्मों के इस मौके के गीत भी, लेकिन ज़िंदगी भर ईमानदारी से जिया, अब मरते मरते चोरी ठीक नहीं.
सीधा-सीधा ‘ मैं स्वयं सुसाइड कर रहा हूं ‘ लिखने में कुछ विशेष नहीं. किसी को दोष देना भी मेरे स्वभाव में नहीं. वैसे मरने से पहले विडियो बनाने का भी चलन है, परन्तु इन चैनल्स के हाथ लग गया तो हफ्तों तक चलाएंगे. मेरी मूंछ- दाढ़ी और सर के बालों में अंतर ढूंढेंगे. इस बुढ़ापे में व्यर्थ की फुटेज खाने का मुझे शौक नहीं. और आजकल सी बी आई भी हर मामले को सालों लटकाने में माहिर हो गई है. ये सब छीछालेदर मुझे कतई पसंद नहीं
नीचे कार रुकने की आवाज़ आई, बेटा बहू आ गए शायद. नन्ही गुड़िया और नटखट मुन्नु भी आए होंगे. यानि दिन भर की धमाचौकड़ी. इनमें तो मेरी जान बसती है. अपना बचपन दिखता है इनमें. पोते-पोतियों का घोड़ा बनने में भी अलग मज़ा है. आज का दिन मस्ती में बीतेगा, इसलिए सुसाइड नोट फिर किसी दिन लिखूंगा. अब तो मरने की भी फुर्सत नहीं. बंद करता हूं, नीचे मेरी जानें आईं हैं.
#अपने_तो_अपने_होते_हैं
– डॉ. सुनील शर्मा
गुरुग्राम, हरियाणा