सूरज का भ्रूण! – कुसुम अशोक सुराणा : Moral Stories in Hindi

भोर की आहट के साथ ही स्वरा ने गुदढी को दूर फेका और वह नित्य कर्म से मुक्त हो कर गुसलखाने की ओर बढ़ गई! कड़कड़ाती ठंड में भी वह बर्फ से ठंडे पानी से नहाई और बालों को झटक कर सूखाने लगी! घुंघराले बालों की लटों से मानों ओस की बुंदे गालों पर लुढ़क कर फिसल रही थी और रेशमी चुनर को भीगो रही थी मगर स्वरा खयालों में इतनी खोई थी कि उसे न तो गीली चुनर का स्पर्श महसूस हो रहा था न सर्द हवाओं का पैगाम देते दांतों का बजना ! अंधेरों के बिच न जाने कहां खो गई थी वह लुका-छिपी खेलते तारों की तरह!

कारे,-कारे बादलों ने सूरज का मानों अपहरण कर लिया था आतंकवादियोंकी तरह! रक्षाबंधन के बावजूद भी आ न पाए थे उसके भैया…कैसे आते? वो लैंडमाइन का जोरदार धमाका और वो गोलाबारी के बिच सेना का ऑपरेशन! पल में सब कुछ तो आग के लपटों में स्वाहा हो चुका था और दूर-दूर तक मिलिट्री के ट्रक के पुर्जे और शरीर के लहुलुहान अंग बिखरे पड़े थे!

घने चिनार के अधजले वृक्ष, आग की लपटें, खून से लथपथ संकरे रास्ते और फायरिंग की मीलों दूर तक गूंजती आवाज़!

टीवी पर देखा मंज़र याद कर स्वरा दर्द से कराह उठी! सेना के पन्द्रह रणबांकुरे सवार थे उस ट्रक में! साल बीत चुका था लेकिन अभी तक सिर्फ दस ताबुत ही पहुंचे थे परिवार के आंगन तक! 

आशा के परिंदे आज भी दस्तक दे रहे थे उसके द्वार पर! वादा किया था भैया ने…”स्नेह का बन्धन हैं रक्षा बन्धन! राखी बंधवाने जरुर आऊंगा स्वरा!”

उसने पूजा-अर्चना की और कान्हा के सामने बैठ गई ध्यान-मुद्रा में! घी का दीया जल रहा था और वह सहमी-सहमी सी ज्योति के इर्दगिर्द बने औरा को निहार रही थी! अंतरात्मा में आज भी उम्मीदों का दीया टिमटिमा रहा था…आंगन में बंधी गाय की वज़ह से घी, दूध, दही की कोई कमी नहीं थी घर में!

उसने आज चावल की खीर बनाई थी… भाई की सबसे प्रिय खीर! काजू, किशमिश, बादाम, केसर से सजी खीर!

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भैया के इन्तजार में माँ तो समय के पहले ही बूढ़ी हो चुकी थी! आंगन का चिनार का पेड़ कई दिनों से खामोश था! न तेज हवाएं उसे कहकहें लगाने को मजबूर कर पा रही थी न सर्द बयार रुला पा रही थी! केसर की क्यारियां न मन को सुकून दे रही थी न मीलों दूर तक बुलाते सेब लदे पेड़!

पर स्वरा….स्वरा का विश्वास अटल था!

इंतज़ार करते-करते शाम हो चुकी थी! सूरज अस्ताचल की ओर प्रस्थान की तैयारी में था! पगडंडियों से मवेशियों के गले में बंधी घंटियों की आवाज़ दूर-दूर तक जाते-जाते धीमी- धीमी होने लगी थी !

तभी अचानक आंगन में बंधी भूरकी  गाय खूंटे को खींच खींच कर दौड़ने का प्रयास करने लगी! पेडों की टहनियों पर अभी-अभी आकर बैठे परिंदे पंख फैला कर उछल-कूद कर पंखों को फैलाने लगे! चिनार की शाखाएं डोलने लगी और फिज़ा में एक आवाज गूंजी…”स्वरा! माँ ! देखो! मैं आ गया! देखो माँ! तुम्हारा बेटा …सीने पर गोली खा कर आया है ! एक टांग भले ही चली गई पर पीठ दिखाकर नहीं, रणबांकुरे सा दुश्मन को नेस्तनाबूत कर आया है!

…स्वरा! बहना! मैंने वादा निभाया है न!”

स्वरा दो पल के नि:शब्द थी! जो दिखाई दे रहा था वह मृगजल सा प्रतीत हो रहा था। 

स्वरा का अटूट विश्वास जीत गया था! नटखट  कान्हा के सामने चाँदी की थाली में रखी राखी अनमोल हीरे सी चमक रही थी और कुंकुम, अक्षत, रोली क दूजे बतिया कर भाई के भाल पर सजने के लिए बेताब थे!

माँ ने चरणस्पर्श करते बेटे को लपक कर गले लगाया और दोनों उससे लिपट कर रोने लगी! बाहर बादल खुशी से झूम-झूम कर बरस रहे थे और अंदर पलकों में छुपे पानीदार मोतियों से भरी आंखें!

सूरज अलविदा कहाने को उतावला था। 

स्वरा ने जरा सी भी देरी नहीं की और भैया को आँगन में रखी खाट पर बैठा कर कुंकुम तिलक लगाया, घी का दीया जला आरती उतारी और केसर, सूखे मेवे से सजा खीर का कटोरा आगे कर दिया!

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यह क्या? इस कलाई पर तो राखी चमक रही है और दूसरी कलाई? भैया खामोश क्यों हैं? वह तड़प उठी! शर्ट की कफलीन से सजी लंबी बाजुओं में वह भैया का आधा कटा हाथ देख नहीं पाई थी! 

उसने झट से हाथ आगे बढाया और कटोरा भाई के अधरो पर लगाया! खीर की मिठास में वक़्त की खटास फुर्र हो चुकी थी! स्नेह बन्धन सब पर भरी पड़ चूका था।

रक्षाबंधन पर भैया की उपस्थिति का सुन्दर  सुंदर उपहार पाकर स्वरा भाई से लिपट गई! “मैं हूं न भैया! मैं हूं न!”

अंधेरों को चीर कर दीए की रोशनी से घर जगमगा उठा था…रात की कुक्षी में सूरज का भ्रुण पल रहा था ममताभरी गर्माहट ले कर…..

स्वरचित तथा मौलिक,

द्वारा कुसुम अशोक सुराणा, मुंबई।

A-604, साइप्रस, हिरानंदानीगार्डन्स, पवई,

मुम्बई, महाराष्ट्र।

#स्नेह का बन्धन’:

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