सुलक्षणा – रवीन्द्र कान्त त्यागी : moral stories for adults

आस पास के गांवों के किसान और रिआया की हालत देखी जाय तो चरण दास संपन्न और बड़े जमींदार माने जाते थे मगर गंगा किनारे बसे इस हर साल बाढ़ में डूबे रहने वाले इलाके के गांवों में, कुदरत के कहर के कारण विपन्नता ने पांव पसार रखे थे.

बस खेती किसानी से गुजारा भर हो पाता था. यही कारण था कि बदलते वक्त के साथ स्वयं सुदूर गांवों में रहने वाले लोग भी अपनी बेटियां शहर में ही ब्याहना पसंद करते थे, ऐसे डूब क्षेत्र के गांवों में तो बिलकुल नहीं. भले ही लड़का शहर की किसी फर्म में चौकीदार ही क्यों न हो. कम से कम लड़की रहेगी तो शहर में जहाँ बिजली का पंखा है, खाना बनाने की गैस है और …. और है आजादी.

घूंघट से आजादी, घर की कैद से आजादी, चूल्हे के धुंए से और सासु माँ के तानो से आजादी. मगर लड़कों का क्या. आसानी से कोई इन बाढ़ क्षेत्र के गांवों में अपनी लड़की देने को तैयार नहीं होता. न जाने किस साल ‘दुर्भिक्ष’ फसलों को खा जाय और भूखे मरने की नौबत आ जाय. इसलिए दस में से एक दो लड़कों को ही घोड़ी चढ़ाना नसीब होता था.

चरण दास की कुठलियों में अनाज था, पक्का चार कोठरी और बड़े आंगन का मकान था और काठ के पुश्तैनी संदूक के कपड़ों की नीचे वाली तह में बरसों की मेहनत से जोड़े हुए चांदी के रुपये भी थे. घेर (आहते) में दो शानदार नागौरी बैलों की जोड़ी थीं और दस सेर पक्का दूध देने वाली हरयाणे की भैंस भी थी.

पत्नी बीमार रहती और हर व्यसन और विकार से दूर इकलौता बेटा दिन रात मेहनत से खेतों में जुटा रहता. बस एक ही गम चरणदास को भीतर ही भीतर खाये जाता था कि बेटे का ब्याह नहीं हो पा रहा था. वंश कैसे चलेगा भला. कल इस घर को कौन संभालेगा, यही सोच सोचकर रातों को नींद नहीं आती थी.

बेटे की उम्र पच्चीस को पार करके छब्बीसवें में प्रवेश करने वाली थी और बिना मूछों वाला दूल्हा ढूंढने वाले उस काल में और उस समाज में इसे ‘बरचुक’ होना यानि ओवरएज होने के कारण विवाह से चूक जाना कहते थे. एक एक दिन किसी अप्रत्याशित आगंतुक की बाट जोहते हुए निराशा में गुजर रहा था.

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गर्मियों की दोपहर थी. लू के थपेड़े चल रहे थे. चरणदास मुँह पर भीगा हुआ झीना कपड़ा डाले नीम के नीचे झपकियां ले रहे थे कि एक दूर के रिश्तेदार ने प्रवेश किया. हाल चाल, कुशल क्षेम पूछने के बाद ताज़ा किये हुए हुक्के और मटके के ठन्डे पानी में कालीमिर्च डाले हुए खांड के शरबत से आवभगत की गई.

गांव के लोग कभी जल्बाजी में नहीं रहते थे. घंटों फसलों की, राजनीती की, रिश्तेदारियों की और घर गिरस्ती की बातें करने के बाद आगंतुक मेहमान ने सीधे कहा “चौधरी, छोरे का ब्याह करना है क्या?

अँधा क्या मांगे, दो आँख. चरणदास का दिल तो बल्लियों उछलने लगा. मन में बेटे के ब्याह की शहनाइयां गूंजने लगीं. मगर एक कुशल खिलाड़ी की तरह उत्साह को जज्ब करते हुए बोले “हाँ भाई, ब्याह तो करना ही है. कोई अच्छी लड़की हो तो बताना”.

“लड़की क्या है नगीना है नगीना. ये बड़ी बड़ी ऑंखें, सुराही सी गर्दन और नागण सी स्याह काले बालों की चोटी. तुम्हारे गांव में ना होगी ऐसी बहु किसी के यहाँ ….. लेकिन ….. “

“लेकिन क्या …. कोई नुकस है क्या”. चरण दास ने उत्सुकता से पुछा.

“लड़की में तो तिल भर की कमी नहीं भाई. बाप थोड़ा सा लालची है. समाज के हिसाब से ये हरकत बड़ी ओछी मानी जाती है पर …… बड़ी छोरी का ब्याह भी पैसे लेकर किया था. इसको भी किसी गरजमंद से पैसे लेकर ही देगा.

अब …. मैं तो ये कह रहा था कि अपना केसू भी उम्रदराज हो रहा है. पैसों की तेरे पास क्या कमी है. घर बसा ले उसका. ऐसी लड़की बार बार नहीं मिलती. लछमी है लछमी”.

“कैसी लछमी भैया. घर की लछमी तो पहले ही उसका बाप ले जायेगा. बड़ा नीच आदमी है. अपनी लड़कियों का सौदा करता है. ये तो हमारी बिरादरी में पाप माना जाता है”.

“अब उसका पाप वो जाने. अपनी अपनी गरज की बात है. उसके तो खून मुँह लगा है तो कहीं न कहीं से पैसे मिल ही जायेंगे. तेरा मन हो तो बात करूँ”.

मरता क्या न करता. बड़ी मुश्किल से डूबते वंश को उभारने की एक उम्मीद की किरण दिखाई दी थी. इस मौके को हाथ से जाने देना अमावस की रात में थार के मरुथल में दिशाहीन भटकने जैसा था. बात आगे बढ़ाई गई.

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चमड़े की एक थैली में चांदी के सौ सिक्के भरकर मध्यस्थ के हाथ कन्या पक्ष के यहाँ भिजवाए गए और शहनाईयाँ गूँज उठीं.

चरणदास के छोरे केशव की बहू क्या आई, गांव में उसकी ख़ूबसूरती की चर्चा थमने का नाम ही नहीं लेती थीं. गोरा चिट्टा रंग, दीवला (मिट्टी का दीपक ) सी ऑंखें, टखने को छूती बल खाती चोटी और बोली ऐसी जैसे पायल ख़नक रही हो.

सोने पर सुहागा ये कि बहू दस जमात पढ़ी हुई थी. बिचोलिये ने बताया था कि लड़की नगीना है मगर नगीना नहीं बहू तो हीरा थी हीरा. दो महीने में चूल्हा चौका, घर बार सब संभाल लिया. गदगद सासु माँ ने भी अपनी बीमारी देखकर और सुगढ़ बहु के उत्तम लक्षण देखकर घर की चाबी बहु के पल्ले में बांध, निवृत होने में ही भलाई समझी. कोठी कुठलिया सब बहु के हवाले कर दी. भाग खुल गए चरणदास के तो.

इंसान के जीवन के साथ सौभाग्य और दुर्भाग्य साथ साथ चलते हैं. फसल की बुआई का समय था कि न जाने किस अनजान बीमारी से एक बैल काल के गाल में समां गया. कार्तिक बीता जा रहा था और पचास बीघा जमीन बिना बुआई के खाली पडी थी.

यही वो समय था जब नवविवाहिता सुलक्षणा बहु को पता चला कि गांव के सबसे बड़े चौधरी उसके स्वसुर के हाथ खाली थे. अपनी सारी जमा पूंजी उसी के बाप को, बहू खरीदने के लिए दे चुके थे. एक बैल खरीदने के पैसे भी घर में नहीं थे.

बहू तो एकदम उदास हो गई. न ढंग का खाना पीना रहा और न ही हँसाना बोलना. हर समय एक गहरी सोच में खोई रहती. अपने जनक के ऐसे व्यवहार से उसे गहरा आघात लगा था. एक पल में सारा आत्मस्वाभिमान डगमगा गया.

गांव के सबसे बड़े चौधरी की बहु जो सबके सामने गर्दन उठाकर चलती थी, खरीदकर लाइ गई सिर्फ एक ‘दासी’ थी. इस घर में जो सम्मान और चाह मिली है, क्या सिर्फ इसलिए कि मैं एक बड़ा मूल्य देकर खरीदा गया कीमती सामान भर हूँ.

मैं इस घर की सम्मानित बहू नहीं बल्कि एक देह और एक कोख मात्र हूँ जो इस घर के नौनिहाल को दैहिक संतुष्टि देगी और खानदान को वंशज. हृदय आत्मग्लानि से भर उठा.

जैसे तैसे करके आधी अधूरी फसल की बुआई हो सकी. खाद और बीज की भी व्यवस्था उधार लेकर करनी पडी थी. चरणदास के जीवन में ये पहला अवसर था जब बुजुर्गों के ज़माने से जोड़ी हुई रकम भी चली गयी थी और हाथ इतना तंग हो गया था कि फसल को खाद पानी देने के पैसे भी नहीं थे.

पांच महीने के लम्बे इंतज़ार के बाद गेहूं की फसल उठेगी. तभी घर में दो पैसे आएंगे. कैसे कटेगा ये तंगहाली का लम्बा समय.

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दीपावली के दो दिन बाद भैयादूज का दिन था. केशव रस्म अदायगी के लिए पत्नी को मायके छोड़कर आ गए. निश्चित हुआ कि सात दिन बाद लड़की का भाई उसे वापस ससुराल पहुंचा देगा. तय कार्यक्रम के अनुसार सुलक्षणा के भाई ने उसे ससुराल छोड़ दिया.

घर पहुंचते ही सुलक्षणा ने कोठरी का दरवाजा बंद किया. अपने गहने उतारे और संभालकर रख दिए. फिर अपने मेहमानी वाले कीमती कपड़े बदलकर ट्रंक में जमा दिए. फिर मायके से लाइ कपड़ों की एक पोटली खोली जिसमे माँ के दिए वस्त्र और सामान थे.

कपड़ों के नीचे से एक चमड़े की थैली निकाली और पुश्तैनी काठ के संदूक की सबसे नीचे वाले तह में जमाकर ऊपर से अन्य सामान रख दिया. चांदी के रुपये वापस अपने स्थान पर पहुँच गए थे.

कड़ाके की ठण्ड पड़ रही थी. चरणदास दोपहर का भोजन करने के बाद एक कौने में ढलती धूप के टुकड़े से ऊष्मा लेते हुए हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे. केशव ताजे लिपे हुए आंगन में दीवार का सहारा लगाए खाना खा रहा था.

निकट ही ‘सुलक्षणा’ मिट्टी के चूल्हे पर मक्का की रोटियां सेंक रही थी. सासु माँ अस्वस्थ सी भीतर रजाई में लेटी थीं कि तभी धड़धड़ाते हुए चरणदास के समधी यानी केशव के स्वसुर ने प्रवेश किया.

चरणदास चौंककर उठे और हाथ जोड़कर समधी साहब का स्वागत किया और खाट बिछा कर बैठने का संकेत किया. मगर उन्होंने न प्रणाम का उत्तर दिया और न ही बैठने में कोई रूची दिखाई. रूखे स्वर में बोले “मुझे सुलक्षणा से बात करनी है”.

सुलक्षणा लापरवाही से बोली “बैठो बापू. दो रोटी और गेर लूं. पानी वाणी पियो. खाना लगा दूँ. नहीं तो दूध लाती हूँ”.

“मैं यहाँ दूध पीने नहीं आया सुलक्षणा. तुझसे अकेले में बात करनी है”.

सुलक्षणा चूल्हा छोड़कर पल्लू से हाथ पोंछती हुई खड़ी हुई और पिता की और मुखातिब होकर बोली “अपनी बेटी से अकेले में बात करने का हक़ आप ने गँवा दिया है बापू. जो कहना है मेरे पति और ‘पिताजी’ के सामने ही कहो”.

“पिताजी ….. आज वो तेरे पिताजी हो गए. इसका मतलब मेरा शक सही है. अपने ही घर में चोरी करके आई है तू छोरी. यही संस्कार दिए थे मैंने तुझे”.

“संस्कार तो अच्छे दिए बापू. पाल पोसकर बड़ा किया, पढ़ाया लिखाया, पर ये न सोचा कि जिस घर में बेटी भेजोगे, वहां वो खायेगी क्या. चोरी उस चीज की होती है जो अपनी न हो. जो पैसे मैं लाई हूँ वो मेरे हैं. मेरे पति के हैं…. और उस घर की संपत्ति है जहाँ आप ने ब्याह कर मुझे भेजा है. बसाने से पहले ही बेटी का घर लूट लिया बापू”.

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“बद्तमीज लड़की, बाप से जबान लड़ती है. अभी देखता हूँ तुझे”. और समधी हेतराम जी गुस्से से बेटी की और लपके. इस से पहले कि वे दो कदम भी आगे बढ़ा पाते चरणदास ने उनका हाथ पकड़ लिया.

“अपनी बहू पर हाथ उठाने की इजाजत तो मैं अपने बेटे को भी नहीं दे सकता समधी जी. आप से तो वो वैसे भी पराई हो चुकी है. क्या पता ईश्वर ने आप के अपराधों को क्षमा करने के लिए ही आप से पाप का पैसा छीन लिया हो. इसे नियति का आदेश मानिये और शांत होकर कुछ चाय वगैहरा पीजिये”.

“चाय …….. हम बेटी के घर का पानी भी नहीं पीते. और सुनिए चरणदास जी. आज के बाद हमारा तुम्हारा सम्बन्ध ख़त्म”. और वो धड़धड़ाते हुए बहार निकल गए.

केशव जो खाने के आसान पर बैठा पूरे घटना क्रम को शांत देख रहा था, स्वसुर साहब के जाते ही बोला ” करारी सी सेंककर एक रोटी तो ला सुलक्षणा. तेरे बाप के झगड़े में मेरी आधी भूख भाग गई”. और पूरा परिवार ठठाकर हंसने लगा.

रवीन्द्र कान्त त्यागी

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