“नहीं मम्मीजी, ऐसा तो अब कहीं नहीं होता…और होता भी होगा तो मुझसे नहीं हो पायेगा!”
आज यह पहली बार था कि परिवार की छः माह पुरानी छोटी बहू स्तुति सास की असंगत बात सह नहीं सकी थी तो उलट कर बोल पड़ी थी। वह अब तक विदाई के समय माँ, ताई जी व बड़ी भाभियों के सिखाये संस्कारों के कारण कड़वा घूँट पीती हुई भरसक चुप रही थी लेकिन आज उसे लगा, अब बस! बहुत हुआ, अब और नहीं!!
सास अनुराधा देवी के लिए बहू का यूँ जवाब देना कतई असहनीय था। पल भर में उनका पारा चढ़ गया। कल की आयी, इसकी ये मज़ाल…बड़ी बहू को आये दस साल हो गये, आज तक उसका कभी मुँह नहीं खुला और ये…! मारे क्रोध के वे उबल पड़ीं।
___”छोटी बहू, तुम न बहुत ज्यादा बोलती हो!
यही सीख कर आयी हो क्या मायके से कि सास के सामने अपशब्द बोलो, उनकी बेइज़्ज़ती करो? कान खोल कर सुन लो…यह सब मेरे घर में नहीं चलेगा। बहू हो, बहू की तरह रहो मर्यादा में…समझीं न!”
स्तुति इस मिथ्या आरोप से पहले तो हैरान खड़ी रह गयी। फिर उसे लगा कि अभी चुप रहने का मतलब तो आरोप को स्वीकार करना होगा अतः उसने एक बार फिर से अपनी सफाई में कुछ कहने की कोशिश की।
____”लेकिन मम्मीजी…अपशब्द कहाँ बोला मैंने…और किसी की भी बेइज़्ज़ती क्यों करना चाहूँगी…मैं तो केवल अपनी बात…!”
____”बहुत हुआ स्तुति बहू, अब एक शब्द भी नहीं…कोई इस तरह अपने से बड़ों से बहस करे, हमें बिल्कुल बर्दाश्त नहीं।
आज तक हमने भी ससुराल वालों के सामने मुँह नहीं खोला और तुम उल्टा जवाब दे रहीं…कुछ नहीं तो अपनी जेठानी धरा से ही कुछ सीख लो! कम बोलती है, मीठा बोलती है, कभी तुम्हारी तरह जुबान नहीं लड़ाती। शरम-लिहाज गहना है उसका…तभी हम सबको शुरू से इतनी प्यारी है। और…तुम…तुम तो जाओ यहाँ से!”
गुस्सा नियंत्रण से बाहर हो गया था तो अनुराधा जी चिल्ला पड़ी थीं।
बेहद अपमानित होकर स्तुति वहाँ से अपने कमरे की ओर चल दी। बेबसी में उसके आँसू निकल आये थे।
____”हे भगवान, कैसे जिंदगी बिताऊँगी यहाँ…सब कहते हैं यही तुम्हारा असली घर है…यहाँ के लोग ही तुम्हारे अपने हैं…क्या ऐसा होता है अपना घर…जहाँ अपनापन ही न हो, जहाँ दम घुटता हो…बिना किसी दोष के सुनना पड़ता हो!”
बेचारी स्तुति जिस संयुक्त परिवार से आयी थी, वहाँ न घूँघट प्रथा थी और न ही पुरानी रूढ़ियों वाले कोई बेकार के बन्धन। वह खुले विचारों वाली, बड़े चंचल स्वभाव की थी, जिंदगी को हर पल भरपूर जीने वाली।
जहाँ भी वह रहती थी, कोई गुमसुम या उदास नहीं रह सकता था। बचपन से घर का माहौल हल्का-फुल्का ही देखा था जहाँ आपसी प्रेम और आत्मीयता थी, एक-दूसरे के लिए लगाव और परवाह था। अनुशासन और नियम भी थे लेकिन इनके पालन के नाम पर किसी पर भी जबरन का दबाव या व्यर्थ का बन्धन नहीं था। स्तुति अपने ताऊजी की दो बहुओं और एक अपनी भाभी के संग दिन भर हँसी-मज़ाक करती हुई ताई जी और माँ के कामों में हाथ बँटाती रहती थी। घर-गृहस्थी के ढेरों ऐसे काम जिनके लिए बाहर जाना पड़ता हो,
वह अपनी भाभियों में से किसी भी एक को लेकर इतने आराम से निबटाया करती थी कि घर के पुरुषों को पता ही नहीं चलता था कि बिल भरने से लेकर राशन लाना या फिर कोई घरेलू उपयोग की चीज बिगड़ जाये तो सुधरवाना क्या होता है। केवल आर्थिक उपार्जन और परिवार को हर तरह से भावनात्मक सुरक्षा, यही सब उनके जिम्मे था। घर की स्त्रियों व बच्चों को सिर-माथे पर रखने वाली परम्परा के वाहक थे वे पीढ़ियों से।
ऐसे स्वतंत्र वातावरण में पली-बढ़ी स्तुति को ससुराल आने के बाद जैसे ही पता चला, उसे साँस भी सासू माँ से पूछ कर लेना होगा, उसकी साँस उसी समय से अटकने लगी थी।
अगले दिन जब घर पर उसकी मुँह-दिखाई की रस्म रखी गयी, उसे पड़ोस की महिलाओं की बातचीत से पता चला कि उसे हर समय साड़ी में ही रहना होगा, जिसका पल्लू सिर से न सरके। बेवजह बोलना नहीं है, तेज आवाज़ में ठहाके लगा कर हँसना फूहड़ता की निशानी है जो यहाँ बर्दाश्त नहीं की जाएगी…और तो और ससुर और जेठ के सामने भी नहीं पड़ना है बल्कि पूरी तरह से पर्दा करना है, वह बिल्कुल हैरान-परेशान हो गयी थी।
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सुबह का भूला (भाग 2)
नीलम सौरभ