स्त्री की मर्यादा ही उसका गहना है – सुल्ताना खातून

पहली बार उसे जब देखा था, दुपट्टा नमाज़ के स्टाईल में लपेटे, वह अपने दोनों नन्हें हाथों में किताब को सीने से लगाए मदरसा जाने के लिए घर से निकली थी… उसे पहली बार देखने वाला सीन एक तस्वीर की तरह छपी है, मेरी आँखों में… क्यूंकि तब मैं भी छोटा सा ही था… उसकी या मेरी उम्र कितनी रही होगी ये तो याद नहीं…!

लेकिन उसे देखने के बाद एक अपनापन का बीज जो मेरे अन्दर पनपा… वह आज़ एक मुहब्बत का तनावर दरख्त का रूप ले चुका है…!

तब से लेकर अब तक जबकि आज़ एक पुख्ता उम्र का आदमी हूं, … हज़ारों बार देखा उसे पर आज़ भी जब आँखे बंद करता हूँ, तो उसका वही दुपट्टे के हाले में लिपटा मासूम सा चेहरा दिखता  है….!

एक ही गांव से होने के वजह से पढ़ाई भी एक ही स्कूल और एक ही क्लास में की… मौका मिलते ही चोर नजरों से उसके मासूम चेहरे को देख लेता… कभी कभी वह भी मुझे देख लेती उसकी नज़रों से ऐसा लगता, कि वह मेरे दिल का हाल जानती है… पर अगले ही पल उसके हाव भाव, उसकी बातें मेरी हालात से इंकार कर रहे होते…!

वह जो पढ़ने में इतनी ज़हीन थी, टीचर्स की चहिती थी, मैथ्स के मुश्किल सवालात सबसे पहले हल कर लेती थी… कैसे मुमकिन था, कि मेरे मचलते जज्बों से अनजान थी…पर वो अनजान थी, क्यूंकि अगर वो मेरे दिल में उठते अपने मुहब्बत के तूफानों की एक आहट भी सुन लेती तो मचल कर मेरे सीने से आ लगती…!




हालाँकि ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैंने उससे बात करने की कोशिश भी की हो उसके मासूमियत, उसके औरतपन और मेरे बीच एक मर्यादा की लकीर थी, जिसे चाह कर भी मैं लाँघ नहीं सका…!

स्कूल के बाद कॉलेज चली गई वो और मैं भी दूसरे शहर पढ़ने चला गया… जाने अनजाने कई बार उसके कॉलेज तक उसका पीछा किया… कई बार उसे देखने के बहाने, तो कई बार उसे सुरक्षित पहुँचाने के बहाने बिना उसे जताए… पर दिल में ख्वाहिश थी, काश! उसे एक बार मेरी मोहब्बतों मेरी शिद्दतों का इल्म हो…!

सालों बीत गए उसकी शादी का दिन आ पहुँचा… मैं तड़पता रहा… कभी उसकी बेहिसी पर गुस्सा आता तो कभी मेरा दिल मेरी बुजदिली के हाथों जलील होता…वह रात बहुत भारी थी मुझ पर… बिस्तर में काँटे उग आए थे जैसे… उसे खो देने का एहसास रात भर सालता रहा मुझे… वह रात जाग कर गुजारी मैंने… सुबह मेरी लाल आँखे गुजरी भारी रात की दास्ताँ सुना रही थी… पर वह सुबह मेरी जिंदगी की सबसे रौशन सुबह होने वाली थी मुझे पता नहीं था… क्यूँकी उसी सुबह एक सफ़ेद काग़ज़ उसकी दोस्त के जरिए मुझे मिला… मैंने धड़कते दिल के साथ काग़ज़ खोलना शुरू किया…उसकी लिखावट तो मैं लाखों के बीच पहचान सकता था…  छोटी सी तहरीर थी…

  सुनो….




   ऐसा नहीं है कि मैं तुम्हारे दिल के हाल से अनजान हूँ… पर मैं अपने खानदान के लोक-लाज, और मर्यादा से बँधी हुई हूँ… मेरे अब्बा ने मुझे सिखाया है कि मेरी मर्यादा मेरा गहना है… अपने खानदान की पहली लड़की हुं जिसे यूनिवर्सिटी तक जाने और नौकरी करने की इजाज़त मिली है… बदले में मुझे अपने बाप भाइयों की पगड़ी की लाज़ रखनी है… और मैं ऐसा कर के अपने आने वाली पीढ़ी के ल़डकियों के लिए रास्ते खोलना चाहती हूँ…कहने को हम दोनों एक ही मजहब से ताल्लुक रखते हैं, पर तुम्हारे और मेरे बीच जाती की एक लम्बी दीवार थी, जिसे मेरे जैसी लड़की के लिए लांघना मुश्किल था… मेरा तुम तक पहुंचने के सारे रास्ते बंद थे, पर फिर भी तुम्हारी ख़ामोश मुहब्बत मेरे दिल में घर कर गई… उस मुहब्बत को भी अपनी मर्यादा के सात परतों के भीतर छुपा कर रखूंगी…

पर एक बार दुआ ज़रूर करुँगी… ख़ुदा जन्नत में तुम्हारा साथ मुझे बख्श दे…

उसकी तहरीर पढ़ कर मेरे अन्दर की सारी शिकायतें ख़त्म कर दी… मेरे लिए इस से बड़ी बात क्या होगी उसने जन्नत में मेरे साथ की ख्वाहिश की….!

इस बात को सालों बीत गए आज़ जब भी मेरी दोनों बेटियाँ सर पर दुपट्टा लिए कॉलेज के लिए निकलती हैं… उन्हें मैं वही दर्श देता हूँ, कि मेरी बच्चियाँ तुम्हारी मर्यादा ही तुम्हारा गहना है… और दिल से दुआ करता हूँ कि मेरी बेटियाँ भी उसी के नक्शे कदम पर चले…

क्यूँ कि अब भी कभी कभी उसे देखता हूँ, आज़ वह एक बड़े कॉलेज की प्रोफेसर बन चुकी है… साड़ी पहने… सर पर स्कार्फ लगाए… कैसी गरिमा छलकती है उसके चेहरे पर… सादा सा चेहरा किसी भी बनाओ शृंगार से पाक, आज़ भी कितनी मासूम दिखती है… उसे किसी गहने की ज़रुरत ही नहीं… क्यूंकि उसकी मर्यादा ही उसका गहना है….

मौलिक एवं स्वरचित

सुल्ताना खातून

दोस्तों मेरी रचना कैसी लगी कॉमेंट में जरूर बताएं ताकि मुझे आगे लिखने की प्रेरणा और उत्साह मिले… धन्यवाद

 

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