अखबार में तस्वीर छपी देखी सुबह तो मन नही माना, इसलिये चला आया।
इतने सालों बाद भी पहचान गए आप? उसने पूछा।
तुम बदली कहाँ हो जरा भी। उम्र ने निशान जरूर छोड़े हैं पर आज भी वैसी ही हो तुम।
लगभग बीस साल हो गए घर छोड़े हुए। तुमने तो सारे रिश्ते ही तोड़ लिए सबसे। इतनी बड़ी सजा क्यों आखिर सब को।
सजा मुझे मिली भैया, उन्हें कहाँ? मैं अनचाही औलाद, जिसे न माँ बाप का प्यार मिला न ही भाई बहन का।सबसे बस हिकारत ही मिली। वहां रहती तो शायद आत्महत्या कर लेती किसी दिन इसलिये सब छोड़ कर सन्यास ले लिया। फिर भूलकर भी नही गयी कभी उस शहर। न मोह किसी से न रिश्ता कोई। अब यही जीवन की सच्चाई है मैं साध्वी मुरलीधरा हूं। यही पहचान है मेरी।
मेरी आँखें नम हो गयी। नन्दिनी मेरी ममेरी बहन है, तीन बच्चो के बाद यह पेट में आ गयी, तब न तो इतने उन्नत चिकित्सा थी न उपाय सो जन्म देना पड़ा मामी को इसे। बेटी तो बन गयी मगर प्यार नही मिला। सबसे छोटी होने से हर बात में सबसे पीछे रह जाती, जो बच जाए भाई बहन से वो इसका। नही बचा तो किस्मत। चाहे खाना हो या कपड़े या और कुछ।
तिरस्कार, अवहेलना, जली कटी सुनते हुए बड़ी हुई तो बस नौकर बन कर रह गयी सबकी। न किसी को पढ़ाई की चिंता न भविष्य की।
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फिर एक दिन खबर मिली कि एक दुहाजू से शादी तय कर रहे हैं मामा मामी। फिर दूसरी खबर आई कि एक रात घर से गायब हो गयी नन्दिनी।
जितने मुंह उतनी बातें। कोई सच नही जानता था पर अटकलें सब लगा रहे थे। साल बदलते रहे पर कोई पता न चला। समय के साथ सब भूल भी गए उसे। वो आज मेरे सामने साक्षात उपस्थित है।
हम दोनों की आंखें नम हैं। भैया, किसी को मेरे बारे में न बताना। मैं खुश हूं इस जिंदगी में। वैसे भी बताने से किसे फर्क पड़ेगा।
मैंने उसका हाथ पकड़ कर कहा। निश्चिन्त रह नन्दू मैं नही कहूंगा किसी से।
पर इतना कर सके तो अच्छा होगा। ईश्वर ने तुझसे फिर मिलाया है तो कोई कारण होगा। इस सम्पर्क को बनाये रखना बस।
वचन देती हूँ भैया। मेरे प्रवचन का समय हो गया चलती हूँ अब। वह उठ खड़ी हुई जाने को।
मैं उसे जाते हुए देख रहा हूँ और सोच रहा हूँ, माँ बाप के प्यार पर तो सब बच्चो का बराबर हक होता है फिर क्यों वो भेदभाव कर देते हैं। क्यों किसी को कम किसी को ज्यादा चाहते हैं। उनका ये अंतर बच्चो का जीवन कैसे बदल देता है।
©संजय मृदुल
मौलिक एवम अप्रकाशित