“माँ, तुम काला धागा गले में क्यों पहनती हो?” मीरा ने पूछा.
“बेटा, ये मंगलसूत्र है, सभी औरतें पहनती हैं।” कांता ने बर्तन साफ करते-करते बेटी को बताया.
तभी रसोई घर में विभा आ गई, मीरा को देखकर कहा, “अरे! आज मीरा भी आई है, कांता तुम्हारे संग।”
“जी मेमसाब, इसके स्कूल में छुट्टी चल रही है तो घर में अकेली रहती इसलिए साथ ले आई।” कांता बोली.
“अच्छा किया, कांता।” कहते हुए मीरा को बिस्किट पकड़ा दिए, कहा “मीरा, खा ले।”
विभा रसोईघर से चली गई, कांता बचा हुआ काम करने लगी।बेटी
मीरा बिस्किट खाने लगी, अचानक खाते-खाते वह बोली, “माँ, आंटी ने तो काला धागा, वो क्या कह रही थी तुम, मंगलसूत्र नहीं पहना है।”
“मीरा, पहना है लेकिन काले धागे में नहीं सोने में बना मंगलसूत्र है।”
“हां, मैंने देखा तुम भी वैसा ही पहना करो, वो सुंदर लग रहा था, धागा तो नहाने में गीला हो जाता होगा।”
“मेरी ऐसी किस्मत कहां!” गैस पोंछते हुए आह भरकर धीरे से कांता बोली.
“कुछ कहा माँ ?” मीरा ने पूछा.
“कुछ नहीं, काम हो गया, चलो अब घर चलें।”
कांता और मीरा घर आ गए पर मीरा का मन सोने के मंगलसूत्र में अटक कर रह गया। शाम को बापू के आने पर उसने माँ के लिए विभा आंटी जैसा मंगलसूत्र लाने की जिद की।
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बापू ने कांता को प्रश्नवाचक निगाहों से देखा, कांता ने पूरी बात बताई, बोली “जब से मेमसाब का मंगलसूत्र देखा तब से लेने को कह रही है। तुम ध्यान न दो, बच्ची है, दो एक दिन में भूल जाएगी।”
“मैं नहीं भूलूंगी, माँ। बापू तुम बाज़ार से ले आना।” सात साल की मीरा ठुनककर बोली.
बापू प्यार से बोला,”बेटा, मैं तो एक बढ़ई हूं, मेरे पास तो सोने का छोड़ चांदी का भी मंगलसूत्र खरीदने लायक पैसे नहीं हैं, जब तुम बड़ी हो जाओ, पढ़-लिखकर अच्छी सी नौकरी करना तो अपनी माँ को तुम दिलवा देना।”
मीरा ने खुशी-खुशी हां में सिर हिलाया और किताब उठाकर पढ़ने लगी।
कांता और उसके पति महेश ने चैन की सांस ली, फिर कभी मीरा ने सोने के मंगलसूत्र के बारे में बात नहीं की।
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दिन बीते, महीने बीते और देखते ही देखते पंद्रह साल गुजर गए।
बचपन से ही पढ़ने में तेज मीरा ने इतिहास में एम.ए. कर लिया, साथ ही प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करती रही। जल्द ही उसकी मेहनत सफल हुई, स्टाफ सेलेक्शन कमीशन की परीक्षा पास कर पुरातत्व विभाग में लिपिक पद पर नियुक्ति हो गई।
कांता और महेश की खुशी का ठिकाना न रहा, पूरे मोहल्ले में लड्डू बांटे कांता ने।
मीरा ने माँ को बताया था कि उसकी तनख्वाह विभाग से सीधे बैंक में जमा हो जाती है, इसपर माँ-बापू दोनों ने उसे बैंक में ही रखने को कहा।
नौकरी करते हुए मीरा को तीसरा महीना हो चला था, कांता और महेश पूर्ववत अपने काम पर जाते हैं।
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आज पहली तारीख है, कार्यालय से घर आकर मीरा ने अपनी अलमारी में कुछ रखा और खाना खाकर सो गई।
शाम को महेश के घर आने पर उसने दोनों को अपने पास बुलाया और महेश के हाथ में कुछ देकर बोली,”बापू, इसे माँ को पहना दो।”
महेश ने ज्यों ही पैकेट खोला, उसमें सुंदर सा ज्वैलरी का लम्बा डिब्बा था। चौंककर उसने डिब्बा खोला तो सोने का खूबसूरत मंगलसूत्र उसमें करीने से रखा हुआ था।
महेश और कांता एकसाथ बोल पड़े,”मीरा ये क्या है, बेटा?”
“माँ, मंगलसूत्र है, जल्दी से पहना दो बापू माँ को। बचपन से मैं इस दिन का इंतजार कर रही थी कि कब मैं बड़ी होकर पढ़-लिखकर अपने पैरों पर खड़ी होऊं। मेरी बचपन की चाहत है कि माॅ॑ गले में मंगलसूत्र पहने। देखो ना बापू, तीन महीने लग गए तब जाकर मंगलसूत्र के पैसे बने।”
कांता व महेश की नज़रों के आगे पंद्रह साल पुराना वाकया घूम गया, खुशी से उनकी आंखों में आंसू छलक आए।
महेश ने कांपते हाथों से कांता को मंगलसूत्र पहनाया, अपनी बाहों में भर मीरा को माता-पिता ने सीने से लगा लिया।
दोस्तों, अपनी पहली कमाई से मीरा की बचपन से माँ के लिए कुछ करने की चाहत तो पूरी हो गई, आप भी राज खोल डालिए आपकी चाहतों का, ख्वाहिशों का, कमेंट सेक्शन में बताइएगा जरूर… कहानी कैसी लगी,आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार रहेगा।
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-प्रियंका सक्सेना
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