सॉफ्ट टारगेट – बालेश्वर गुप्ता : Moral Stories in Hindi

विद्यासागर जी पुराने जमीदार थे।कभी उनकी तूती बोलती थी।शान शौकत तो थी ही,साथ ही विद्यासागर जी का रूवाब बेइंतिहा था।जिधर से निकल जाते थे,उधर ही उनकी रियाया सर झुका कर खड़ी हो जाती।इतना होने पर भी विद्यासागर जी रहम दिल थे,अपनी रियाया के प्रति हमदर्दी रखते थे।

जमीदारी उन्मूलन के बाद सब रुतबा खत्म,बस मजदूरी आधारित खेती ही रह गयी।जमीदारी समाप्त होने पर कुछ दिन विद्यासागर जी के असामान्य गुजरे,पर खेती की खासी जमीन होने के कारण उन्हें आर्थिक रूप से अधिक परेशानी का सामना नही करना पड़ा।एक बड़ी हवेली,लगभग 250 बीघा कृषि भूमि और अन्य जायदाद अब भी विद्यासागर जी के पास थी।

विद्यासागर जी के एक ही बेटा राजीव था,जिसे वे कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ा रहे थे।धीरे धीरे समय गुजर रहा था।विद्यासागर जी के सौम्य व्यवहार के कारण नगर वासियों ने उन्हें निर्विरोध चैयरमैन चुन लिया था।सामाजिक गतिविधियां बढ़ती जा रही थी।इससे उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा में  इजाफा ही हुआ,साथ ही उनकी आधे से भी अधिक कृषि भूमि आबादी में आ गयी जिससे वह भूमि काफी कीमती हो गयी,कुछ भूमि पर उन्होंने प्लाट काट दिये, इससे खूब लाभ हुआ ।इस सब उधेड़ बुन में उन्हें अपने बेटे राजीव के रंग ढंग के बारे में अधिक कुछ पता ही नही चला।

गलत सोसाइटी और गलत चलन के कारण उसे जुए और नशे की लत लग गयी।जुए में हार के कारण उसे हर समय पैसे की दरकार रहने लगी,उसके लिये उसे  सॉफ्ट टारगेट के रूप में मां थी।कभी इमोशनल ब्लैकमेलिंग द्वारा तो कभी जिद करके मां से रुपये ऐंठने लगा।मां को बुरा तो लगता पर राजीव के सामने वह अपने को बेबस पाती।इधर यदि माँ कभी उसकी डिमांड पर आना कानी करती तो अब वह मां से बदतमीजी से भी पेश आने में गुरेंज नही करता।

एक दिन विद्यासागर जी ने राजीव को अपनी मां से बदतमीजी से बात करते देखा तो वे हक्का बक्का रह गये।सामाजिक प्रतिष्ठा की प्यास में वे घर की प्रतिष्ठा को ही खो बैठे।सामने एकलौते बेटे का मोह तो था,पर सामने उनकी जीवन संगिनी का सम्मान और खुद राजीव के भविष्य का सवाल था।

एक क्षण उन्होंने सोचा और दूसरे ही क्षण उनकी मुखमुद्रा कठोर हो गयी। उन्होंने तुरंत ही राजीव को एक तमाचा जड़ते हुए कहा कि तुम्हारी हिम्मत मेरी पत्नी से ऐसे बोलने की कैसे हुई?अभी इसी समय इस घर से निकलो,अपनी जिंदगी अपने तरह से जियो, हमसे तुम्हारा कोई वास्ता नही।

राजीव को इस प्रकार की स्थिति की कल्पना भी नही थी,लेकिन अपनी हेठी में वह घर से निकल गया।दिन तो यार दोस्तो में बीत गया,रात्रि होते ही रुकने और खाने की समस्या सामने मुँह बाये खड़ी थी।घर कैसे जाये,घर नही तो फिर कहाँ जाये?पूरे दिन घर से बाहर रहने पर भी उसके पिता की ओर से उसकी खोजखबर भी नही ली गयी थी,इससे उसकी टेंसन बढ़ रही थी। उसके पिता के चेयरमैन होने के कारण सब उसे पहचानते थे,इसका लाभ उठा उसने एक ढाबे में उधार खाना खा तो लिया,

पर अगले दिन फिर वही स्थिति आने वाली थी,यह चिंता उसे खाये जा रही थी।रात्रि में वह एक धर्मशाला में रुक तो गया,उसे धर्मशाला के मुंशी की आंखे अपने मे चुभती नजर आ रही थी।सबसे बडी बात जो राजीव को साल रही थी वह ये कि उसके किसी भी साथी ने उसे अपने घर चलने या अपने यहां खाना तक खाने की पेशकश नही की थी।

तमाम रास्ते बंद होने  तथा कुछ खुद न कर पाने की बेबसी ने राजीव को दिन मे ही तारे दिखा दिये थे।उसे अपनी उच्छखलता का अहसास होने लगा था।एक दिन व एक रात ने ही उसकी सोच बदल दी थी। उसके कदम धीरे धीरे गर्दन झुकाए अपने घर की ओर बढ़ रहे थे,शायद आज भी मां ही उसकी सॉफ्ट टारगेट थी।

बालेश्वर गुप्ता,नोयडा

मौलिक एवं अप्रकाशित।

*दिन में तारे दिखाई देना* मुहावरे पर आधारित लघुकथा:

 

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