सोच पर पड़े पत्थर कब हटाओगी? – सविता गोयल 

“ये देखो, फिर रास्ते में ये खिलौने बिखरे पड़े हैं। इस बहू को पता नहीं कब अकल आएगी। इतना भी ध्यान नहीं रख सकती कि कोई इनमें उलझ कर गिर जाएगा।

मालती जी गुस्से में जोर से बोलीं तो उनकी बहु नैना भागती हुई आई और खिलौने समेटने लगी।

“मां जी वो चीकू बार-बार बिखेर देता है” नैना ने सहमते हुए कहा।

“तुम्हें तो सिर्फ बहाने आते हैं। बच्चे तो फैलाते ही हैं, लेकिन उठाने की जिम्मेदारी तो मां की होती है ना?” मालती जी ने फिर डांटते हुए कहा।

नैना चुपचाप अपना काम करने लगी। बैठक में बैठे नैना के ससुर जी सबकुछ देख रहे थे । ये तो रोज की बात थी। नैना की शादी के चार बाद भी मालती जी का व्यवहार अपनी बहु के लिए वैसा ही था। अपनी पत्नी का बहु के प्रति ये रूखा व्यवहार राकेश जी को अच्छा नहीं लगता था। उन्होंने कई बार समझाने की कोशिश भी की लेकिन मालती जी की सोच पर एक सास की सोच हमेशा भारी पड़ जाती थी ।

जब भी राकेश जी नैना का पक्ष लेने की कोशिश करते, मालती जी नाराज होते हुए कहतीं, ” बहु को ज्यादा सर पर चढ़ाने की जरूरत नहीं है। बहुएं ढंग से काम नहीं करेंगी तो क्या मैं इस उम्र में उनकी गुलामी करूंगी?? … और जब आपकी माता जी मुझपर सारा दिन चिल्लाती रहतीं थीं तब तो आपने कभी अपना मुंह नहीं खोला। अब बड़ा बहु का पक्ष लेते रहते हो।

राकेश जी फिर कुछ नहीं कह पाते। दरअसल मालती जी की सास ने उनके साथ जैसा व्यवहार रखा था ,  मालती जी भी अपनी बहु के साथ वैसा ही व्यवहार करना अपना हक समझती थीं।



राकेश जी भी मालती जी की इस दकियानूसी सोच को बदलना चाहते थे लेकिन उन्हें कोई रास्ता समझ में नहीं आ रहा था।

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एक दिन राकेश जी और मालती जी सुबह सैर पर जा रहे थे। उन दिनों नई सड़क बनाने का काम चल रहा था। सुबह का झुटपुट अंधेरा था। चलते- चलते मालती जी का पैर सड़क पर पड़े पत्थर से टकरा गया जिसके कारण वो गिरते – गिरते बची। राकेश जी ने उन्हें संभाल लिया।ध्यान से देखा तो सड़क पर कुछ पत्थर बिखरे पड़े थे। मालती जी उन पत्थरों को उठाकर किनारे पर फेंकने लगीं। राकेश जी ने टोकते हुए कहा, ” ये क्या कर रही हो????,,

“जी, आपने देखा नहीं….? जिस तरह मैं गिरते- गिरते बची हूं, हो सकता है और कोई भी गिर पड़े। इसलिए इन पत्थरों को यहां से हटा रही हूं।,,

अपनी पत्नी के मुंह से ऐसा सुनकर राकेश जी को बहुत अच्छा लगा। उन्होंने भी अपनी पत्नी की मदद से सारे पत्थर किनारे लगा दिए। दोनों थोड़ी देर वहीं सड़क के किनारे बैठ गए। दोनों को बहुत अच्छा लग रहा था।

राकेश जी ने मालती जी की ओर देखते हुए कहा, “मालती….., तुमने सड़क पर पड़े पत्थर तो हटा दिए लेकिन अपनी अक्ल पर पड़े पत्थर कब हटाओगी…….??,,



” मतलब……????,, मालती जी ने आश्चर्य से पूछा।

राकेश जी ने उनका हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा,  “मालती, तुम्हें ठोकर लगी तो तुम्हें एहसास हुआ कि मेरी तरह और किसी को ठोकर नहीं लगनी चाहिए। उसी तरह जब मेरी मां का व्यवहार तुम्हारे प्रति बुरा था तो तुम्हें तकलीफ होती थी। लेकिन अब वही तकलीफ तुम अपनी बहु नैना को क्यों दे रही हो??……. उस वक्त मैं भी कुछ नहीं कह पाता था । जिस संकोच के कारण शायद तुम्हारा बेटा भी तुम्हें कुछ नहीं कहता।  मां का तो स्वभाव ही ऐसा था लेकिन तुम तो उस स्थिति से गुजर चुकी हो । तो तुम्हें समझना चाहिए कि नैना भी इसी स्थिति से ना गुजरे। एक बार उसे बहु की जगह बेटी मान कर तो देखो……।

मालती जी आज चुपचाप राकेश जी की बात सुन रही थीं।लग रहा था जैसे सच में आज उनकी सोच पर पड़े पत्थर हट रहे थे।

घर वापस आकर मालती जी रसोई में घुसी और नाश्ते की तैयारी करने लगी। नैना हड़बड़ाते हुए रसोई में आई और बोली,” मां, मैं बस आ ही रही थी। आप बैठ जाइए।

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“क्यों? तुम्हें क्या लगता है मुझे नाश्ता बनाना नहीं आता। आज नाश्ता मैं बनाऊंगी। तुम बाकी के काम निपटा लो।

मालती जी ने मुस्कुराते हुए कहा तो नैना भी मुस्करा दी। राकेश जी का मन आज बहुत खुश था और मालती जी का मन बहुत हल्का।

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धन्यवाद।

 सविता गोयल 

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