स्नेह का बंधन – सुनीता माथुर : Moral Stories in Hindi

अक्षिता बहू तुमने नाश्ता तो बहुत अच्छा बनाया जाकर अपने घर के नीचे के पोर्शन में चार किराएदार रहते हैं, उनमें से एक सरला बहन हैं—- जो कोने के मकान में रहती हैं! तुम जाकर उनको थोड़ा सा नाश्ता देआओ बेचारी अकेली रहती हैं—— उनके पति को गुजरे अभी 1 साल ही हुआ है

उनके पति तुम्हारे ससुर जी के बहुत अच्छे दोस्त थे। इसलिए हमने उनको यहां किराए पर रहने दिया अरे—- मां क्या हुआ ?अकेली क्यों रहती हैं ?हां अक्षिता बहू उनका बेटा इसी साल अमेरिका गया है और बहू भी साथ में चली गई ! अब वह अकेली हैं उनको पेंशन मिलती है हम लोग उनका ध्यान रख लेते हैं—— बेटा कभी-कभी तुम भी उनसे बात कर लिया करो हां मां मैं कर लिया करूंगी। 

अक्षिता थोड़ा सा नाश्ता लेकर नीचे के पोर्शन में जाती है और देखती है सरला बहन कुछ लिख रही थीं— दरवाजा खुला हुआ था अक्षिता दरवाजा खटखटा के बोलती है मां जी——- मैं आपके लिए नाश्ता लाई हूं! मम्मी ने भेजा है अरे— क्यों परेशान होती है बेटा—– मैं तो अकेले अपने लिए बना ही लेती हूं!—— अक्षिता ने बड़े प्यार से कहा? मां आप खालीजिए मैंने बनाया है कैसा है बताएं?

अक्षिता इतने प्यार से बोली उन्हें ऐसा लगा जैसे अक्षिता उनकी बेटी ही हो, अरे बेटा तुम इतने प्यार से बोलीं ऐसा लग रहा है कि तुम मेरी बेटी ही हो, मेरी एक बेटी थी आध्या लेकिन बचपन में ही मर गई थी उसके बाद अंश हुआ उसकी परवरिश और पढ़ाई लिखाई में हम लोग लग गए ! हमारा अंश बेटा पढ़ने में बहुत अच्छा था और वह इंजीनियर बन गया मेरे पति का रिटायर्मेंट का 1 साल रह गया था तभी अच्छी लड़की देखकर अंश की शादी करदी। 

सरला जी बोलीं—– मेरे पति शंकर— अंश की शादी के 1 साल बाद रिटायर्ड हो गए और बेटे की शादी को भी एक साल हो गया था। एक दिन अचानक मेरे पति की तबीयत खराब हुई और जब तक अस्पताल ले गए और उनका इलाज शुरू किया पता चला कि उनको हार्ट अटैक हुआ है और 1 घंटे बाद ही वह हार्ट अटैक से हम सब को छोड़कर चले गए।

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मेरे बेटे अंश का अमेरिका से कॉल आ चुका था इसलिए उसे जाना ही था मैं रोक नहीं पाई बच्चे की प्रोग्रेस के लिए उसे जाने दिया और बहू को भी जाने दिया अब मैं अकेली हूं लेकिन मैं राइटर हूं इसलिए मेरा मन लग जाता है कई ग्रुप से जुड़ी हूं! कहानी लिखती हूं अरे वाह—- मां, आप तो मुझे अपनी बेटी समझें! और मुझे भी अच्छी शिक्षा दें, मैं भी कुछ आपसे सीख कर लिख सकूं हां बेटा तुम आती रहा करो! और जो भी मुझसे पूछ कर लिखना हो लिखो और आगे बढ़ो।

अक्षिता सरला बहन को मां कहने लगी और जब भी उसका मन होता, वह उनके पास जाकर शिक्षाप्रद कहानी सुनती भी और लिखने की प्रेरणा भी लेती देखते-देखते अक्षिता भी लिखने में एक्सपर्ट हो गई और उसका अच्छा नाम होने लगा यह देखकर अक्षिता के पति सक्षम और सास- ससुर बहुत खुश हुए उन्होंने कभी अक्षिता को सरला बहन के पास जाने से नहीं रोका

और अक्षिता के पति सक्षम ने भी अक्षिता को लिखने पढ़ने के लिए खूब प्रोत्साहन दिया। अक्षिता के ससुर शिवदत्त जी की बहुत पहचान थी उन्होंने बड़े-बड़े साहित्यकारों से अक्षिता को मिलाया अक्षिता को स्टेज पर जाने के लिए मानसी ने भी प्रोत्साहित किया। धीरे-धीरे अक्षिता सरला बहन को भी अपने संग लेकर स्टेज पर जाने लगी यह देखकर अक्षिता की सास मानसी भी अक्षिता के साथ कई प्रोग्राम में जाने लगीं उन्हें अक्षिता के साथ-साथ बहुत मान सम्मान मिलता और वह गर्व से कहतीं बहू हो तो ऐसी!

इन दोनों परिवार में इतना ऐका हो गया की दोनों परिवार के लोग एक साथ खाना खाते, घूमने जाते ,जब सरला जी के बेटे बहु आए उन्हें भी बहुत अच्छा लगा अंश ने भी अक्षिता को अपनी छोटी बहन मान लिया और उससे राखी बंधवाने लगा। वैसे भी अक्षिता का कोई भाई नहीं था वह अपने परिवार में अकेली ही बेटी थी अचानक—- इतना अच्छा “स्नेह का बंधन” बन गया!

अक्षिता के ससुर शिवदत्त भी प्रिंसिपल पोस्ट से रिटायर्ड हुए थे उन्होंने भी अक्षिता को आगे बढ़ाने के लिए बहुत प्रोत्साहन दिया और कहा बेटा तुम अगर चाहो—— तो ट्यूशन भी कर सकती हो! बच्चों को शिक्षाप्रद कहानी भी सुना सकती हो, धीरे-धीरे अक्षिता का इतना नाम हो गया की स्कूल वाले उसको “अतिथि शिक्षक” के रूप में बुलाने लगे! और उससे बच्चों को शिक्षा भी दिलवाने लगे

जितने वह क्लास लेती थी हर महीने पर अक्षिता को तनख्वाह  भी स्कूल के द्वारा मिलने लगी! अक्षिता ने सरला मां को बहुत-बहुत धन्यवाद दिया, मां आप तो—– मेरी सगी मां हो! और मेरी सास भी—— मेरी मां हैं, जिन दो- दो मां ने मुझे इतना आगे बढ़ा दिया? कि मैं अपने पैरों पर खड़ी हो गई! यह “स्नेह का बंधन” ही तो है! शायद भगवान ने ही बनाकर भेजा है? 

अगर हम किसी को चाहें तो खूब आगे बढ़ा सकते हैं और सब मिलजुल कर रह सकते हैं! चाहे वह आस- पड़ोसी हों, चाहे अपने दोस्त हों, चाहे अपने सगे- संबंधी हों, सबसे “स्नेह का बंधन” अगर हम रखेंगे तो हमें स्नेह ही मिलेगा।

 सुनीता माथुर 

 मौलिक, अप्रकाशित रचना

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