स्नेह -बंधन – डाॅ संजु झा : Moral Stories in Hindi

कथा नायक सुरेश मिश्रा जिस शादी को बंधन समझते थे,आज उसी  बंधन के स्नेह में  डूबकर अपने भाग्य पर रश्क कर रहे हैं।पत्नी मीता और दोनों बेटे के स्नेह -बंधन में बॅंधकर उन्हें ज़िन्दगी की खुबसूरती का एहसास होता है,इसके लिए सिर झुकाकर बार-बार ईश्वर का नमन करते हैं।एक बात तो सत्य है कि अगर आपसी रिश्तों में प्यार, विश्वास,और एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान किया जाऍं,तो स्नेह का धागा दिन-ब-दिन मजबूत होता चला जाता है।

सुरेश जी की पत्नी और बच्चे बाहर गए हुए हैं। उनके लौटने के इंतजार में टकटकी लगाए हुए दरवाजे की ओर निहार रहे हैं।उनके इंतजार में उनका मन विगत में विचरण करने लगता है।जवानी के दिनों में वे एक लड़की से प्यार कर बैठे।उस लड़की से बेइंतहा  मुहब्बत करने लगें।उसकी काली जुल्फ़ों के साये में साथ जीने-मरने की कसमें खा चुके थे। परन्तु  उस लड़की से शादी की बात पर उनके घर में भूचाल उठ खड़ा हो गया। उनके पिता ने लड़की की गैर जाति के कारण  शादी की बात ठुकराते हुए कहा -“बेटा!सुन लो।गैर जाति की लड़की इस घर में मेरी लाश पर ही बहू बनकर आ सकती है!”

सुरेश जी भी ठहरे जिद्दी। उन्होंने भी प्रण लेते हुए कहा -” पिताजी!अगर उस लड़की से मेरी शादी नहीं होगी,तो मैं भी जिन्दगी भर शादी नहीं करुॅंगा।”

पिता ने भी तैश में आकर कहा -“परिवार की इज्जत नीलाम करने से अच्छा है कि तुम कॅंवारे ही रह जाओ।”

सुरेश जी ने शादी की बात को दिल में सदा के लिए दफन कर दिया।अपनी वकालत के पेशे में खुद को समर्पित कर दिया। देखते -देखते अपने पेशे में बुलंदियों को छूने लगें।माॅं ने कई बार उन्हें शादी के लिए मनाने की कोशिश की, परन्तु वे अपने वचन से टस -से-मस नहीं हुए।बेटे की शादी का इंतजार करते -करते माता-पिता काल-कवलित हो चुके। सुरेश जी के छोटे भाई की शादी हो चुकी थी।उसके दो प्यारे -प्यारे बच्चे थे। सुरेश जी उन दोनों बच्चों पर पैसे और प्यार का स्नेहवर्षन करते। उन्हें ही अपनी संतान समझते थे।

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एक दिन रविवार छुट्टी का दिन था। सुरेश जी अपने मुवक्किल के साथ किसी गंभीर केस में उलझे हुए थे।काफी माथा-पच्ची चल रही थी।उधर बच्चे काफी शोर कर रहे थे। सुरेश जी एक बार बच्चों को शोर करने से मना कर चुके थे, परन्तु कुछ देर बाद बच्चे फिर से जोर-जोर से शोर करने लगें।गुस्से में आकर सुरेश जी ने उन्हें एक थप्पड़ जड़ दिया।बाद में उन्हें अपनी ग़लती पर पश्चाताप भी हुआ। उन्होंने फिर प्यार से बच्चों को पुचकारा भी और उन्हें गाड़ी में घुमाने भी ले गए। परन्तु उन्हें क्या पता था कि तीर कमान से निकल चुका था! जिन्हें उन्होंने अपनी संतान की तरह स्नेह किया,वे एक थप्पड़ की वजह से घर छोड़कर अन्यत्र रहने चले गए।

सुरेश जी  टूटे दिल और भींगे नयनों से अपने बड़े से भायं-भायं करते हुए घर की ओर निहार रहे थे।घर का सन्नाटा उनके अंतर्मन को चीर रहा था।उसी समय उनके दोस्त विनय जी आते हैं और पूछते हैं -“क्यों भाई!इतनी खामोशियाॅं क्यों पसरी हुईं हैं? बच्चे कहाॅं गए?”

सुरेश जी भावावेश में आकर विनय जी को सारी बातें बताते हैं।

उनकी बातें सुनकर विनय जी कहते हैं -“दोस्त!अभी भी देरी नहीं हुई है।शादी कर अपना घर बसा लो।अपना परिवार अपना ही होता है।”

सुरेश जी कहते हैं -“दोस्त!अब शादी की उम्र बीत चुकी है।इस उम्र में मुझे कौन लड़की देगा?”

विनय जी कहते हैं -“इस उम्र क्या?अभी तो तुम चालीस वर्ष के ही हो। तुम्हारी शादी की जिम्मेदारी मेरी है।एक  सभ्य परिवार की सुन्दर और सुशील  लड़की है मेरी नज़रों में।बस तुम हाॅं कर दो।”

 दोस्त की बात में आकर सुरेश जी ने  शादी के लिए हामी भर दी।कुछ दिनों बाद मीता नाम की लड़की से सुरेश जी की शादी हो जाती है।उस समय शादी से पहले लड़की देखने का रिवाज नहीं था।मीता की खुबसूरती और कमसिन उम्र देखकर सुरेश जी आश्चर्यचकित रह जाते हैं।मीता के दादा-परदादा जमींदार थे। जमींदारी तो चली गई थी, फिर भी जीवन-यापन के लिए उनके पास काफी जमीनें थीं।जैसे बूॅंद- बूॅंद- से घड़ा भरता है,उसी प्रकार बूॅंद- बूॅंद- निकालने से घड़ा खाली भी हो‌ जाता है।

वहीं हाल मीता के दादा-परदादा का हुआ था।उनके पास लक्ष्मी तो थी, परन्तु सरस्वती नहीं। लक्ष्मी के साथ सरस्वती का संगम हो तो लक्ष्मी टिकी रहती है,वरना अकेली लक्ष्मी चंचला हो उठती है।मीता के पूर्वज जमीन बेच-बेचकर अय्याशी करते रहें।मीता के पिता के हिस्से में कुछ जमीनें आईं, जिन्हें उन्होंने ने दोनों बेटियों की शादी में बेच दीं।मीता की शादी के समय वे खोखले हो चुके थे,इस कारण संपन्न घराना देखकर अट्ठारह वर्षीय मीता की शादी चालीस वर्षीय सुरेश जी से कर दी।

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मीता देखने में बहुत खुबसूरत थी। संगमरमर -सा तराशा बदन, बड़ी-बड़ी झील-सी नीली ऑंखें,हिरणी-सी भयभीत चाल देखकर सुरेश जी निहाल हो उठते।मीता रुह के रास्ते उनके दिल की जमीं पर उतर चुकी थी। इससे पहले उन्हें ज़िन्दगी कभी इतनी खूबसूरत नहीं लगी थी।

उसके आने से उन्हें ऐसा महसूस होता मानो स्याह बादलों के पीछे से  अचानक सूरज का उजाला  निकल पड़ा हो।उनकी जिंदगी की उदास फिजाओं में सात रंगों का इन्द्रधनुष घुलने लगा था।मीता के मृदु स्वभाव, नुपुर ध्वनि,तरल मासूम हॅंसी, लज्जा से सहमी -सी ऑंखें,नशीला बदन  कभी तो सुरेश जी को श्रृंगार रस में डूबने को रिझाता, कभी-कभी उन्हें अपने निर्णय पर पश्चाताप भी होता। सुरेश जी खुद भी सुदर्शन व्यक्तित्व के स्वामी थे,इस कारण उनके चेहरे पर उम्र की हल्की -सी झलक तो थी, परन्तु बुढ़ापे के कोई लक्षण नहीं थे।

मीता भी उन्हें पति परमेश्वर मानती थी।मीता गाॅंव की भोली-भाली बन्द कली थी। ससुराल में खुद को ढालने और पति के साथ बातचीत में असहज महसूस करती।सुरेश जी मीता की भावनाओं को अच्छी तरह समझते थे।मीता दसवीं पास भी नहीं थी,इस कारण उसमें आत्मविश्वास की कमी थी।

वह पति के समक्ष डरी-सहमी सी रहती। सुरेश जी ने मीता के साथ शादी तो कर ली थी, परन्तु उन्हें महसूस होता कि उन्होंने मीता के साथ न्याय नहीं किया है। आत्मग्लानि के कारण उनकी अंतरात्मा उन्हें हमेशा कचोटती रहती।पर अब पछताए होता क्या,जब चिड़ियाॅं चुग गई खेत।शादी तो हो चुकी थी,अब सुरेश जी पश्चाताप करना चाहते थे।सबसे पहले उन्होंने मीता में आत्मविश्वास जगाने की कोशिश की। उन्हें भली-भाॅंती पता था कि आत्मविश्वास पाने के लिए मीता के दिल में शिक्षा का का अलख जगाना होगा। कहीं -न-कहीं उनकी अधिक उम्र के कारण मीता को आत्मनिर्भर बनाने की भी जीजिविषा भी अवचेतन  मन में रही होगी!

 अत्यधिक  सोच-विचार करके शादी के कुछ ही दिनों बाद सुरेश जी ने मीता को शिक्षित बनाने का दृढ़ संकल्प लेते हुए कहा -” मीता!कल से तुम्हारी पढ़ाई -लिखाई शुरु होगी।”

मीता ने अकचाते हुए कहा -“अब मैं कैसे पढ़ूॅंगी?मेरी पढ़ाई तो बहुत पहले छूट चुकी है! मुझसे न  हो पाएगी।”

सुरेश जी ने कहा -“मीता! पढ़ाई की कोई उम्र नहीं होती। जहाॅं से शुरुआत करो, वहीं  से आरंभ होता है। मैं कचहरी से आने के बाद तुम्हें खुद पढ़ाऊॅंगा।”

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अब सुरेश जी की जिंदगी के दो ही मकसद रह गए।एक मीता की जिंदगी को प्यार भरी खुशबुओं से भर देना,दूसरा पढ़ा-लिखाकर मीता को आत्मनिर्भर बनाना। शुरुआत में तो मीता पढ़ाई में आना-कानी करती।उसका मन पढ़ाई में नहीं लगता, परन्तु सुरेश जी समझदार थे, इसलिए उन्हें पता था कि कोशिश करनेवालों की हार नहीं होती।वे  मीता में पढ़ाई के प्रति अनवरत रुचि जगाते रहे। सचमुच कहा गया है’जहाॅं चाह,वहाॅं राह’।

आखिर दोनों की मेहनत रंग लाई।मीता  अपनी लगन और पति के  प्रोत्साहन से धीरे-धीरे स्नातकोत्तर तक उत्तीर्ण हो गई।इस बीच मीता दो बेटों की माॅं भी बन चुकी थी, परन्तु सुरेश जी ने उसकी पढ़ाई में कोई अड़चन नहीं आने दी। दोनों के दाम्पत्य -जीवन का स्नेह -बंधन दिनों-दिन मजबूत होता गया।कुछ समय बाद मीता ने पीएच.डी की डिग्री भी हासिल कर ली।कुछ  दिनों से  मीता काॅलेज में व्याख्याता पद पर कार्यरत हैं।अब आत्मविश्वास से लबरेज मीता पति के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर सभी जगह जाती है।

उसी समय मीता और बच्चों के लौट आने से सुरेश जी का मन वर्त्तमान में वापस लौट आता है।वे हसरत भरी निगाहों से उन्हें निहारने लगते हैं।मीता भी उन्हें देखकर मुस्कुरा उठती है।

पत्नी को शिक्षित कर आत्मनिर्भर बनानेवाले पति विरले ही होते हैं।नमन है सुरेश जी जैसे पति को।

समाप्त।

लेखिका -डाॅ संजु झा। स्वरचित।

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