स्लम डॉग्स – रवीन्द्र कान्त त्यागी

एक चमचमाती सफ़ेद वॉल्वो बस गाँव के कच्चे रास्ते पर हिचकोले खाती हुई बरगद के पेड़ के नीचे आकर ठहर गई।

जोहड़ में नगधड़ंग नहाते बच्चे, सिर पर घास का गट्ठर लादकर खेत से लौटती घसियारनें, बैलों का पगहा थामकर थके हारे धूल में अटे हरवाहे और हुक्का गुड्गुड़ाते झुर्रीदार मूछों वाले बुजुर्ग जिज्ञासू निगाहें लिए धीरे धीरे बस के चारों ओर एकत्रित हो गए।

“क्या सानदार मोटर है।” एक ने कहा।

“कौन लोग हैं। जाने क्या करने आए हैं गाँव में।”

“अरे काले सीसे में कुछ दिख भी तो ना रहा। राह भटक गए होंगे बेचारे।”

“अरे ऐसी गाड़ी तो हमने पहली बार देखी है। रामचरण लंबरदार के लौंडे की सादी में जो गाड़ी आई थी वो तो इस से आधी भी ना थी। उड़नखटोले सी लग रही है।”

तभी गाड़ी का स्वचालित पिछला दरवाजा खुला और एक चालीस साल के नौजवान और दो विदेशियों ने गाड़ी से बाहर कदम रखा। नौजवान गहरे काले वर्ण का था और उस ने अपने लंबे बाल पीछे बांध रखे थे। गोरी चमड़ी वाले बड़ी उत्सुकता से गाँव के लोगों और वातावरण को परखने का प्रयास कर रहे थे।

एक विदेशी ने ग्रामीणों के उत्सुक चेहरे देखकर नौजवान को कुछ इशारा किया और वो गाँव के लोगों को संबोधित करने लगा।

“हम लोग आप के गाँव में फिल्म बनाने के लिए आए हैं। उम्मीद है आप सब लोग कोओपरेट… आई मीन …. सहयोग करेंगे।”

“बड़ी खुसी की बात है साहब। जरूर बनाइये फिलिम। पर हमारे गाँव में फिलिम बनाने लायक रक्खा ही क्या है। यहाँ तो बस गरीबी है। भुखमरी और बेरोजगारी है। न बिजली है न पीने का साफ पानी। न हस्पताल, और न सड़क।” दुबले पतले बुजुर्ग प्रधान जी आगे बढ़कर बोले।

“एग्जैक्ट यही तो चाहिए हम को। एक्चुअली वी वॉन्ट … आई मीन रीयल इंडिया… म मेरा मतलब असली भारत की तस्वीर दुनिया को दिखाना चाहते हैं सो …।” उसने झिझकते हुए कहा।

“असली भारत कोई हमारा गाँव ही थोड़े है साहब। भारत तो बड़ा देस है। दिल्ली बंबई जैसे बड़े सहर हैं। बड़ी इमारतें हैं। चौड़ी सड़कें हैं। बड़े बड़े स्कूल कॉलेज, हवाई जहाज, रेल गाड़ी, सब हैं। फिर यहाँ गाँव देहात में …।”



“ये सब तो होल वर्ड में… मेरा मतलब कि सारी दुनिया में है ओल्ड मैन… बट दुनिया इंडिया के अंदर का गंद… सौरी। आई मीन इनरनेशनल मार्केट को केवल अच्छा अच्छा नहीं चाहिए। मुंबई आने वाले विदेशी टूरिस्ट जुहू बीच देखने से पहले धारावी स्लम देखने जाते हैं। उन्हे बाजीगरों और सपेरों वाला इंडिया…।”

“हनी हनी क्या कर रहे हो। तुम ठीक से समझा नहीं पा रहे हो डीयर।” बस के भीतर से एक सूटिड बूटिड, झक सफ़ेद बालों वाले गहरा काला चशमा लगाए शक्ल से ही धूर्त दिखने वाले प्रौढ़ ने बाहर कदम रखा।

“सुनिए मिस्टर … क्या नाम है तुम्हारा।” उसने बुजुर्ग को संबोधित करते हुए पूछा।

“जी मैं इस गाँव का प्रधान हूँ और …।” नाम सुनने में उसकी कोई रूचि नहीं थी।

“हाँ तो प्रधान जी। हमारा मकसद है कि पूरी दुनिया आप की परेशानियों को समझे, देखे और महसूस करे। समझ रहे हैं न आप। और जब ये पिक्चर उनके सामने जाएगी, के इस गाँव में न स्कूल है न सड़क तो … समझ रहे हैं न आप। तो हो सकता है कि …।”

“तो आप ये सनीमा सरकार को दिखाएंगे।” भोले प्रधान ने उत्सुकता से पूछा।

“हाँ हाँ सीधे सरकार को। और उन से कहेंगे कि भाई … समझ रहे हैं न आप। इस गाँव में भी कुछ डव्लप…।” उस आदमी ने अपनी धूर्तता पूर्ण बातें मिठास घोलकर परोसीं।

गाँव वालों को प्रधान जी की बातें अब कबाब में हड्डी की तरह लग रही थीं। गाँव में पहली बार इतनी बड़ी गाड़ी लेकर इतने पैसे वाले लोग धूल में धक्के खाने आए हैं तो हमारा कुछ भला सोचकर ही आए होंगे। और वैसे भी हमारी टूटी झौंपड़ी और फूटे बर्तन में से क्या लूटकर ले जाएंगे। ऊपर से सूटिंग देखने की इच्छा सब के मन में हिलोरे मार रही थी।

भारत की गरीब, अनपढ़, तंगहाली और अंधविश्वासों से घिरी हुई जनता को दुनिया के सामने नंगा करके धन और यश कमाना भी किसी का मकसद हो सकता है ये उन भोले भाले ग्रामीणों की समझ से कोसों दूर की बात थी।

चंद घंटों में ही फिल्म कंपनी ने बाज की तरह गाँव की चौपाल पर अपने पंजे जमा दिये और तामझाम फैलाकर सूटिंग शुरू कर दी गई।

जोहड़ में नंगधड़ंग बच्चों को भैंस की पीठ पर सवारी करते फिल्माया गया। नंनकू धींवर को कच्ची शराब पीकर फटी धोती में लिपटी अपनी बीमार पत्नि को पीटते दिखाया गया। माता के मठ में औघड़ को कच्चा मांस खाते और प्रेत बाधा से ग्रस्त बाल फैलाकर जमीन पर देह पटकती औरतों के क्रत्रिम दृश्य कैमरे में कैद कर लिए गए। पैसे का लालच देकर, एक टूटी फूटी थाली में एक मुट्ठी चावलों पर भूखे बच्चों के टूट पड़ने को फिल्मा लिया गया।



लाइट, कैमरा और साउंड की अनबूझी आवाजें और दस रुपये, पचास रुपये और सौ रुपयों के नए नोटों को शूद्र आँखों से निहारते बच्चे, बूढ़े और जवान। कैमरे के सामने नंगे दौड़ते बच्चों को बीस रुपये। गंदे कीचड़ में लथ पथ होकर रोटी के लिए लड़ते बच्चों को पचास रुपये और प्रेत बाधा में हाथ पाँव पटकती औरत व कच्चा मांस खाने वाले औघड़ को सौ रुपये। गाँव का हर आदमी कैमरे के सामने कुछ न कुछ करके एक नया नोट कमा लेना चाहता था।

“सुनो सुनो। एक आदमी चाहिए जो स्कैल्टन… आई मीन हड्डियों का ढांचा हो और …।”

“है न साब। मेरा बापू है साब। बहुत कमजोर है। बुलाऊँ क्या साब।” एक आठ दस साल का कुपोषण का शिकार सा मासूम ज़ोर से चिल्लाया।

“और कैमरे के सामने खाँसने का …।”

“हैं न साब। मेरे बापू को खांसी है। दमा है साब दमा।” बालक अपने घर में एक नया नोट आने की उम्मीदभरी निगाहों से देखते हुए याचनात्मक शब्दों में चिल्लाया। उसे डर था कि ये अवसर भी कोई और झपटकर न ले जाये क्यूंकि इस गाँव में उसके बापू से कमजोर आदमी ढूंड़ना भी कोई मुश्किल काम नहीं था।

सैट तैयार था। एक टूटी सी झौंपड़ी के सामने एक दरिद्र सी औरत फटी साड़ी को इस प्रकार से लपेटे कि साड़ी के छिद्रों से उसके जिस्म के उभारों की झलक मिलती रहे। बुनावट टूट कर झटोल हो गई खाट पर अधनंगे बदन, पिचके गालों पर बढ़ी हुई दाढ़ी, उजड़े हुई बाल और मैडीकल कॉलेज के छात्रों को दिखाये जाने वाले हड्डियों के ढांचे सा धनसुख व कैमरे के फ्रेम से बाहर कच्ची दीवार की ओट से कतार निगाहों से देखता हुआ उसका मासूम।

“स्टार्ट … अरे सुनो। क्या नाम है तुम्हारा, तुम्हें उस कैमरे की ओर कातर और भूखी सी निगाहों से देखना है।” निदेशक ने कहा।

“जी धनसुख नाम है मेरा।” 

“ओह … क्या बात। धन भी और सुख भी।” निदेशक ने व्यंग से मुस्कराते हुए अपनी टीम की ओर देखा।

“हाँ तो मिस्टर धन – सुख। जब हम स्टार्ट बोलेगा तो तुम को ज़ोर ज़ोर से खाँसना है। समझ गए ना। हाँ तो … कैमरा, लाइट, साउंड स्टार्ट।”

और धनसुख ज़ोर ज़ोर से खाँसने लगा।



“कट कट। अरे ये चूल्हे से प्रौपर धूँआ क्यूँ नहीं उठ रहा है। और ये गंदे सूअर लेफ्ट से राइट को भागने चाहियेँ। ब्लड़ी फूल्स। कोई काम…। इफैक्ट आना चाहिए। चलो रैड़ी। लाइट। साउंड। स्टार्ट।” डायरैक्टर गुस्से से चिल्लाया और धनसुख स्टार्ट सुनते ही एक बार फिर खाँसने लगा।

“कट कट। अरे ये लाइट ठीक करो भाई। पसलियों पर ऐसे पड़नी चाहियेँ कि… और उसके बालों में थोड़ा और वाइटनर। हाँ और आँखों के नीचे डार्कनैस बढ़ाओ। ये मैडम साड़ी को बार बार छेड़ क्यूँ देती हैं… इफैक्ट आना चाहिए इफैक्ट। लाइट … स्टार्ट।”

धनसुख एक बार फिर खाँसने लगा। बार बार खाँसने से उसकी ऊर्जा क्षीण होती जा रही थी।

“कट कट। अरे धनसुख। थोड़ा और ज़ोर से खाँसो भाई। नहीं तो मुझे किसी और को… इफैक्ट आना चाहिए।”

धनसुख अपने और पत्नी के मिलाकर दो सौ रुपये घर में आने के इस सुअवसर को किसी भी स्थिति में खोना नहीं चाहता था। वो अपनी बची हुई पूरी ताकत झोंककर खाँसने लगा। उसकी पसलियाँ लोहार की धौंकनी की तरह ऊपर नीचे उछल रही थी। फेफड़े मानो हड्डियों की दीवार तोड़कर बाहर फट जाना चाहते थे।

“कट कट। चलो हो गया। गुड सीन। अरे धनसुख बंद करो भाई। हो गया।”

मगर धनसुख की खांसी रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी।

“अरे कोई इसे पानी वानी पिलाओ भाई। चलो पैकप। आज का काम खत्म हो गया। पैकप।” बोलता हुआ अनुभवी निदेशक पलट पलटकर धनसुख की दशा देखते हुए सैट से दूर खिसक रहा था।

फिल्म वाले सामान समेटने लगे मगर धनसुख की खाँसी रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। उसका बदन खाँसते खाँसते दोहरा हुआ जा रहा था। उसकी पसलियाँ उछल रही थीं और आँखें अपने कटोरे से बाहर को उबल जाना चाहती थीं। उसका चेहरा पीला पड़ता जा रहा था।

लोग धनसुख की खाट उठाकर झोंपड़े के अंदर ले गए। उसके जिस्म को दहकते उपलों की आंच से तपाया गया। लोंग और तुलसी का काढ़ा बनाकर उसके हलक में उंडेलने का प्रयास किया गया। वैद्य जी से तेल मंगाकर उसकी छाती पर मला गया मगर धनसुख की खांसी रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी।

रात के दो बजे थे। धनसुख की खांसी रुक गई थी। उसके फेफड़ों ने उछलना और जिस्म ने काँपना बंद कर दिया था। उसकी आँखें अपने कटोरों में शांत बैठ गई थीं। धनसुख चैन की नींद सो गया था। सदा के लिए।

सुबह गाँव वालों ने देखा कि ‘फिलिम कंपनी’ की गाड़ी का कहीं नामोनिशान नहीं था। भारत की झुग्गियों में रहने वाले गरीब बच्चों को स्लम डॉग यानी गंदी बस्तियों का कुत्ता बताकर दुनिया के मंच पर ढेरों इनाम बटोरने वाले काली संस्कृति के गोरे लोग एक बार फिर गरीबों के मुंह पर थूक कर पलायन कर गए थे।

रवीन्द्र कान्त त्यागी

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